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Sunday, 29 March 2015

वक़्त भी ठहर जाता है, तब !


 वक़्त भी ठहर जाता है, तब !
दो दिल मिला करते हैं ,जब !
जाम ऐ ग़म खुद पीता रहा,,
हमने किसी को बताया,कब ?
तूफाँ, आंधी और स्याह रात
शायद के सहर न होगी अब ?
तिश्नगी और भी बढ़ जाती है
जब - जब याद आये तेरे लब
चाँद रूठा,हवा रूठी,फ़ज़ा रूठी
यहां तक की रूठ गया है रब
मुकेश इलाहाबादी ------------

Thursday, 26 March 2015

नदी होते तो अपना रुख मोड़ भी लेते

नदी होते तो अपना रुख मोड़ भी लेते
समंदर हो के भला बताओ कहाँ जाएं ?
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
(पंकज परिमल - की कविता से प्रेरित )

सजा लेती हो लाल बिंदी

तुम,
सजा लेती हो
लाल बिंदी, माथे पे
और,
दहक उठता है
सूरज

जब, 
लगा लेती  हूँ
काजल,
घिर आते हैं मेघ

बेलती हो तुम
रोटी, गोल गोल
तब ,
उग आता है पूरा चाँद
घर मे
 
मुकेश इलाहाबादी ------

Wednesday, 25 March 2015

तुम्हारे मौन से उपजे


तुम्हारे
मौन से उपजे
उत्तप्त उच्छवास से
पिघल जाता हूँ मै
रिस रिस कर
 
और,बहती है एक नदी
 

दूर तक ,,,,
 

सूख जाने के लिए
अभिशप्त 


अपने ही रेगिस्तान में

मुकेश इलाहाबादी -------------

Tuesday, 24 March 2015

नाल, ठोंक दी गयी है पैरों में

नाल,
ठोंक दी गयी है
पैरों में
कस दी गयी है जीन
पीठ पर
और नाक मे
डाल दी गयी है
नकेल
मारा जा रहा है
चाबुक,
सटाक - सटाक
और,
हम दौड़ रहे हैं
विकास की सड़क पे
सरपट - सरपट

मुकेश इलाहाबादी ------

Monday, 23 March 2015

पृथ्वी मुझसे मांग ले


 पृथ्वी
मुझसे मांग ले
अपने सारे तत्व
अस्थि, मांस - मज्जा

जल,
वापस ले ले
रक्त और कफ़

अग्नि, वापस ले ले 
अपना तेज

वायु,
खींच ले अपनी श्वांस

आकाश ले ले अवकाश

तब भी मुझमे जो शेष रहेगा
उसमे भी तुम शामिल रहोगी

आत्म-खण्ड की तरह
शिव-शक्ति की तरह

ओ मेरे प्रिये ,,,,,,

मुकेश इलाहाबादी ------

Sunday, 22 March 2015

चहकते हुए आते हो

चहकते हुए आते हो
महकते हुए जाते हो
दिल सारंगी हो जाए
जब जब मुस्काते हो
इन मस्त अदाओं से
कितना  तड़पाते  हो
वस्ल में सावन, और
विरह  में  जलाते हो
परी सी लागे हो तुम
जब आखें झपकाते हो

मुकेश इलाहाबादी ---

खाई - खंदक और पहाड आये

खाई - खंदक और पहाड आये
तमाम मुस्किलें मेरी राह आये

सारा सफर तन्हा काट डाला
तुम मुझे रह.रह के याद आये

नतो हौसला हारे और न हम
दिन चाहे जितने खराब आये

हमने तो तुम्हे कईबार बुलाया
न तुम आये नही जवाब आये

तुम्हे क्या मालूम मुकेश बाबू
जीस्त मे कितने सैलाब आये

मुकेश इलाहाबादी .....................

Friday, 20 March 2015

ताकि, भूल जाऊं तुमको

ताकि,
भूल जाऊं तुमको
तुम्हारे जाने के बाद
गाड़ आया था
ज़मीन में
तुम्हारी यादें
तुम्हारे खत ,,,,,
पर,,,
मुझे क्या पता था,
ये ज़मीन, हवा और पानी भी
तुम्हारा साथ देगी
और एक दिन
तुम उग आओगी
फूल का पौधा बन के
और महका करोगी
अहर्निश
मेरे सहन में
मेरे वज़ूद में
हरश्रृंगार की तरह

मुकेश इलाहाबादी ----- 


Thursday, 19 March 2015

ऊसर में उग आयी है दूब,

ऊसर में
उग आयी है
दूब,

तुम,
नेह बन के क्यूँ बरसती हो ?

