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Wednesday, 31 August 2016

तुमसे मिलना बतियाना अच्छा लगता है

तुमसे मिलना बतियाना अच्छा लगता है
ये आदत न बन जाये ये भी डर लगता है 
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

जैसे किसी के ज़ेहन से यह बात उतर जाये

जैसे
ज़ेहन से
यह बात उतर जाये
कि उसने किताब के
पन्नो के बीच
गुलाब की एक कली
आहिस्ते से रखी थी कभी 
या कि 
किसी बहुत आत्मीय का
प्यारा सा ख़त अलमारी में
रखा था
बस ऐसे ही
तुम मुझे भूली नहीं हो
तुम्हारे ज़ेहन से उतर भर गया हूँ

किसी दिन
अचानक किसी किताब को उलटते हुए
मुरझाए फूल सा मिलूंगा
या फिर ज़र्द पड़ गए खत सा
अलमारी में दबा मिलूँगा
तब तुम
फिर फिर मुझे याद करोगी
प्यार करोगी पूरी शिद्दत से

क्यूँ की तुम मुझे भूली नहीं हो
बस तुम्हारे ज़ेहन से उतर भर गया हूँ

(मेरी प्यारी सुमी)

मुकेश इलाहाबादी ---- 

बस
ऐसे ही तुम मुझे भूली नहीं हो



और यह बात
ज़ेहन से उतर जाए  भूल जाए
बहुत बहुत दिनों के लिए
या कि
किसी आत्मीय का
प्यारा सा ख़त
अलमारी में या किसी बक्से में
अख़बार के नीचे छुपा के
भूल जाए बहुत बहुत दिनों के लिए

बस ऐसे ही मैं
तुम्हारे ज़ेहन से उतर
भूल जाए
बहुत बहुत दिनों के लिए

तुझे देखता हूँ तो हैरत सी होती है

तुझे देखता हूँ तो हैरत सी होती है
इतनी खूबसूरत औरत भी होती है

तेरा दीदारे हुस्न जब भी जो करे है
उसे ही तुमसे मोहब्बत सी होती है

इश्क मे भले पहले हो ले रूसुवाइयां
बाद मरने के तो शोहरत होती है

संग साथ पा के तेरा खुश रहता हूँ
बिन तेरे ज़िन्दगी बेगैरत सी होती है

मुकेश इलाहाबादी ...............

ज़िन्दगी हमे आजमाने लगी

ज़िन्दगी हमे आजमाने लगी
कश्ती हमारी डगमगाने लगी
देख तेरे खिले महुए सी हंसी
हसरते फिर मुस्कुराने लगी
मुद्दतों से  वीरान  था आँगन
तुम  क्यूँ पायल बजाने लगी
पुरानी  हवेली  टूटी  मुंडेर पेएए
फिर बुलबुल चहचहाने लगी
बेवजह  आग  लगा दी तुमने
गीली  थी लकड़ी धुआने लगी
मुकेश इलाहाबादी ............

अपनी धुन का पक्का है

अपनी धुन का पक्का है
मन का लेकिन सच्चा है

थोडा गुस्सा थोडा प्यार
दिल तो उसका बच्चा है

कभी न उतरे तेरा रंगएए
रंग तेरा इतना पक्का है

तेरी महकी . 2 साँसों से
दिल धडके जैसे पत्ता है

बातें तेरी मीठी मीठी पर
बोसा तेरा खट मिट्ठा है

मुकेश इलाहाबादी .......

रात पूनम की इल्तजा मे अमावश ले के बैठे हैं

रात पूनम की इल्तजा मे अमावश ले के बैठे हैं
भूल बैठा चॉद कि हम इक आस ले के बैठे हैं

कभी तो चस्मा ऐ मुहब्बत उनके दिल मे फूटेगा
सदियों से इसी सहरा मे हम प्यास लेके बैठे हैं

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

रोशनी कम होती जा रही है

रोशनी कम होती जा रही है
परछाइयां बढती जा रही हैं

विष्वास और प्रेम की नदी
हर रोज सूखती जा रही है

यादों ने जोड़ रखा था तुमसे
वह कडी भी टूटती जा रही है

विरह यामिनी सौत बन गयी
प्रेम की लडी टूटती जा रही है

तुम्हारे वियोग मे सखी देह
रात दिन गलती जा रही है

मुकेश इलाहाबादी --------------------

कुँआ

बूँद बूँद पानी को
तरसते
हैंड पम्प को देखकर
हम लौट जाते हैं
खाली बाल्टी लिये
अपने सूखे होठों को
अपनी ही जीभ से तर करते हुए
इस उम्मीद से
किए शायद
अगली बार आने पर
यह सूखा हैंड पम्प
ठन्डे पानी की फुहार
बहा रहा होगा
पर ए
हम कभी नहीं झांकते
गाँव के उस कुंए मे
जिसे वर्षों पहले ढक दिया गया है
कि फिर से कोई हादसा न हो
उस हादसे के बाद
जबए
इसी कुँए मे गांव की
रधिया मर गयी थी
अपने होने वाले बच्चे के साथ
लोक लाज के डर से
सुना हैए इस हादसे के पहले भी
किसी को मार के इस सूनसान कुंए मे
फेंक दिया गया था
बहरहाल ए यह वही कुँआ है
जिसने सदियों सदियों
बुझाई है प्यास पूरे गाँव की
हमारे बाप दादाओं की
और उनके भी बाप दादाओं की भी
न जाने कितने पुरखों की
आज वही अभिशप्त कुँआ
लोहे की जाली से
ढँक दिया गया है
जो की अब महज़ निशानी
बन के रह गया है गाँव की
कभी यही कुंआ
गाँव का कम्युनिटी सेंटर
हुआ करता था
जिसकी जगत पे
गाँव भर कि औरतें और बहुएं
आती थी भर. भर घड़े मे
पानी के साथ साथ गाँव भर की
ख़बरों से खुद को भर ले जाती थीं
उनकी तमाम हंसी ठिठोली भी तो
यही हुआ करती थी
इसी कुँएं की जगत पे ही तो
वो कुछ देर
खुला आकाशए ठंडी हवा और ठंड़ा पानी
पा पाती थीं
इसी कुंए की जगत पर
गर्मी की दोपहर में
गाँव के किशोर और किशोर हो चुके युवक
बैठतेए बतियाते एखिलखिलाते
और चिलचिलाती धूप मे
थका मुसाफिर भी तो
इसी कुंए पे आकर
हाथ पैर धोकर
इसके पानी से
सत्तू सान के खा करए तृप्त होता
यही वह कुआं था
जो गांव को
एक सूत्र मे पिरोये रखता था
क्योंकिए यही गाँव का एकमात्र
कुँआ था
अबए हैंड पम्प आ जाने से
हर आदमी अपना अपना
कुॅंआ अपने आँगन मे रखता है
खैरए
अगर एक बार फिर
हम
इस कुँए मे झाँकें
गहराई मे उतर कर
वक़्त के कूड़े से अटे .पटे
कुंए को साफ़ करें तो
शायदए एक बार फ़िर
हरहरा कर हमे दे जाए
ठंडा और शीतल पानी
पूरे गाँव को
सदियों सदियों तक के लिये
और हमेंए फिलहाल की तरह
अपने सूखे होठों को
अपनी ही जीभ से न तर करना पड़े

मुकेश इलाहाबादी ....................

