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Thursday, 17 September 2020

वो घर में तो होती पर घर में नहीं रहती

 अक्सर

वो घर में तो होती
पर घर में नहीं रहती
अकेले होते ही
वो चिड़िया बन जाती है
और खिड़की से उड़ के
बादलों को चूम आती है
नीम पे बैठी कोयल के संग
अलाप ले आती है
या फिर
पेड़ के जड़ से फुनगी तक
चुकुर - चुकुर करती
रोयें दार पीठ वाली गिलहरी से
गुपचुप - गुपचुप कर आती है
और कई बार
उड़ती - उड़ती
राह चलती काम वाली से
सुक्खम - दुक्खम कर आती है
ठेले वाले से मोल तोल कर
डेढ़ की चीज़ एक में ले के
बच्चों सा खुश हो लेती है
कई बार मैंने उसे
सूरज के पीछे छुपे चाँद की
तलाश में भी दूर तक उड़ते हुए देखा है
पर वो हर बार निराश हो के
लौट आती है
और थक कर
चिड़िया से फिर
कुछ कुछ उदास
कुछ कुछ खुश
कुछ कुछ शांत
कुछ कुछ अशांत
औरत बन जाती है
सांझ का धुंधलका होने के
ठीक ठीक पहले
मुकेश इलाहाबादी ------

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