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Tuesday, 9 June 2015

छाँव ही छाँव ढूंढते रहे

छाँव ही छाँव ढूंढते रहे
धूप को ही उलीचते रहे

आब -ऐ -ईश्क़ न मिला
तिश्नगी अपनी पीते रहे

शब्, ग़मे अब्र खूब बरसे
जिस्मो जाँ से भीगते रहे


मुकेश दीवारे हया न टूटी
जबकि रोज़ ही मिलते रहे

मुकेश इलाहाबादी -----

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