मुकेश इलाहाबादी -----------
 

किसी की जुस्तजू में अब तक तनहा फिर रहा आफताब

किसी की जुस्तजू में अब तक तनहा फिर रहा आफताब
वो तुम ही हो वो उफ़ुक़ जहां डूबना चाहता है आफताब !!
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------

यदि, प्रेम भी धतूरे की तरह या कि, बेर की तरह झाडियों मे उगा करता

यदि,
प्रेम भी धतूरे की तरह
या कि,
बेर की तरह झाडियों मे उगा करता
तो मै, झउआ भर तोड लाता
और डाल देता तुमहारी झोली मे

या फिर
तुम ही किसी दिन घूमने के बहाने निकलती
और अपने आंचल मे भर लाती ढेर सारा प्रेम
और उलीच देती मेरे सामने

तब हम दोनो खाते प्रेम का मीठा फल
और बच जाते आपस मे आये इस कसैले पन से

मुकेश इलाहाबादी ..................................

Wednesday, 18 March 2015

गौरैया खुश थी चोंच मे सतरंगी सपने लिये

गौरैया
खुश थी
चोंच मे सतरंगी सपने लिये
आसमान मे उड रही थी
उधर गिद्ध भी खुश था
गौरैया को देखकर
उसने अपनी पैनी नजरे गडा
मासूम गौरैया पे
और दबोचना चाहा अपने खूनी पंजे मे
गौरैयाए, घबरा के भागी
पर कितना भाग पाती ??
आखिर गिद्ध के पंजे मे आ ही गयी

गौरैया फडफडा रही थी
रो रही थी

गिद्ध खुश था अपना शिकार पा के

कुछ देर बाद
गौरैया अपने नुचे और टूटे पंखों के साथ
लहूलुहान जमीं पे पडी थी
उसके सतरंगी सपने बिखरे पड़े थे

अभी भी
उपर,
नीले नही लाल आसमान मे
कुछ और गौरैया उड रही हैं
चोंच मे अपने सतरंगी सपने दबाये
जबकि कुछ और गिद्ध बेखौफ उड रहे हैं
अपना शिकार पाने के लिये

मुकेश इलाहाबादी ---------------

Tuesday, 17 March 2015

आइना मुझसे मेरा हाल पूछता है

आइना मुझसे मेरा हाल पूछता है
कयूं हूं ग़मजदा सवाल पूछता है
मिजाजपुर्शी के लिये आया नही,
पर हाल मेरा बहरहाल पूछता है
मुकेश इलाहाबादी ............


Monday, 16 March 2015

पहले तो डाल से टूट कर खुश हुआ पत्ता

पहले तो डाल से टूट कर खुश हुआ पत्ता
हवा में कुछ दूर उड़ा फिर गिर पड़ा पत्ता
रोता है अपनी बदनसीबी पे जार -जार
जड़ से अपनी उखड कर सूख गया पत्ता
मुकेश इलाहाबादी -----------------------

थपेड़े ही थपेड़े हैं, रेत् के घरौंदे हैं

थपेड़े ही थपेड़े हैं, रेत् के घरौंदे हैं
जिस्म भीड़ में, मन से अकेले है
मुकेश है किसका दामन उजला ?
चाँद के जिस्म पे भी स्याह घेरे हैं
मुकेश इलाहाबादी -------

तेरे - मेरे हालात पे तब्सरा करूँ

तेरे - मेरे हालात पे तब्सरा करूँ
क्या करूँ एक और रतजगा करूँ
 
दिल जुल्म सहने को राज़ी नही
और किससे किससे झगड़ा करूँ
 
हालत ऐ ज़िंदगी कैसे बदलेंगे ?
तू  ही बता किससे मश्वरा करूँ
 
मौसम ने पत्थर भी तोड़ डाले
सर भी जा कर कहाँ फोड़ा करूँ 
 
हर शख्स यहाँ ग़मज़दा मिला ?
मुकेश किससे  दुखड़ा रोया करूँ
 
मुकेश इलाहाबादी --------------

Sunday, 15 March 2015

एक और शाम सर्द गुज़री

एक और शाम सर्द गुज़री
ख्वाबों के इर्द गिर्द गुज़री
तेरी याद फिर फिर आयी
और फिर रात ज़र्द गुज़री
मुकेश झुलसा गयी मुझे
दिन की नदी सुर्ख गुज़री
मुकेश इलाहाबादी -----

