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Tuesday, 22 July 2014

वही रात वही ख्वाब पुराने

वही रात वही ख्वाब पुराने
वही बस्ती वही लोग सयाने

वही सितार और वही तम्बूरा
वही  साज़ वही  नगमे पुराने

हमारे घर आज भी मुहर्रम है
वो गया चाँद संग ईद मनाने

फिर वही दर्द  वही ज़ख्म है
सूखने में जिसे लगे ज़माने

कोई नया क़लाम हो तो छेड़ो
लगे वही पुरानी ग़ज़ल सुनाने

मुकेश इलाहाबादी ---------

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