बड़ी मुस्किल से तो हम किनारे आये हैं
नदी की धार को धता बता के आये हैं
सुबह से ही सूरज आग उगल रहा है
अपने बदन पे चन्दन लपेट के आये हैं
सूरत देख कर भरोसा करना ठीक नहीं
साधुओं के भेष मे लुटेरे भी आये हैं
अब चाँद से भी लपटें उठा करती हैं
मूकेश चाँदनी से ही बदन पे छाले आये हैं
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------
नदी की धार को धता बता के आये हैं
सुबह से ही सूरज आग उगल रहा है
अपने बदन पे चन्दन लपेट के आये हैं
सूरत देख कर भरोसा करना ठीक नहीं
साधुओं के भेष मे लुटेरे भी आये हैं
अब चाँद से भी लपटें उठा करती हैं
मूकेश चाँदनी से ही बदन पे छाले आये हैं
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------
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