वही रात वही ख्वाब पुराने
वही बस्ती वही लोग सयाने
वही सितार और वही तम्बूरा
वही साज़ वही नगमे पुराने
हमारे घर आज भी मुहर्रम है
वो गया चाँद संग ईद मनाने
फिर वही दर्द वही ज़ख्म है
सूखने में जिसे लगे ज़माने
कोई नया क़लाम हो तो छेड़ो
लगे वही पुरानी ग़ज़ल सुनाने
मुकेश इलाहाबादी ---------
वही बस्ती वही लोग सयाने
वही सितार और वही तम्बूरा
वही साज़ वही नगमे पुराने
हमारे घर आज भी मुहर्रम है
वो गया चाँद संग ईद मनाने
फिर वही दर्द वही ज़ख्म है
सूखने में जिसे लगे ज़माने
कोई नया क़लाम हो तो छेड़ो
लगे वही पुरानी ग़ज़ल सुनाने
मुकेश इलाहाबादी ---------
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