Tuesday, 30 August 2016

तू इतनी शिद्दत से न मिला कर हमसे

तू इतनी शिद्दत से न मिला कर हमसे
बड़ी तक़लीफ़ होगी बिछड़ कर तुझसे
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Saturday, 27 August 2016

फूल कैसे खिलते हैं ?

फूल
कैसे खिलते हैं ?
हवा कैसे,
ठुनकती हुई चलती है ?
जिस्म कैसे सांस लेता है ?

ये सब कुछ मैंने जाना
तुमसे मिलने के बाद

ज़िदंगी क्या होती है
मैंने जाना - तुमसे मिलने के बाद

सुमी,- तुम्ही से

मुकेश इलाहाबादी -------------

ज़िदंगी क्या होती है

फूल
कैसे खिलते हैं ?
हवा कैसे,
ठुनकती हुई चलती है ?
जिस्म कैसे सांस लेता है ?

ये सब कुछ मैंने जाना
तुमसे मिलने के बाद

ज़िदंगी क्या होती है
मैंने जाना - तुमसे मिलने के बाद

सुमी,- तुम्ही से

मुकेश इलाहाबादी -------------

Friday, 26 August 2016

परती धरती और पहली बारिस

परती धरती और पहली बारिस
बारिस की हल्की हल्की बूंदो के गिरते ही लगा बरसों की परती पडी धरती थरथरा उठी हो। माटी की पोर पोर से भीनी भीनी सुगंध चारों ओर अद्रष्य रुप से व्याप्त हो गयी थी। लॉन से आ रही हरसिंगार, मोगरा, गुड़हल और चमेली की खुषबू को संध्या अपने नथूनों में ही नही महसूस कर रही थी बल्कि अपनी संदीली काया के रोम रोम में सिहरन सा महसूस कर रही थी। बेहद तपन के बाद बारिष के मौसम की तरह वह अपने अंदर आये इस बदलाव से वह अंजान नही थी। पर उम्र के इस उत्तरायण में इस क़दर भावुक मन होना वह स्वीकार नही कर पा रही थी और अस्विकार भी।
फिलहाल, संध्या अपने मन के सारे विक्षोभों को परे धकेल, अपने आप को पूरी तरह मन के हवाले कर देना चाह रही थी। और फूलों की तरह किसी डाली से लगी रह कर डोलना व तितली की तरह उडना चाह रही थी। इस हल्की हल्की बारिस की बूंदों की सिहरन, मन के अंतरतम तल तक महसूस कर लेना चाहती थी। दिल तक। इस अंजानी खुषी व षीतल छुअन ने पेड़ पौधों लताओं व गुल्मों को हौले हौले तो कभी जोर से हिलते पत्तों के संगीत में डूब जाना ही चाहती थी। बाहर गुलमोहर की पत्तियों से छन छन करती बूदें स्वर लहरियों में खो जाना चाहती थी। ऐसे में संध्या सोच रही थी कि जीवन की इस संध्या में कोैन सा बसंत हरहरा रहा है। और हरहरा रहा है तो उसमे डूबना कितना उचित है पर वह इन सब बातो से बेपरवाह हो जाना चाहती है। बस इस वक्त तो बादल सा बरसने का ही मन कर रहा था। वह अपने को रोक नही पायी। बूंद बूंद बरसने से।
डेक मे एक सूफियाना गाना लगा। न जाने कब ड्रेसिंगटेबल तक पहुंच दोनो हाथों को पीछे ले जा बालों का जूडा बानती हुयी अपने आप को देखने लगी। गौर से। मांग के अगल बगल व कनपटी के दो चार बालों को छोड दिया जाये तो अभी भी सारे के सारे काले व घने बाल किसी भी औरत के लिये ईष्या का कारण बन जाते है। उसके चंद चांदी से बाल भी इस उम्र को और पका व निखरा ही बना रहे थे। चेहरे पर अभी भी नमक व गमक मोती से चमक रहे थे।
स्ंाध्या को लग रहा था आज जिंदगी मे पहली बार अपने आप को आइने में देखा है। कभी देखने का मौका ही न आया जिस उमर में लडकियां अपने खिलाव व उभारों को देख देख खुष होती हैं उस उमर मे ही तो रीतेष ने डोरे डाल दिये। पहली बार जव उसने प्यार का इजहार किया तब तक तो वह उसका मतलब भी ठीक से न समझ पाने की उम्र में थी। तब वह कितना घबरा गयी थी। हडबडाहट में उसने यह बात जा कर मर्ॉ से कह आयी थी। कि रीतेष मुझसे षादी करने को कह रहा है। उस दिन तो लोगेां ने रीतेष की बातों को मजाक में लिया पर एक दिन जब यह खबर मिली कि रीतेष ने नदी में छलांग लगा दी है कि अगर संध्या से षादी नही हुयी तो वह मर जायेगा। तब वह अंदर ही अंदर दहल गयी थी। उसे तो समझ ही न आ रहा था उसे क्या करना चाहिये। हालाकि उसकी साथ की सहेलियां उससे चुहल करती कि तेरे को कोई तो इतना चाहता है जो जान भी दे सकता है। यह सब सुन सुन कर उसकी चिडिया जैसी जान सूख जाती। वह समझ ही न पाती कि इस पर वह किस तरह रिएक्ट करे।
जब इस प्रकार की कई हरकतें रीतेष करने लगे अपनी पढाई लिखाई छोड गुमषुम से रहने लगे तो उसके घरवालों ने अपने एकलौते बेटे की खातिर उसके यहां रिष्ता लेकर आये जिसे पहले तो उसकी मॉ ने मना कर दिया। जिसका सबसे बडा कारण रीतेष का उनकी जात का न होना तो था इसके अलावा संध्या की उमर भी बहुत कम होना था। पहले तो उन्होने कहा कि अभी नही पहले बच्ची को पढ लिख तो लेने दीजिये पर बहुत समझाने पर चार साल बाद ही रीतेष के साथ हाथ पीले कर दिये गये। मॉ ने यह सोच कर भी हामी भर दी थी कि चलो अगर घर बैठे बैठाये अच्छे खाषे घर का रिष्ता आ रहा है। लडका इकलौता है अच्छी खाषी जायजाद है। लडका भी देखने सुनने में ठीक ठाक है। तो ऐसे मे न करके बाद में वह अकेले कहां कहां वर खोजती फिरेगी। हां कर दिया था।
