एक बोर आदमी का रोजनामचा

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Sunday, 7 December 2014

यादों के जंगल में फिरती है

यादों के जंगल में फिरती है
तन्हाइयों मे सिर पटकती है

उसकी यादों में मेरे घर की
दीवारें आज भी सिसकती हैं

बिछडे हुए अरसा हुआ,मगर
निगाहें उसी को खोजती हैं

उसे चाह के भी कैसे भूलूं ?
धडकने उसका नाम लेती हैं

एक बार वह गलेे लगी थी
रुह मेरी अब भी महकती है

मुकेश इलाहाबादी.............


एक बोर आदमी का रोजनामचा at 18:53
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