Pages

Monday, 22 December 2014

तुम्हारी मज़बूरियां समझता हूँ

तुम्हारी मज़बूरियां समझता हूँ
इसीलिये तो मै भी चुप रहता हूँ

तेरे चेहरे पे इक तबस्सुम देखूं
सिर्फ इसीलिये गज़लें कहता हूँ

मेरे बाहर भीतर इक जंगल है
 

मै भावों के जंगल में रहता हूँ
तनहाई,रुसवाई तेज़ाबी बारिस
 
देखो आंधी तूफाँ में मै रहता हूँ

ज़मी औ खुला आसमाँ मेरा घर
देखो मै भी क्या क्या सहता हूँ
 
मुकेश इलाहाबादी -------------

No comments:

Post a Comment