षादी के वक्त उम्र ही क्या थी। उन्नीस साल। आज कल तो इस उम्र में लडकियां जींस टाप्स पहन कालेज में मटकती रहती है। अपने ब्वायफ्रेड के साथ धौल धप्पा करती हंसती खिलखिलाती। बिंदास चिडिया जैसी। हालाकि उस दौर में इतना खुलापन नही था। फिर भी लडकियां सलवार सूट में कालेज आना जाना षुरु कर चुकी थीं। पुरुष सहपाठियों से हल्के फुल्के मेलजोल को थोडे बहुत विरोध से सहमति मिल ही जाती थी। पर उसे तो इन सब बातों को मौका ही कब मिला।
मांग मे सिन्दूर भर कर कालेज जाना और कालेज मे भी रीतेष का साथ होना। चौबिसों घ्ंाटों के साथ मे रीतेष भी खुष रहता। उसे लगता जैसे बच्चे को उसके पसंद का खिलौना मिल गया हो। और वह उससे दिनरात खेल रहा हो। वह उसके इस प्रेम को देखती और खुष होती। धीरे धीरे उसे लगा यही तो प्रेम है। वह रीतेष के साथ हंसती खिलखिलाती। पर कहीं न कहीं मन मे उसे रीतापन सा व्याप्त रहता लेकिन वह इस बात को मन से झटक देती उसे लगता हो सकता है वह ही ठीक से न समझ पाती हो अपने आपको।
संध्या विचारों में और गहरे उतर पाती कि बीबी की आवज से वह चौक गयी। घडी की तरफ देखा षाम के पांच बज चुके थे। बीबी ‘मॉ’ की चाय का वक्त हो चुका था। उसी के लिये आवाज दे रही थी।
संध्या ने जल्दी जल्दी एक कप चाय बीबी के लिये दूध वाली बना कर दे आयी और फिर अपने लिये एक कप बिन दूध की नीबू वाली काली चाय बना के फिर से अपनी खिडकी के पास आ कर बैठ गयी। खिडकी के षेड से पानी की बूंदे थम थम के गिर रही थी।
मन ही मन वह भी तो बूंद बूंद रिस रही रही है अपनी यादों में अपने सूने पन में अपनी उन इच्क्षाओं को लेकर जिसे वह कभी समझ ही नही पायी कि वे क्या इच्क्षाऐ हैं।
हो सकता है इसका मौका ही न आया हो। उसी तरह जिस तरह उसने कंुवारे पन के प्रेम को जाना ही नही।
खैर संध्या अपने माज़ी मे डूबती उसके पहले ही मोबाइल मे एस एम एस फलैष की चमक देखते ही उसके चेहरे पे भी चमक आ गयी। जिसे वह चाह के भी नही रोक पाती। हालाकि उसे खूद पे भी आर्ष्चय होता कि ऐसा क्यूं।
मगर यह सब सोचना भी वह बाद के लिये मुल्तवी करके मोबाइल के एस एम एस को पढने लगी।
‘इक सपना ..... किसी अपने से मिलना
इक इत्तिफाक ... आपका हमारी जिंदगी में आना
इक हकीकत ... आपसे दोस्ती होना
इक तमन्ना ..... इस दोस्ती को ज़िदगी भर निभाना
गुड़ इवनिंग .....
संध्या के चेहरे पे मुस्कुराहट फैल गयी।
औरत एक नदी है।
स्ंाध्या ने कुछ देर तक तो खिड़की के बाहर उडते परिंदो को देखा, उनकी चहचह सुना, तितलियों को फूलों पे मंड़राते देखा, बारजे से टपकती बारिस की बूंदो को देखा। फिर होैले से बाहर के सारे द्रष्य छोड गुनगुनाती हुयी ड्रेसिंग टेबल के सामने खडी हो गयी।
अपने आप को सी एफ एल की दूधिया चांदनी में देखने लगी। अपने ही चेहरे को देख कर षरमा गयी। उसे लग ही नही रहा था यह वही संध्या है।
उसे लगता वह आजकल रोज रोज बदलती जा रही है। चेहरे पे रोज रोज निखार आ रहा है। इस उम्र में अपने अंदर के परिवर्तन को देख देख खुद न समझ पा रही थी। यह भावनाएं मन के किस कोने में दबी ढ़की थी जो अब उभर रही हेै।
जैसे जलने के पहले ही बुझ गयी थी उपले की आग थोडा कुरेदते ही फिर से लहलहाने के लियो व्याकुल हो रही हो।
लेकिन इस आकुलता व्याकुलता में भी उतावला पन कहीं न था अगर हो भी तो वह किसी मैदानी इलाके में मंथर गति से बहती नदी की तरह अंदर ही अंदर से हरहरा रही थी।
क्या कोई मैदानी इलाके की मंथर गति से बहती नदी को देख कर अंदाजा लगा सकता हेै कि यह पहाडी नदी अपने उदगम पे कितनी षुभ्र, और उज्जवल थी जिसे इस मैदान पे आने आने तक न जाने कितने पत्थर दिलों को चीरना पडा होगा न जाने कितनी चटटानों पर षिर पटकना पडा होगा, न जाने कितने अवरोधों को पार करना पडा होगा न जाने कितने पेड पौधेां व झुरमुटों को अपने अंदर ही अंदर बह जाने दिया होगा। न जाने कितनी बार अपने आप को मैली होने से बचाना पडा होगा। तब जा कर मैदान में आकर मंथर गति से बह पा रही है। पर अभी भी तो लोग सतह ही देख रहे हैं क्या किसी ने देखा कि उसके अंदर भी लहरे अभी भी मचल रही हैं अभी भी उसके अंदर गति करने का माददा है अभी भी वह नदी ही है जो हरहरा सकती है अपनी पूरी स्निग्धता व भव्यता के साथ। पर नही कोई भी तो नही है जो उसके अंदर की हिलोरों को महसूस करता जो भी मिलता वह बस नहा के अपने आपको तरोताजा करने की नियत से ही पांव पखारने की कोषिष की। खैर अब तो वह किसी की भी परवाह नही करती। परवाह करने का यह मतलब नही, वह किसी को दुख देना चाहती है। हालाकि वह किसी को दुखी कर भी नही सकती। यह उसकी फितरत में ही नही है।
फिलहाल जलजले के बाद उसने अपने जीवन व बच्चों के बारे मे जो जो भी सोचा वह हो जाने के बाद, सब कुछ सामान्य हो जाने के बाद जब कि महज जलजले की स्म्रतियां ही षेष है। वह अपने जीवन को अपने तरीके से जी रही है। होैले हौले बहते हुए। अपने अंदर की लहरों को देखते हुए।
फिलहाल जबकि बच्चे अच्छे से विदेषों मे जाकर षेटेल हो चुके हैं अपने अपने परिवार व बिजनेष में खुष रहने लगे।
तब जाकर उसने अपने आपको अपने तक सीमित कर लिया। अब तो उसने अपनी सारी दुनिया अपने कमरे मे ही सजा ली है।
