अक्शर
चीखती हुई
खामोशी के साथ
बतियाता है
मेरा मौन
तब ---
होता हूँ 'मै'
एक गहरे कूप में
जंहा होता है
अनंत विस्तार
अपनी निस्तरंगता के साथ
जंहा घुल जाती है
मेरी चीख
मेरा मौन
मेरा व्यक्तित्व
उस समिष्ट मे
निस्तरंगता मे
गहरे कूप मे,
और तब ---
बच रहती है
एक अनंतता
अपरिभाषेय -----
मुकेश इलाहाबादी -------
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