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Sunday, 9 March 2014

ज़िंदगी हर रोज़ सरकती जा रही

ज़िंदगी हर रोज़ सरकती जा रही
मुट्ठी की रेत से फिसलती जा रही

चहचहा के परिंदे नीड़ पे लौट गए
धूप  सायबान से उतरती जा रही

कुछ उम्र कुछ ज़िंदगी की थकन
है चेहरे पे  शिकन बढ़ती जा रही

हर तरफ लड़ाई दंगा आतंकवाद
इंसानियत हर रोज़ मरती जा रही

इश्को मुहब्बत की क्या बात करे
उम्र मुकेश की भी ढलती जा रही

मुकेश इलाहाबादी -------------------

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