मॉ को समय समय से नाष्ता खाना व दवाई दे कर उनका टी वी चला देती और फिर वह अपने कमरे मे अपने आपको कैद कर लेती। फिर बहती मंथर गति से हौले हौले। बस तब वह बस बहती बहती ओर बह रही होती है। अपने अकेलेपन में अपने माज़ी में अपनी कल्पनाओं में अपनी कविताओं और पंेटिग्स में। कभी कभी मन बहलाव के लिये नेट पे बैठ बच्चेंा से चैट कर लेती और हालचाल भी ले लेती। और फिर कभी खिडकी पे बैठ हरसिंगार की पत्तियों के पीछे से झांकती लम्बी खाली सपाट सडक को देखती। जिसमें इक्का दुक्का रहगुजर ही कभी कभी दिखाई पडते।
उस दिन वह जब पेंटिग करते करते उब गयी तब नेट पर किसी साहित्यिक अंर्तजाल पे जाकर किसी नयी रचना को पढ़ना चाह रही थी कि एक कहानी का षीर्षक देख नजरे रुक गयी। ‘पहाड़ और नदी’ जिसमें नायक नायिका से कहता है।
‘सरिता ! तुम अब एक ऐसी नदी हो जो मैली हो चुकी हैं जिसमें डुबकी लगाने का मतलब यह हेै कि अपने आप को मैला करना’
तब नायिका बिफर कर कहती है।
‘हां हां अब तो मै मैली हो ही गयी हूं पर इसे मैली करने में भी तो तुम्हारा ही हाथ रहा है। हां यह ठीक है कि तुम्हारे पहाड जेैसे व्यक्तित्व के आगे मेरी जैसी पहाडी नदी का क्या अस्तित्व। तुम्हारे अंदर तो न जाने कितनी नदियां बहती रहती हैं। पर यह भी जान लो अगर तुम्हारे पत्थर से दिल में मै न बहती तो तुम पत्थर ही रहते जिसमे कोई आर्कषण न होता। वह तो हमारी जैसी नदी के बहने से ही तुम इतने जीवंत हो तुम्हारे सीने पे जो इतनी हरियाली है वह हमारी जैसी नदी की ही वजह से है। वर्ना तुम तो पत्थर हो जिसमें कोई आर्कषण नही होता अगर हरियाली न होती तो कोई तुम्हे पूछता नही। और फिर अगर मैली हुयी भी हूं तो उसका कारण तुम्ही हो। क्या तुमको नही मालूम कि जब षुरु में मै कितनी पावन व पवित्र थी यह मै नही तुम ही कहा करते थे। पर अगर इसे तुमने अपने ही सीने में बहने दिया होता अपने ही अंदर लहराया दुलराया होता तो मुझे क्या जरुरत थी तुम्हारी बाहों से निकल कहीं और बहने की। तब तुम्ही तो पत्थर बने रहते थे जिसे तुम अपनी तटस्थता और और ज्ञान मान तने रहते थे। क्या तुमने कभी मेरी कोमल भावनाओं को समझ मेरे संग कलकल किया कभी भी मेरे अंदर जंगल से बह आये झाडियों और गुल्मो को बहने से क्यों नही रोका। तब क्यों बह जाने दिया और तब तुमने क्यों नही उन्हे रोका जो मेरी खूबसूरती से प्रभावित हो अपने गंदे पांव पखारतने की कोषिष करते तब तो तुम मौन बने थे। आज तुम्ही मुझे दोष दे रहे हो। ठीक है तुम पुरुष हो। कठोरता व स्थिरता तुम्हारा प्रक्रितिगत स्वभाव है कोमलता और बहना मेरा। पर यह जान लो चाहे मै जितनी मैली हो जाउं पर एक न एक दिन सागर में विलीन हो कर पूर्णत्व को पा ही लंूगी पर तुम तब भी इसी तरह इसी जगह खडे रहोगे धूप व ताप सहते हुये किसी और नदी को
दोषी ठहराते हुये।’
यह कहानी पढ कर बहुत देर तक वह रोती रही। और फिर रहा न गया तो उस कहानी के लेखक को मेल कर ही दिया।
प्रभात जी,
अभी अभी, नेट पर आपकी कहानी ‘पहाड़ और नदी’ पढी। खाषी भावुक व मन को छू लेनी वाली कहानी लिखी है। किसी पुरुष के द्वारा स्त्री के पक्ष में लिखी यह कहानी अंर्तमन तक हिला गयी। एक अच्छी रचना के लिये आप बधाई के पात्र है।
लेकिन क्या बात है इसके बाद आप की कोई रचना नही आयी।
यदि हो तो वह कहां व कैसे उपलब्ध हो सकती है।
स्ंाध्या
दूसरे ही दिन एक छोटा सा जवाब मेल बाक्स में नमूदार हुआ।
संध्या जी,
आपको मेरी कहानी अच्छी लगी। जान कर प्रसन्नता हुयी।
रही आपके प्रष्न की कि मेरी दूसरी रचनाएं क्यों नही आयी।
इस संदर्भ में मात्र इतना ही कहना चाहूंगा कि लेखन मेरा व्यवसाय या मिषन नही।
षौक है। लिहाजा जब तक कोई विचार अंदर तक हिलाता या भिगोता नही तब तक मेरी कलम चलती नही। लिखने के लिये लिखना आदत नही।
पर ऐसा नही कि इसके बाद लिखा नही थोडा बहुत जो भी लिखा उसे अपने तक ही सहेजे हूं। वेैसे भी मुझे छपास की कोई बहुत ज्यादा ललक कभी रही नही।
लेखन मेरे लिये एक रेचन की तरह है जिसके बाद मै अपने को हल्का कर लेता हूं। या कह सकती हैं स्रजन मेरा स्वांतह सुखाय कर्म है।
फिलहाल मै आप को अपनी एक और कहानी भेज रहा हूं।
यदि आपको पसंद आती है तो यह मेरा सोैभाग्य होगा।
प्रभात
उसके बाद से रचनाआंे और पत्रों का एक सिलसिला ही निकल पडा।
उसके बाद फोन पे बातों ने नदी के लिये एक नये और अंजानी मंजिल का रास्ता खुलता गया जो उसकी नदी की मंथर गति में होैले हौले गतिषीलता देता जा रहा था।
अचानक उसे खयाल आया एस एम एस का तो उसने जवाब ही नही दिया। पर इस वक्त वह इस मेल का जवाब देने की जगह बात करना ही उचित समझा।
संध्या की नाजुक उंगलियां मोबाइल के मुलायम की पैड़ पर खेलने लगीं।
बाहर अभी भी हरसिंगार की पत्तियों से व खिडकी के षेड़ से बूंदे गिर रही थी। जो नियॉन बल्ब की दूधिया रोषनी में चमक रहे थे।
संध्या की हंसी उसमे जलतरंग सा बज रही थी।

