ज़िंदगी हर रोज़ सरकती जा रही
मुट्ठी की रेत से फिसलती जा रही
चहचहा के परिंदे नीड़ पे लौट गए
धूप सायबान से उतरती जा रही
कुछ उम्र कुछ ज़िंदगी की थकन
है चेहरे पे शिकन बढ़ती जा रही
हर तरफ लड़ाई दंगा आतंकवाद
इंसानियत हर रोज़ मरती जा रही
इश्को मुहब्बत की क्या बात करे
उम्र मुकेश की भी ढलती जा रही
मुकेश इलाहाबादी -------------------
मुट्ठी की रेत से फिसलती जा रही
चहचहा के परिंदे नीड़ पे लौट गए
धूप सायबान से उतरती जा रही
कुछ उम्र कुछ ज़िंदगी की थकन
है चेहरे पे शिकन बढ़ती जा रही
हर तरफ लड़ाई दंगा आतंकवाद
इंसानियत हर रोज़ मरती जा रही
इश्को मुहब्बत की क्या बात करे
उम्र मुकेश की भी ढलती जा रही
मुकेश इलाहाबादी -------------------
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