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Sunday, 12 August 2012

कभी सच था और कुछ हद तक आज भी सच है


कभी सच  था और  कुछ हद तक आज भी सच है जब है न जाने कितने ख़त जो काफी शिद्दत ओर मुहब्बत से एक एक जज़्बातों को मोती सा चुन के लिखे जाते थे और फिर बडे़ जतन से बंद लिफ़ाफे में भेजे जाते थे । इस अरमान के साथ कि ये ख़त कांपते हाथों और धडकते दिल से खोले जायेंगे और पढने वाला तन्हाइयों में भी मुस्कुरायेगा। लेकिन अक्सर वे ख़त, पाने वाले के हाथो कभी मुददतो और कभी कभी तो नही भी पडते। अक्सर सालों साल पोस्ट आफिस की दीवारों के कानों अतरों मे लापरवाही वर्षो पडे रह जाते थे। और फिर एक दिन अपनी भूल को सुधारते हुये किसी पहाड के खंडहर होते मकान की लान मे या शहर  की किसी जर्जर हाती हवेली या मकान के बरामदे में फेंक आया जाता था। जिसे उठा के पढने वाला खत का इंतजार करते करते वह जगह ही छोड कर जा चुका होता है या अपनी अंतिम सांसे ले चुका होता है।
और तब ये खत वहीं उसी बरामदे या लान में दिनो दिन पडे रहते थे । रोते और सिसकते जिन्हे कभी हवा उडा ले जाती, इधर से उधर तो कभी बादल से भीग कर नम होते होते गल जाते। अपने जज्बातों के साथ। फिर बरस कर किसी जंगल की गुमनाम नदी या पहाड की शिराओं से रिश  रिश कर किसी कोटर या बडे से गढढे में किसी झील की मानिंद अपने आप में ही बहती रहती। धीरे धीरे बिना किसी शोर और हरड हरड के। और ----   तब उसमें खिलते हैं यादों के खूबसूरत कमल।
और आज जब नेट व एस एम् एस के ज़माने में ख़त उतनी शिद्दत से न तो लिखे जाते हैं और न ही पढ़े जाते हैं - वे संवेदनाएं न जाने कंहा खो गयी हैं -  मगर अभी भी हमारे जैसे कुछ लोग मिल जायेंगे जो जिनके अन्तेर्मन में न जाने कितने भाव - जज़्बात और यादें दिल व दिमाग के जंगल में किसी रचना कविता व लेख के रूप में खिलते रहते हैं -
लिहाजा तुम मेरी इन कविताओं और कहानियों को मेरे ख़त जानना उन बातों उन यादों की जुगाली जानना जो तुम्हारे साथ बितायें हैं।

मुकेश इलाहाबादी -------------

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