Thursday, 12 March 2015

बेवज़ह तुम ख़फ़ा हो गए

बेवज़ह तुम ख़फ़ा हो गए
रास्ते अपने जुदा हो गए

बिन खिड़की बिन दरवाज़ा 
तुम इक बंद किला हो गए

आरज़ू थे तुम मेरी  कभी
फिर क्यूँ अब सजा हो गए

तस्वीर सही नहीं  दिखती
चटका हुआ आइना हो गए

है ऐसा क्या हुआ मुकेश ?
तुम इतने बदग़ुमा हो गए


मुकेश इलाहाबादी ---------

Wednesday, 11 March 2015

वह मुझे याद करता नही

वह मुझे याद करता नही
और मै उसे भूलता नही

वो गुमशुदा है नहीं मगर
ढूंढता हूँ तो मिलता नही

लब तो थरथराते हैं मग़र
ज़ुबाँ से कुछ बोलता नही

साथ चलने को है आतुर
क़दम है कि बढ़ाता नही

सुना तो दूँ अपनी कहानी
मुकेश है कि सुनता नही

मुकेश इलाहाबादी ---------

सिवा रुसवाइयों और बेवफाई के सिवा कुछ भी तो न था,

सिवा रुसवाइयों और बेवफाई के सिवा कुछ भी तो न था,
लिहाज़ा किताबे ईश्क लिख के हमने जला डाली है मुकेश
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------

Wednesday, 4 March 2015

तू हमको ही नहीं सबको हसीन लगती है

तू  हमको ही नहीं सबको हसीन लगती है
शहजादियाँ भी तेरे आगे कनीज़ लगती हैं

तू हँसे तो लगता है जैसे सारा ज़माना हँसे
ग़र तू चुप है तो दुनिया ग़मगीन लगती है

तेरी हंसी है चांदनी और,ज़ुल्फ़ें हैं बादल,कि
तू  समंदर के पानी सी नमकीन लगती है

तेरी तारीफ़ में अब इससे ज़्यादा क्या कहूँ
तू इन ज़हीनो में भी सबसे ज़हीन लगती है

इन आँखों की झील में झपकती हुई पलकें
मुकेश पानी में मचलती हुई मीन लगती है

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------


Monday, 2 March 2015

चुप्पी अपनी तोड़ो तो

चुप्पी अपनी तोड़ो तो
हमसे कुछ बोलो तो
 
चंदा सा मुख देखन दे 
घूंघट थोड़ा खोलो तो
 
बाँहों का झूला डाला
संग -२ मेरे डोलो तो
 
देखो फागुन आया है
रंग प्रेम के घोलो तो
 
होली  के  हुड़दंग  में
हल्ला गुल्ला बोलो तो

मुकेश इलाहाबादी ---

ग़र, चाहते हो कि ज़माने से जुदा हो कोई दोस्त,

ग़र, चाहते हो कि ज़माने से जुदा हो कोई दोस्त,
बेशक दे देना आवाज़,आजकल हम भी अकेले हैं
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

खुद को सबसे बडा मानता है

खुद को सबसे बडा मानता है
कद अपना बौनो से नापता है
है नजूमी खुद फुटपाथ पे बैठा
पर दूसरों का भाग्य बाचता है
उपर वाला सबसे बडा मदारी
और इसॉ बंदर सा नाचता है

फ़क्त सत्य अहिसां और प्रेम
उपर वाले के घर का रास्ता है

चॉद को क्या छू लिया मुकेश
इन्सा खुद को खुदा जानता है

मुकेश इलाहाबादी ...............

दश्त का सफर है

दश्त का सफर है
नागों  का  डर  है

चराग़  जला  लो
रात का सफर है

सरायं के नाम पे
ये दिले खंडहर है 

वीरानियाँ अब तो
शाम- ओ- सहर है

मुकेश है साथ तो
तुम्हे क्या डर है ?

मुकेश इलाहाबादी --