बहुत देर तक मुस्कुराती रही धूप
बेहया सी खिलखिलाती रही धुप
हम तो समझते रहे चाँदनी है वह
जिस्मो जाँ को जलाती रही धूप
बैठे रहे छत पे तसुवर्रे जाना किये
हर बार हमें मुह चिढाती रही धूप
जबभी तेरी यादों ने ली अंगडाइयां
ख्वाब में हमारे कुनमुनाती रही धूप
कब तक समंदर बना रहता मुकेश
क़तरा क़तरा हमें सुखाती रही धूप
मुकेश इलाहाबादी -------------------
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