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Monday, 15 October 2012

क्या तुम्हे वो शाम याद है ?

प्रिये,
क्या तुम्हे वो शाम याद है ?
जब
तुम मेरे साथ थी।
सुहानी शाम थी।
पुरनम हवा, फूलों की बातें
तितली की उडाने और भौंरों की गुन्जन थी।
सूरज दिन की तपन लपेट के पश्चिमांचल  हो रहा था।
चांद अपनी मुस्कुराहट के साथ  दूसरी दिशा से खिल रहा था।
और हम तुम ...
गांव और शहर के सीवान से लगी वीरान पुलिया पे बैठे थे
तुम कभी अपनी लटों को हल्के से संवारती थी तो कभी बिखर जाने के लिये
यूं ही छोड दिया करती थीं।
उस वक्त मै तुम्हे देखता रहता था
और तुम --
दूर कहीं बहुत दूर प्रथ्वी और आकाश  को एककार होते हुये देख रही थीं।
मुस्कुरा रही थी।
सांझ धीरे धीरे संवला रही थी।
तुम्हारी उंगलियां मेरी मुठिठयों मे भिंचती जा रही थी।
एक गहरा मीठा मीठा सोंधा सोंधा एहसास पसरा था चहुंओर
तभी आकाश मे दूर बहुत दूर
कोई सितारा टूटता है,
तुम घबरा कर मुझसे लिपट जाती हो
जैसे दूर धरती आकाश से लिपट रही होती है
सिमट रही होती है
और, तब मै ----
तुम्हारी घबराई हुयी बंद पलकों पे
अपने होंठ रख दिये थे  हौले से
न जुदा होने के लिये
न जुदा होने के लिये

मुकेश इलाहाबादी --------------------

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