पहाडी बरसाती काली रात आज भी कालिमा से व्याप्त थी पर न जाने क्यूं उसे आज उतनी भयावह न लग रही थी। उस कालेपन में एक कोमलता व गहराई अनुभव कर रही थी। मन हौले होेेैले मस्ती में डूबना चाह रहा था दो चार दिनों में ही आये अपने अंदर के इस परिवर्तन को वह समझ तो रही थी। रोकना भी चाह रही थी पर न जाने मन देह व दिल दोनेा जीवन भर की आदत व तपस्या का संग साथ छोड रहे थे। पर वह उसी भाव में तो बहना चाह रही थी। मन की एक एक लहर को गिनना व जीना चाह रही थी। लिहाजा रात का खाना मॉ को खिला के खुद खा के अपना पसंदीदा टी वी सीरियल भी देखना छोड नेट पे आ बैठी षायद कोई नयी मेल आयी हो। मेल बाक्स ढेर सारी जंक और बेकार मेलों से भरा पडा था जिसे वह एक एक कर डिलिट करती जा रही थी। उसी मे वह मेल भी थी जिसमे उसने अपने बारे में लिखा था।
संध्या जी,
तुमने कभी रेगिस्तान देखा है। रेत ही रेत। रेत के सिवा कुछ भी नही। रेत, समझती हो न। पत्थर, जो कभी चटटान की तरह खडा रहता है सदियों सदियों तक, पर धीरे धीरे आफताब की तपिष और बारिष व तूफान से टूट टूट कर रेजा रेजा होकर बिखर जाता है। तब वही पत्थर रेत का ढेर कहलाता है। और जब पूरा का पूरा पहाड़ रेजा रेजा बिखर जाता है, तो वह रेगिस्तान कहलाता है।
उसी रेगिस्तान को कभी गौर से देखा है। जो दिन में आग सा दहकता और रात में बर्फ सा ठंड़ा होता है। जिसके सीने पर मीलों तक सन्नाटा पसरा रहता है, मौत सा गहरा सन्नाटा। जिसमें साथ देने के लिये पहाड़ों कि तरह चीड़ व चिनार के दरख्त नही होते। खूबसूरत लहलहाते फूल के गुच्छे नही होते। दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाले ठंडे़ पानी के चष्में नही होते। झील व कलकल करती नदियां नही होती।
वहां।जंगल में नाचने वाले मोर और कूकने वाली कोयल भी नही होती। षेर व चीता जैसे चिंघाड़ने वाले जानवर भी नही होते। यहां तक कि मासूस षावक व फुदकती हुयी गिलहरी भी नही होती। और न ही होती है मीलों तक एक के पीछे एक कतार से चलने वाली चींटियां।
ऐसा ही एक रेगिस्तान मेरे अंदर भी फैेला है। जिसमें हरियाली के नाम पर छोटी छोटी अपने आप उग आने वाली कंटीली झाड़ियां है या फिर अक्सर और दूर दूर पर दो दो चार चार की संख्या में खुरदुरे तने वाले ताड़ या कहो खजूर के पेड़ होते है। जिनकी जड़ों में पानी देने के लिये कोई नहर या झरना नही बहता। खाद व पानी देने के लिये कोई इंसान नही होता। फिर भी ये षान से और पूरी अलमस्ती से खड़े रहते है। बिना किसी षिकवा षिकायत के अपने उपर नुकीली पत्त्यिांे का छाता सा लगाये।
जानती हो। एसे बीराने मरुस्थल में ये दरख्त कैसे जिंदा रहते हैं।
तो सुनो
जब कभी कोई बदरिया अपने ऑचल के सारे जल को किसी पहाड़ या तराई पे बरसा के या कहो लुटा के फिर से सागर की ओर जा रही होती है। और उसका रहा सहा जलकण सूरज भी सूख चुका होता है। उसी छूंछे बादलों से ये पेड़ सूरज की रोषनी से ही कुछ जल कण चुरा लेते हैं। और फिर षान से जिंदा ही नही रहते बल्कि अपने अंदर भी मीठा मीठा जीवन रस पैदा करते और संजोते रहते हैं।
यही रस रात भर ऑसू की तरह बहते रहते हैं, चुपके चुपके धीरे धीरे ताकि किसी को एहसास न ही उनकी बीरानी का उनकी तंहाई का। लेकिन जमाने वाले उसे भी हंड़िया में बूंद बूंद भर लेते हैं।।और सुबह पीते हैं जिसे ताड़ी कहते हैं। और जानती हो उस ताड़ी में हल्का हल्का मीठा मीठा सा नषा होता है। जो धूप चढ़ने के साथ साथ और भी ज्यादा बढ़ता जाता है। इसके अलावा ये दरख्त उसी जल कणों से खजूर जैसे मीठे फल भी उगा लेते हैं। ये सीधे पर थोडे़ से तिरछे खड़े होकर किसी थके व तपे मुसाफिर को घनी छांह भले न दे पाते हों पर वे ताड़ी जैसा नषीला पेय और खजूर सा मीठा अम्रततुल्य फल जरुर देते हैं जो इस रेगिस्तान के मुसाफिरों के लिये वरदान है।
बस इसी तरह मै भी अपनी महबूबा और चाहने वालों से दूर चाहे कितनी दूर रहूं। पर उनकी यादों और फोन कॉलों से प्रेमरस खींचता रहता हूं और जिंदा रहता हूं।
लिहाजा मेरी बातों को ताड़ी और कविताओं को खजूर जानो।
बाकी तो एक पहाड़ हूं जो टूट टूट कर रेजा रेजा बिखर चुका है किसी रेगिस्तान की तरह। ी
प्रभात
नोट ...आपको तुम लिखने के लिये क्षमाप्रार्थी हूं। पर इस खत में आप से अपनापन नही आ रहा था। इसलिये यह गुस्ताखी की है। उम्मीद है आप मॉफ करेंगी।
इस खत को पढ कर कितना उदास हो गयी थी काफी देर तक रोती रही थी।
संध्या ने खत को आज भी पूरा का पूरा पढ गयी। ?
उदासी एक बार फिर उसके वजूद में पूरा का पूरा घिर आयी।
बाहर काली रात अब और काली हो चुकी थी। बारिष की बूंदे तेज और तेज हो कर खिडकी के षेड से अब बंूद बंूद की जगह धार से बहने लगी थी। हर सिंगार का पेड भी पानी से तरबतर हो रहा था खुले आकाष के नीचे।
संध्या के अंदर भी कुछ बह रहा था। पहले धीरे धीरे फिर जोर जोर ...
