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Saturday, 3 March 2012

पहाड़ और स्नो व्हाइट


पहाड़ और स्नो व्हाइट

     ‘बर्फ सी उजली व नीली ऑखों वाली नील मैम को   यह कहानी नज़र करता हूं। जो तन व मन से खूबसूरत तो हैं ही, और जिनकी खूबसूरत उंगलियां  पत्थरों मे भी जान ड़ाल देती हैं। जिन्हें आज भी कामशेत पूणे की वादियों में देखा जा सकता है। उन्ही की जिंदगी से यह कहानी चुरायी है।’



                 आफिस । मेज-पूरब की तरफ। खिड़की- पूरब की तरफ। खिडकी के पार पहाड़ - पूरब की तरफ।
आज भी - खिड़की खुली है। दिवाकर अपने सातों  रंग समेट मेज पे पसरा है । पहाड़ खिला है । हरे, भूरे, मटमैले रंगो मे अपनी पूरी भव्यता के साथ । रोज सा। मानो सातो रंग छिटक दिये गये हों एक एक कर। इंद्र धनुष आसमान से उतर पहाड़ पे पसर गया हो।
बादल पेड़ डै़म सभी खामोश  हैं सिवाय शोख चंचल गिलहरी के जो अक्सर पेड़ की ड़ालियों पे फुदकती हुयी चुकचुकाती है।
यहां तक कि पहाड़ भी चुप है। पर है मन ही मन खिला खिला। मौन मैने ही तोड़ा ‘दोस्त - हर रोज शुरू  होती है, अन्तहीन यात्रा। सुबह देखे सपनो के साथ। उम्मीदो के साथ, सपने सच होने के। किन्तु पल पल वक्त गुजरता है । रोशनी  बढ़ती जाती है। छिन छिन सपने धुंधलाते जाते हैं। अंधेरा बढता जाता है। सूरज सर पे आता है। अंधेरा पूरी तरह फ़ैल जाता है। सपने शून्य  मे खो जाते हैं। आंखो मे सपने नही अंधेरा होता है। वक्त अपनी रफ़तार से बढता जाता है। अंदर का अंधे रा बाहर आने लगता है। सूरज अपनी मांद मे छिपता जाता है। अंधेरा अंदर व बाहर दोनो जगह घिरता जाता है। दिन मे टूटे सपने फिर जुड़ने लगते हैं। नये सपने बुनने के लिये। आज तुम्हारी ऑखो मे भी देख रहा हूं  एक हंसी । चेहरे पे मुस्कराहट । क्या तुम्हारा कोई सपना सच हो गया है। या कोई हंसी सपना देखा है।’
‘दोस्त- दुनिया एक सपना है। सपने ही दुनिया है। सपने हैं इसीलये दुनिया है। सपने न होते दुनिया न होती।  क्योंकि  सपना ही र्वतमान है, सपना ही भूत है, सपना ही भविष्य है। सपने, बनते हैं जिजिविषा जीने की। सपने खत्म, जीवन खत्म। रही बात मेरी तो जान लो।
पत्थर सपने नही देखते। मै भी नही देखता। हां सपने देखने वालों को  जरुर देखा है। सपनो को टूटते देखा है। आओ मै सुनाता हुं तुम्हे एक कहानी ।
एक बुढिया की
जो कभी एक औरत थी एक लडकी थी
जो  आज भी सपने बुनती है।
उसी शिद्दत  से जिस शिद्दत से, उसने सपने बुने थे बचपन मे जवानी मे।
तो सुनो
मैने अपने कान पहाड की शांत  चोटियों से लगा दिये। और ऑखों को चटटानो से चिपका दी।
दूर घाटियों से पहाड़ के शब्द  उभरने लगे।
कल्पना करो
यहां से दूर बहुत दूर। सागर किनारे। खूबसूरत जगह गोवा मे एक बहोत बडे रईस  की एक खूबसूरत  सी लडकी की। गोरा रंग नाटा कद। सुतवा नाक, साधारण पर बेहद आर्कषित करने वाली नीली आखें । कोमल शरीर । चंचल और शोख ।
नाम कुछ भी रख लो। वैसे तो हर लडकी की लगभग एक सी कहानी होती है। खैर मैने तो उसका नाम स्नो व्हाइट रखा है। हो सकता है उसका नाम कुछ और हो। पर मुझे यही नाम उसके लिये सबसे अच्छा और उपयुक्त लगा। इसीलिये मै उसको स्नोव्हाइट कहके पहचानता हूं।

