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Saturday, 15 November 2014

फितरत ए गुल लेकर पत्थर पे खिल नहीं सकता

फितरत ए गुल लेकर पत्थर पे खिल नहीं सकता
मै दरिया की रवानी हूं आग से मिल नहीं सकता

तुम मुझको पत्तियों पे गिरी ओस की बूंद समझो
धूप ने ग़र सोख लिया, दोबारा मिल नही सकता

आखिरी मुसाफिर के जाने तक यहीं गडा रहूंगा
मै मील का पत्थर हूं, यहां से हिल नही सकता

ये जरुरी तो नही हरबार मतलब से मिला जाये
क्या बेगैर काम के कोई मिल-जुल नही सकता

तुम्हारी इस खूं आलूदा खंजर सी जु़बां से मुकेश
अपने ज़ख्मी दिल को हरगिज सिल नही सकता

मुकेश इलाहाबादी ................................................

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