पापा के न रहने पर भी मॉ ने षादी मे कोई कोर कषर न छोडी थी वह नही चाहती थीं को बेटी को कहीं से यह अहसास हो कि उसके पापा नही है। और उधर रीतेष के घर वालों ने भी तो कोई कोर कषर न छोडी थी अपने हिसाब से जो भी अच्छे से अच्छा बन पडा किया। करते भी क्यूं न उनके एकलौते लडके का ब्याह जो हो रहा था। और बहू भी तो चॉद जैसी थी। सबसे बडी बात लडके को पसंद थी। सब कुछ कितना षौक से हुआ था। वह भी उस खुषी मे षामिल थी। उसे भी सब कुद अच्छा अच्छा लग रहा था।
दो चार दिनों मे ही तो उसने ससुराल के हर एक का मन मोह लिया था। जो भी आता उसकी तारीफ किये बगैर न रहता। सभी उसके रुप और गुण दोनो की तारीफ करते न अघाते।
और करते भी क्यों नही क्या नही था उसके पास सुंदर तो थी ही पढने लिखने मे भी अच्छी थी गाना बजाना उसे आता था। स्वभाव भी उसका सबके प्रति प्रेमपूर्ण था। रीतेष तो उसके प्रेम में पागल थे ही। पीछे पीछे उसके डोलते रहती। जहां वह जाती वहीं वह भी रहती। साथ सोना साथ जागना साथ साथ कालेज जाना। बी ए के अतिंम वर्ष में ही तो विवाह हो गया था। फिर एम ए मे दोनो ने एक साथ ही दाखिला लिया था। अब तो कालेज भी एक साथ जाना आना होता।
रीतेष सितार अच्छा बजाते जब वह बजाते तो वह गाया करती। दोनो की जोडी अच्छा समां बांधती। दोनेा कबूतर कबूतरी से हर दम गुटर गूं गुटर गूं करते रहते। हालाकि इतने ढेर सारे सुखों के बीच में भी संध्या के दिल में कहीं न कहीं एक खलिष की हल्की हल्की लहर कभी न कभी नदी की तलहटी से उपर आ ही जाती उसे लगता कि क्या यही प्रेम है क्या इसी के लिये लडकियां परेषान रहती है। वह अक्सर अपने आप से पूछती पर उत्तर न मिलता। तो वह फिर रीतेष की बाहों में अपना गौराया सा चेहरा दुपका के सो रहती।
झील सी गहरी ऑखों का मीठा मीठा पानी कसैला हो गया।
झील सी गहरी
ऑखों का
मीठा पानी
चेहरे के नमक से
घुलमिल कर
बरसा
और पानी
कसैला कसैला
सा हो गया
नदी गोमुख से निकल पहाडों पे कल कल कर रही थी अपनी पूरी भव्यता और सुंदरता के साथ।
संध्या की झील सी ऑखें हर समय झील से लहराती रहती। रीतेष ही नही जो भी उसे देखता देखता ही रह जाता। जो कोई भी देखता बिना रीझे न रहता। हर कोई कहता।
रीतेष की बहू बहुत सुन्दर है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा गाती है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा बोलती है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा बतियाती है। रीतेष की बहू तो की बोली बानी तो बिलकुल कोयल सी है। रीतेष की बहू पढने लिखने भी बहुत होषयार है। रीतेष की बहू रीतेष की बहू। जिसे देखो वही रीतेष की बहू के गुणगान में लगे रहते। वह भी मस्त और मगन कोयल सी कुहुकती व चिडिया सी फुदुकती रहती। खुष खुष। पर उसे यह तनिक भी अहसास न हो रहा था कि उसकी जितनी भी तारीफ होती है उतना ही मन का कोई कोना रीतेष के अंदर टूटता है। उसे लगता कि षायद संध्या के आगे तो उसका वजूद चुकता जा रहा है। वह उसकी दीप्ति के आगे छिपता जा रहा है।
अंर्तमुखी रीतेष के व्यवहार ने संध्या को यह अहसास ही न होने दिया कि इनफियारिटी कॉम्पलेक्स की कोई गांठ रीतेष के अंदर बन रही है। वह तो उनकी चुप्पी को उनका स्वभाव समझती और उन्हे ज्यादा से ज्यादा खुष रखने की कोषिष करती।
वह उन्हे जितना खुष रखने की कोषिष करती रीतेष उतने ही गुमसुम्म हो जाते और चुप हो जाते पहले तो दो चार दिन में फिर से सामान्य हो जाते पर उनका यह गुमषुम पना अंदर ही अंदर क्या गुल खिला रहा है। जब तक उसे पता लगता लगता तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तब तक जीवन का बसंत कब बारिस के मौसम मे बदलता गया जो धीरे धीरे तूफान में बदला अैार तूफान एक ऐसे जलजले में बदल गया जिसमें सब कुछ बह गया। जिसे संवारते संवारते आज इस किनारे पे आ लगी है। जहां साथ देने को सिर्फ है तो मॉ है जो उसकी जननी है।
पर फिलहाल यह सब सोचते सोचते उसे भी काफी देर हो चुकी थी। बाहर धुंधलकी बरसाती षाम कब काली अंधियारी रात में बदल गयी उसे पता ही न लगता अगर मॉ ने चाय व दवाई के लिये आवाज न दी होती।
...
रीतेष के जिस घुन्नेपन को वह उसका स्वभाव समझती उसके पीछे कितना घिनौना चेहरा छुपा है उसे धीरे धीरे पता लगता गया। पहले तो उसकी और मीना और उसके मेल जोल को मोैसेरे भाई बहनों का स्नेह समझती कोई ज्यादा ध्यान ही न दिया पर बाद में उसे पता लगा कि उनलोगों को रिस्तो की पवित्रता का कोई अहसास नही है। वे दोनेा तो भाई बहन के इस पवित्र रिस्ते के पीछे इना घिनौना खेल खेल रहे थे कि सुन के ही उसे उबकाई आ गयी। जिस दिन पहली बार इस बात का पता लगा वह विष्वास ही न कर पायी कि दुनिया में एसा भी हो सकता है और उसी के साथ हो सकता है।
रीतेष और मीना को एक साथ आपत्तिजनक अवस्था में उसने खुद देखा। उस दिन उसके षरीर में फिर गंदे कीडे रेंगने लगे जिनसे निजात पाने के लिये वह कितना रोयी थी कितना तडपी थी यह उसकी आत्मा ही जान सकती है या वह खुदा जिसने उसे बनाया है।