स्नो व्हाइट एक किशोरी । पतली दुबली छोटी काया। कांधे पे लहराते घुंघराले लम्बे बाल, बादलों के माफ़ि़क। न जाने कब बरस जांये। आंखे उफनते झरने। सागर किनारे लहरो सी दौडती, उछलती। कभी रेत मे औंधे लेट, गहरी नीली आंखों से देखना दूर तक, दूर तलक जहां जमीन व आकाश  एकाकार होते है। स्नो व्हाइट उस बिंदु को देखती रहती देखती रहती देर तक और देर तक न जाने कब तक। न जाने क्या सोचती फिर उठती और फुदकने लगती सागर किनारे। घरौंदे बनाती रेत पे। सजाती संवारती। अभी पूरी तरह खुश भी न हो पाती अचानाक लहर आती। स्नो व्हाइट भीग जाती। घरौंदा बह जाता। वह उदास होती। वह खुष होती और फिर उसी शिद्दत से लग जाती घरौंदा बनाने में। सूर्य किरणें उसके गोरे मुखडे को रक्ताभ कर देती।स्वेत जलकण गालों को भिगो देते। कुछ रजकण अलकावलिया संवारने के दौरान गालो से चिपक उसकी ख़ूबसूरती  को हजारहा गुणा करदेते। पर वह इन सब से बेखबर सुंदर गुड़िया सी पूरी तन्मयता से लगी रहती बार बार रेतघर बनाने मे। 
बेखबर इस बात से कि कोई किषोर उसे दूर से देखता रहता है और अभी भी देख रहा है।
अचानक।
किषोर स्नो व्हाइट के बगल आ खडा होता है।
‘क्या मै तुम्हारे साथ खेल सकता हूं स्नो व्हाइट’
कमल सी आखें किशोर की ऑखो से मिली। बांहो से उसने लटो को पीछे धकेला। ‘हां हां क्यों नही जॉन’।
बस, दोनो खेलने लगे साथ साथ। हंसने लगे एक साथ।
अब दोनों,  अक्सर रेत किनारे दिख जाते। दौडते। भागते। खेलते । उब जाते तो लड़का समुद्र मे छलांगे लगा दूर तक तैरता निकल जाता। लहरों के साथ वहां तक जहां धरती व आकाष मिलते हैं या मिलते से महसूस होते हैं। लड़की वहीं किनारे रेतघर बनाती रहती।
‘इस तरह क्या देख रहे हो जॉन’
‘कुछ नही स्नो बस देख रहा हूं तुम कितनी सुंदर हो। बिलकुल परी जैसी’
‘हां मै परी ही तो हूं। बिना परों की। पर तुम देखना एक दिन मै जरुर उड़ कर आसमान मे चली जाउंगी दूर बहुत दूर ।’
‘कहां.. चॉद पे’
‘हां चॉद पे चली जाउंगी’
‘कोई बात नही मै भी इन समुद्र की लहरो पे चलता हुआ तुम तक पहुंच जाउंगा’
स्नो हंसती है। चांदनी छिटक जाती है।
‘लहरों  पे चलके तुम मुझतक कैसे पहुचोगे ?’
‘पूर्णिमा को जब ज्वार भाटा आयेगा तो लहरें उंची उठ कर मुझको तुम तक पहुंचा देंगी’
दोनो हंसते हैं । गडड मडड होते हैं। लहर और चांदनी हो जाते हैं।
चॉद सरमा के मुंह छुपा लेता है।
ताड़ ब्रक्ष भी लहरों से झूमते हैं।
खामोशी --
‘जान, देखो सागर कितना सुंदर है’
‘हां, सागर है तो सुन्दर है’
‘क्यों, क्या सागर मे तुम्हे कोई सुंदरता नही दिखायी पड़ती। इन लहरों मे तुम्हे कोई संगीत नही सुनाई पड़ता। इन पेड़ों मे कोई रुहानी खुशबू  नही महसूस होती’
‘स्नो, तुम इतनी भावुक क्यों  हो ? यह सब तो जिंदगी के हिस्से हैं। आओ मेरी बाहों मे देखो कितना आनंद है। स्नो को अपने मे घेर लेता है। वह भी गोद मे छुप जाती है। गौरैया सी।
लड़की। सपना। घरौंदा।
