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Saturday, 31 August 2013

दुनिया अजब झमेला है

दुनिया अजब झमेला है
देखो रंग बिरंगा मेला है

मिल जुल कर रह ले तू
ये चार दिनो का मेला है

जिसने सच को जाना है
उसने हंस के खेला है

आगे बढ़ने की चाहत मे
कितना तो रेलम रेला है

इक दिन गल जायेगा ते
तन तो माटी का ढेला है

मुकेष इलाहाबादी .....

दिन चढे़ तू सोता है कयूं ?

दिन चढे़ तू सोता है कयूं ?
सेहत अपनी खोता है क्यू?

मेहनत से काम किया कर,
खुदी को तू रोता है क्यू ?

गर षराब सिगरेट जहर है,
फिर रोज रोज पीता है क्यूं?

सच कहने की ताब रख,
जुल्मो सितम ढोता है क्यूं ?

जरा तनहा बैठ और सोच
तू ही गलत होता है कयूं ?

मुकेष इलाहाबादी ........

आत्मा अमर है

आत्मा अमर है
षरीर नष्वर है

संसार कुरुक्षेत्र,
जीवन समर है

कल क्या होगा?
किसको खबर है

ज्ञान ही अमृत,
अज्ञान जहर है

श्रद्धा से देख तू
कण-2 ईष्वर है

मुकेष इलाहाबादी..

फूल सा खिला कर


फूल सा खिला कर
सब से मिला कर

बड़ों की सेवा कर
आर्षिवाद लिया कर

पूजा पाठ रोजा नमाज
हरदम किया कर

कमाई का थोड़ा हिस्सा
दान भी दिया कर

गरीब दुखी व लाचार
इन सब पेे दया कर

फुरसत मे मुकेष की
गजल तू पढा कर

मुकेष इलाहाबादी ...

Sunday, 18 August 2013

इक आह निकलती है दर्द सा उठता है

इक आह निकलती है दर्द सा उठता है
जब भी कहीं तेरा जिक्र हुआ करता है


रोषनी तो नही तीरगी ही बढ़ जाती है
चरागे इष्क से लौ नही धुऑ उठता है

ऑखों का समन्दर बादल बनता है फिर
जज्बात बरसते हैं औ जिस्म पिघलता है

जब भी तेरे इष्क की ऑज इधर आये है
वजूद मेरा होकर क़तरा कतरा पिघलता है

मुकेष इलाहाबादी ......................

Saturday, 17 August 2013

इतना घना कुहासा है


इतना घना कुहासा है
दर्द औ गम का साया है

कितने पंछी प्यासे हैं ?
ताल पोखरा सूखा है

बेवज़ह दरिया ढूंढ रहे
मीलों तक तो सहरा है

थका मुसाफिर सोच रहा
न तरुवर न छाया है

वक़्त कभी तो बदलेगा?
दिल को यही दिलासा है

मुकेश इलाहाबादी -----

Wednesday, 14 August 2013

अभी तो शाम का झुटपुटा है


अभी तो शाम का झुटपुटा है
फिर क्यूं अंधेरा इतना घना है

तीरगी ही तीरगी बच गयी कि
दिन का उजला छिन गया है

जमी तो पहले ही बिक चुकी
अब आसमॉ भी बट गया है

सैकडों लोग भूख से मर गये
औ अनाज गोदामो मे भरा है

हमारा खून क्यूं खौलता नही
सरहद पे भाई शहीद हुआ है

मुकेश  इलाहाबादी ...............

Tuesday, 13 August 2013

ऑखों मे ये वीरानी अच्छी नही लगती


ऑखों मे ये वीरानी अच्छी नही लगती
तेरे चेहरे पे उदासी अच्छी नही लगती

कि लौट आओ दिले मकॉ सूना सूना है
शामो सहर वीरानी अच्छी नही लगती

सुलझा दूं तेरी ये उलझी - उलझी जुल्फें
ये लटें बिखरी बिखरी अच्छी नही लगती

आओ फिर से जला लें चरागे मुहब्ब्त कि
स्याह नागन सी तीरगी अच्छी नही लगती

मुहब्ब्त भी क्या अजब शै होती है मुकेश
इक पल की भी दूरी अच्छी नही लगती


मुकेश इलाहाबादी .......................


Monday, 12 August 2013

कदमबोसी कर ही लेगा आपका अब ये दिल हमारा



कदमबोसी कर ही लेगा आपका अब ये दिल हमारा
कलजे की ख़ाक बिछा आया हूं शहर के हर कूचे मे

मुकेश  इलाहाबादी ................................

Saturday, 10 August 2013

नफस नफस मे मेरे तेरा ही नाम महकता है





नफस नफस मे मेरे तेरा ही नाम महकता है
लोग समझे हैं हम गुलिस्तॉ से हो के आये हैं

मुकेष इलाहाबादी.......................


Friday, 9 August 2013

कूचा ए इष्क हमने है छोडा जबसे





कूचा ए इष्क हमने है छोडा जबसे
उदास रहने लगी हैं कलियॉ तबसे

मुकेश  इलाहाबादी .................

करके दोस्ती लहरों के साथ

करके दोस्ती लहरों के साथ
छोड दी कस्ती हवाओं के साथ

सजा के बेंदी उसके माथे पे
करदी जुल्फें फजाओं के साथ

चंद क़तरे बचा के पलकों पे
अष्क कर दिये घटाओं के साथ

बोल के बादशाह के खिलाफ
सर रख दिया तलवारों के साथ

अंजाम को नही डरता है मुकेश
आया हूं बुलंद इरादों के साथ


मुकेश  इलाहाबादी ..............