इतने बडे आघात को वह महज इस लिये सह गयी कि अब तक वह फूल सी बच्ची व एक बेट की मॉ बन गयी थी। अब सवाल सिर्फ उसकी जिंदगी का ही नही रह गया था इन बच्चों का भी जीवन उसके व रीतेष के साथ जुड गया था।
और फिर वह पिता के न रहने का दर्द अच्छी तरह से जानती थी। इसलिये वह कोई ऐसा कदम नही उठाना चाहती थी कि उसकी बेटी को बाप को प्यार न नसीब हो। इस लिये उसने अपने सीने पे पत्थर रख कर भी रीतेष व मीना के घिनौने संबंध को स्वीकार कर लिया था। पर अब जब भी रीतेष उसे छूते तो वह तडप उठती लगता कि रीतेष के हाथ नही गंदगी से लिथडे हाथ हेैं जो गंदे कीडों सा षरीर पे रेंग रहे हैं पर वह उन गंदे कीडों को भी बरदास्त कर गयी। जब रीतेष ने रो रो के मॉफी मांगी थी और मॉफ न करने पर मर जाने की धमकी दी थी।। पर उसका मासूम मन तब भी नही समझ पा रहा था कि यह कसम भी उसी तरह की झूठी कसम है जिसे उसने षाादी के पहले खायी थी।
संध्या रोती जा रही थी और इन सब बातों को सोचती जा रही थी। उसके अंदर की एक एक लहर बह रही थी।
रीतेष माफी मांगने के बाद बहुत दिनो तक षर्मिंदा न रह सके कुछ दिन बाद उनकी मीना के साथ फिर वही रासलीला षुरु हो गयी। बस फर्क इतना था कि अब यह खेल थोडा ज्यादा ही लुका छिपा के खेला जाता पर यह लुकाव छिपाव भी ज्यादा दिन न चला उजागर हो ही गया।
लिहाजा इस बार संध्या ने कुछ कहा तो नही। बस रीतेष को अपने पास न फटकने देती।
वह उनके साथ रह के भी न रहती। उनको चुपचाप खाना दे देती। सारा काम कर देती जैसे वह उनकी नौकर हो।
वह बिलकुल टूट चुकी थी पर सास का स्नेह व ससुर का वरदहस्त ही था जो उसे सम्हाले हुआ था। वर्ना फूल की यह डाली तो टूट ही गयी थी।
सोचते सोचते संध्या की आंखें सावन भादों बन बरसन लगी। बाहर बादल भी पूरी जोर से बरस व गरज रहा हो मानो वह भी इस वक्त संध्या के दुख से दुखी हो गया हो।
वह न जाने कितनी देर और रोती रहती अगर मोबाइल की घ्ंाटी न बजी होती। उसने झट ऑखें पोछी और, हैंडसेट की लाइट में प्रभात का नाम चमक रहा था।
मौसम अपना मिजाज रोज रोज बदल रहा है। दो दिन पहले तपन थी कल बादल छाये थे और आज बारिस।
ऐसे ही संध्या का मन भी रोज रोज बदल रहा था। वह अपने अंदर आये इस बदलाव से पूरी तरह वाकिफ थी। पर बेबस थी इस बार उसकी इच्छा षक्ति काम न दे रही थी। ऐसा नही था इतने दिन की एकाकी यात्रा में कोई ऐसा रहगुजर न मिला हो जिसके साथ बैठना बोलना अच्छा न लगा हो। पर हर बार दो चार मुलाकातों में ही अपने घिनौने हाथ पैर पसारने षरु कर देते। देह में घिनौने कीड़े रंेगने लगते। जो मन तन को गंदा ओर वीभत्सता से भर देते और वह घोर वित्रषणा से भर उठती। पता नही षायद वही वित्रषणा रही हो या कि कोई ओर अन्जाना कारण उसके अंदर गांठ के रुप में पलता बढता गया जो आज इस रुप में उभर आया है। जब वह किसी भी व्यक्ति और वस्तु को छूना उसे गंवारा नही होता। हर चीज व वस्तु जब तक दो तीन बार धो के साफ नही कर लेती उसे लगता यह चीज गन्दी है। हर चीज वह धो पोछ के ही इस्तेमाल करती है। उसकी इसी आदत से निजी जीवन भी बुरी तरह से बाधित होता गया। और वह धीरे धीरे और और एकाकी होती गयी। इधर दो तीन सालों में जब से बच्चे अपने अपने स्थानों में गये, तबसे तो घर में ही कैद हो के रह गयी है। जहां सिर्फ वह है और मॉ। मॉ का काम धाम करके बस दिन भर साफ सफाई में ही लगे रहना उसका षगल बन गया उसे लगता हर एक चीज मैली है गन्दी जिसे छू कर वह भी गन्दी हो जायेगी। कभी कभी तो उसे भिण्डी जैसी सब्जी में भी किसी पुरुष की उंगलियां नजर आती जो उसे छूना और ड़सना चाहती है। इस परेषानी को डाक्टर ओ सी ड़ी कहते हैं जिसका इलाज भी कराया पर कोई खाष रिजल्ट नही आया। अब तो इलाज कराना भी छोड दिया है। इसे भी एकाकी पन की तरह स्वीकार्य कर लिया है।
देह में चिपके कीडों को पहली बार तब महसूस किया था।
महज आठ व नोै साल की खूबसूरत गुडिया। हर वक्त फूल किस खिली खिली। जो भी उसे देखता देखता ही रह जाता। तारीफ किये बिना न रह जाता कह ही उठता संध्या अभी इतनी सुंदर है तो बडी होकर तो किसी राजकुमारी से कम नही लगेगी। यही फूल सी राजकुमारी बंगले के अहाते में खेल रही है। अकेले ही एक पैर पे उचक उचक के अपने आप में ही मगन है। पास ही उससे कुछ बड़ा पर मोट और गबदू सा लडका भी खडा है। बाबर। वह चुपचाप बडी देर तक तो फूल सी बच्ची को देखता रहा फिर पता नही क्या मन में आया कि उसने उसे अपने दोनो हाथों में दबोच के पास के ही गढढे में कूद गया। फूल बेहद डर गयी बाबर उसे दोनेा हाथों से पकडे था। वह घबराहट में रो भी न पा रही थी। पर पता नही कैसे वहां से उठ के भागी और जा कर आई की गोद में दुबक गयी। सबके बहुत पूछने पर भी वह कुछ न बोली उसके साथ क्या हुआ। पर रात सपने मे उसे लगा जैसे उसे बाबर नही किसी बडे से कीडे ने पकड लिया हो। वह सपने में ही घबरा गयी।
षायद तब से ही उसे हर चीज लिजलिजी व गंदी सी लगती कोई भी उसे छूता तो लगता कोई कीडा छू रहा हो।