सचमुच का घरौंदा । और ढेर सारी रेत। रेत के किनारे फैला मीलों लम्बा समुद्र। समुद्र में लहरे। लहरों पे फ़ैली चांदनी। चांदनी के साथ साथ उड़ते स्नो और जॉन। दूर तक दूर तक। चांद तक। सितारों तक सितारों के पार तक।
सपना सच हुआ। चांद और चांदनी एक हुए।
पर कुछ दिन बाद।
लड़का लोहे के बडे़ बड़े जहाज पे चढ़, लहरों पे उड़ते हुए चला गया, दूर बहुत दूर। उससे भी बहुत दूर जहां धरती व आकाष मिलते हैं। या मिलते हुए प्रतीत होते हैं।
लड़की। रेत। घरौंदा।
इंतजार। मीलो लम्बा इंतजार। समुद्र सा लम्बा व अंतहीन। स्नो रोज आती सागर किनारे। सागर को देखती, लहरों को देखती उनसे अपने जान के बारे में पूंछती पर लहरें हरहरा के रह जाती और उसके बनाये घरोंदे  को मिटा जातीं। स्नो फिर आती दूसरे दिन पर जान न आता। महज इंतजार इतंजार और इंतजार। और एक दिन। वह थक कर उड़ चली हवाई जहाज पे। परिचारिका बन। हवाई जहाज जब कभी,  बादलों के पार जाता तो वह अपनी पलके फाड़ फाड़ बाहर देखती, षायद जॉन चॉंदनी की लहरों पे सवार हो उससे पहले आ उसके लिये घरौंदा बना रहा हो। पर  हर बार उसे निराशा  ही मिलती।
उम्मीद भरी ऑखों मे अश्रुकण झिलमिला आते।
धीरे धीरे, स्नो की ऑखो के सपने धुधंलाने लगे। आसूं सूखने लगे। वह फिर से मुस्कुराने लगी।
उसने यह सोच तसल्ली कर ली की शायद जॉन उसके लायक ही न रहा हो। या वह ही उसके लायक न रही हो। या उससे कोई भूल हो गयी हो।  कारण जो भी रहा हो पर जॉन वापस नही आया। षायद वापस आने के लिये गया भी नही था’
कुछ पल के लिये मौन।
‘इस तरह स्नो व्हाइट की जिंदगी का पहला बौना रस लेकर उड़ गया था।’
पहाड़ ने लम्बी सांस ली।
मैने भी ।
पहाड़ चुप, उदास ऑखो से अनंत आकाश को देखता। मेरी उत्सुक निगाहें आगे जानने को व्याकुल। कहने लगी लगं।
‘दोस्त, आगे तो बोलो’
पहाड़ कुछ देर सोचता  रहा।
बोला ‘स्नो, जॉन के बिरह मे तपती, गलती हंसती तो रहती पर अक्सर चुप ही रहती। किसी से कुछ न कहती। खोयी खोयी सी रहती।
फिर भी उन खोयी खोयी सी उदास ऑखों मे न जाने कौन सा जादू रहता कि देखने वाला स्नो को देखता ही रह जाता। पर वह इन सब से बेखबर अपनी ही दुनियो मे डूबी रहती।’ 
फिर एक दिन।
स्नो हमेश की तरह हवाई  परिचारिका की ड्रेस मे सजी धजी। रुई से बादलों के बीच से उड़ रही थी। लोग उसे उड़न परी बोला करते। कारण वह सभी यात्रियो व सहायको के काम व फरमाईशो  को बड़ी तत्परता से मुष्कुराते हुए करती रहती। खूबसूरत तो वह थी ही।
एक राजकुमार की नजरें उससे मिली। राजकुमार वाकई किसी देष का राजकुमार था। देखते ही स्नो की खूबसूरती पे मर मिटा। न जाने कब।
औपचारिक बातें अनौपचारिता मे बदल गयी।
स्नो राजकुमार के महल मे रहने लगी।
फूल से कोमल व रुई से हल्के बादलों को उसने अलबिदा कह दिया।
बादल स्नो से बिछड़ के खुश तो न थे पर स्नो की खुशी  मे वह खुश  थे।
स्नो एक बार फिर अपने नये घरौंदे मे खुश थी। 
