यहाँ
अब लोग
दर्द में / दुःख में
रोते नहीं
पहले की तरह
बुक्का फाड़ - फाड़ के
जोर - जोर से
हिचकियाँ बंधने तक
या कि बेहोश होने तक
शायद
ये लो रोना भूल गए हैं
या फिर
इनके आँसू सूख के
नमक के धेले बन गए हैं
और नमक के धेले बहते नहीं
यहाँ के लोग
ऐसा नहीं रोना ही भूले हों
ये हँसना भी भूल गए हैं
पहले की तरह अब
चैला फाड़ या
बेलौस हँसी नहीं सुनाई देती
महफ़िलों में
बैठकों में
कहवा घरों में
क्या कोई देव दूत
इन मासूम लोगों की
हँसी और रुलाई फिर से
वापस ला पायेगा ???
या फिर ये मर खप जायेंगे
यूँ ही
बिना रोये
बिना हँसे
बिना मुस्कुराए
एक मुर्दा उदासी के साथ
मुकेश इलाहाबादी -------------
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