दिन हंसी खुषी बीत रहे थे। इन्ही हंसी खुशी के दिनो मे ही कब।
घरौंदर। रेत का पिंजड़ा बन गया। 
स्नो को पता ही न लगा।
उड़न परी के पर न जाने कब कट चुके थे। दुनियादार राजकुमार देष दुनिया के कामो मे व्यस्त रहने लगा। स्नो कभी कुछ कहती तो हंस के कहता ‘स्नो तुम्हे दुख किस बात का है। तुम्हे जो चाहिये वह सब कुछ मंगा सकती हो किसी बात की कमी हो तो बोलों हां यह जरुर है कि एक रानी होने के नाते तुम्हारे कहीं आने जाने व बोलने बतियाने मे कुछ प्रतिबंध तो रहेंगे ही। और तुम तो जानती ही हो शाशन चलाना इतना आसान नही है। इसलिये तुम मेरा हर समय इंतजार न किया करो।’
झील सी आखें  उफना जाती।
उड़न परी को याद आने लगता। सागर की उन्मुक्त लहरें। मीलो लम्बे फैले रेत पे बेलौस दौड़ना।
और घरौंदे बनाना।
घरौंदा रेत का ही होता पर बनाती तो वह अपने ही हिसाब से थी।
याद आने लगती बादलों की। चिड़िया सा परी सा फुदक के उड़ जाना आज इस देष मे तो कल उस देश मे। कितना मजा था। कितना आनंद था। 
स्नो ने एक बार फिर अपने कटे पर अलमारी से निकाले। साफ किया पिंजड़े को छोड़ उड़ चली। अनंत आकाश मे।
बादलों ने एक बार फिर अपनी प्यारी उड़नपरी का दिल खोल कर स्वागत किया पर बादल परी के राजकुमार से अलग होने से कुछ उदास हो गये थे।
इस बार स्नो बादलों से कहती। ‘तुम लोग क्यों उदास होते हो। घरौंदा तो मेरा टूटा है पर मै तो उदास नही हूं।’
आंसुओं को पीते हुए आगे कहती ‘दोस्त घरौंदे तो होते ही हैं टूटने के लियें। गलती मेरी ही है जौ मैने घर की जगह घरौंदो को पसंद करती हूं।’
यह कह के खिलखिला के हंस देती।
बादल भी मुस्कुरा देते। पर अंदर का र्दद दोनो ही महसूसते।
यह कह पहाड़ चुप हो गया।
आगे का वाक्य मैने ही पूरा किया। ‘और इस तरह स्नो की जिंदगी का दूसरा बैना रस लेकर चला गया था।’
पहाड़ की ऑखे मुझे देखती हैं। मेरी ऑखे उसकी आखों को।
लंबा मौन, लंबी सॉस
और चंद शब्द , बस कहानी ख़त्म।
स्नो,
घरौंदे बनाती रही।
घरौंदे टूटते रहे।
बौने जिंदगी मे आते रहे।
बौने जिंदगी से जाते रहे।
एक दिन वह बौनो से उब के यहीं मेरे पैरों तले सचमुच का घरौदा बना रहने लगी है। अब वह बस उसीको सजाती है। संवारती है। उसी मे खुश रहती है। आज भी उसके घरौंदे मे सात बौनों की प्रस्तर मूर्ती देख सकते हो। जमीन मे लेटे बेजान।
पर स्नो तो आज भी रातों को  देखती हैं। बादलों से बतियाती है।
और खुश है।
पर उसे आज भी चॉद मे जॉन दिखता है। जो शायद  किसी दिन लहरों पे सवार हो के आयेगा।
और वह उसकी बाहों में खो जायेगी
और फिर एक बार इस घरौंदे को खुद तोड़ देगी
और वह उड़ जायेगी पहाड़ों के पार बादलों के पास जो उसके दुख से दुखी व सुख से सुखी हो जाते हैं ।
अब पहाड चुप है। मै भी चुप हूँ ।
खिडकी खुली है।
गिलहरी पेड़ की खोह मे जा चुकी है। दाना दुनका लेकर।

मुकेश इलाहाबादी
कामशेत  .. पूणे

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