उसके बाद तो न जाने कितनी बार नजरों के कीडे काटते चले आ रहे है उनसे बचते बचते आज एक उम्र गुजर गयी पर अभी भी कीडों से निजात नही मिली लगता है थोडा सा लपरवाह हुयी और इन कीडों ने देह में रेंगना षुरु किया।
यह सब सोचते सोचते न जाने कब संध्या की खूबसूरत झील से अॅाखें भर आयीं जिसके ऑसुओं को समाज के इन गंदे कीडों ने कसैला कसैला कर दिया था।
र्दद ही र्दद का साया है
र्दद ही र्दद का साया है
कितना घना कुहासा है
प्रभात की गजल का यह षेर संध्या कई बार मन ही मन दोहरा चुकी है। हालाकि यह सच है कि कभी उसकी जिंदगी के लिये यह बात सही रही होगी पर आज उम्र के इस मुहाने पे यह बात पूरी तरह से नही कहा जा सकता है। अब तो सब कुछ निपट चुका है। बच्चे सेटल हो चुके हैं उनकी षादी हो चुकी है अपने अपने घर मे खुष हैं प्रसन्न हैं। जिंदगी एक ढर्रे पे चल रही रही है। यह अलग बात है कि तन्हाई मे आज भी वह खलिष जो वह रीतेष के साथ रहने पर भी महसूस करती थी वह आज भी है और अब तो कुछ गाढी हो के उभर आयी है। या हो सकता है की गाढी तो पहले से ही रही हो पर इतनी षिददत से सोचने का मौका न मिला हो।
संध्या ने रोजमर्रा के काम समाप्त किया। मॉ को दवाई और दलिया खिला दिया जो लेटी लेटी झपकी लेने लगी तो वह भी अपने लिये नीबू की चाय बना के खिडकी पास ही कुर्षी लगा के बैठ गयी। बाहर गुलमोहर रोज सा अपने आप मे हौले हौले हिल रहा था। काली लम्बी सूनसान सड़क दूर तक पसरी थी जो कभी कदार एक आध मुसाफिर के आवागमन से कुछ देर को गुलजार होती और फिर उसी सन्नाटे मे पसर जाती। संध्या की जिदगी भी तो किसी पॉष कालोनी की दोपहर की सूनसान सडक ही तो है। जहां दिन मे एक दो बार बच्चों के फोन कॉल या फिर मॉ की दवाई और दर्द की कराहों के सिवाय कोई हलन चलन नही है।
गुलमोहर के पेड के साथ साथ उसका साया भी हौले हौले हिल रहा था। इस हलन चलन को देखते देखते संध्या को अपने बदन पे फिर से कीडे रंगते महसूस होने लगे। वह बेचैन होने लगी। कीडे एक बार फिर उसकी स्म्रतियों मे रेंगने लगे।
रीतेष अपनी आदतो मे सुघार करना ही नही चाहते थे। कई बार लडाई झगडा और समझौता हुआ पर कुड दिन बाद फिर वही हरकते वह उब चुकी थी काफी अंदर तक टूट चुकी थी। हालाकि सासू मॉ और ससुर का उसके प्रति प्रेम बना था और वे खुद अपने बेटे को ही गलत कहते थे। पर इन सब बातों से उसे तसल्ली नही हो रही थी।
अंत मे उसने इस रिस्ते से भी समझौता कर लिया था अपने बच्चों की खातिर पर रीतेष दिनो दिन और ज्यादा घुन्ने होते जा रहे थे। इसी बीच जब उसके काम और मेहनत से खुष हो के युनिर्वसिटी ने उसे अपने डिपार्टमेंट को हेड बना दिया तो इस बात ने रीतेष के अंदर की हीन भावना को और मजबूत कर दिया जिसकी पूर्ती वह दूसरी औरतों को अपनी ओर आकर्षित करके अपनी मर्दानगी का सबूत देने और अपने आप को बेहतर साबित करने की नाकाम कोष्षि करते।
रीतेष केे एक और औरत से उनके सम्बंध हो गये थे। इस बात ने उसे पूरी तरह से झकझोर दिया और फिर जो होना था वही हुआ।
वह अपने बच्चों को ले के अपने घर चली आयी।
पिताजी के जाने के बाद भी मॉ उतनी टूटी न थी जितनी वह आज उसके वापस आ जाने से हुयी थी। पर मॉ बहुत मजबूत कलेजे की थी उसने उसे ढाढस बंधाया और अपने काम काज मे लग गयी। और उसने भी अपने को मॉ की तरह अपने को नौकरी और बच्चों के बीच खपा दिया सुबह से षाम तक सोचने की फुरसत ही न मिलती जिंदगी नौकरी और बच्चों के बीच डोल रही थी।
देह मे रेंगते कीडे इस अंतहीन दर्द के साये मे जाने कहां लुक छिप गये थे। पर .....
देव साहब लम्बा चौडा भव्य षानदार व्यक्तित्व कालेज के प्रिसिपल जिन्हे वह पिता तुल्य समझती जिनके आचरण और व्यवहार मे भी वही भव्यता छायी रहती पर इस भव्यता और आर्दष की परतें धीरे धीरे उतरती गयीं किसी पुराने बर्तन की कलई जैसे।
संध्या उस कालेज के स्टाफ की षान थी स्अूडेंटस के बीच भी काफी लोकर्पिय थी अपनी खूबसूरती के कारण अपनी विदवता के कारण अपने व्यवहार के कारण पर उसके सारे गुण ते उसकी खूबसूरती दबा देती। हर प्रोफेसर हर स्अूडेंट उसके नजदीक आने के चाह रखता पर उसकी कोमलता मे भी छुपे ध्रण निस्चय को देख के कोई हिम्म्त नही करता था अपनी सीमा रेखा के बाहर आने का।
उन सब लोगो की तरह देव साहब भी उसके आकर्षण से अछूते न रहे और एक दिन अपनी असलियत दिखा ही दी। एक दिन जब एकांत पाकर प्रधय निवेदन करते हुए छूने की कोषिष की तो वा संयम से काम लेती हुयी बहाना बना के आफिस के बाहर आयी और फिर दोबारा कालेज लौट के नही गयी गया तो उसका इस्तीफी ही गया। बाद मे उन्होने बहुत मनाने अैर सफाई देने की कोषिष की पर संध्या टस से मस न हुयी।
पर इस हादसे के बाद उसके अन्दर पुरुष जाति की नफरत के कीडे एक बार फिर कुलबुलाने लगे और दिन रात षरीर मे रंेगने लगे। नौकरी छूटने की चिंता बच्चों का भविष्य और मरदों की करतूतें उसे अंदर तक तोड डाल रही थी।
पर उसने अपने को एक बार फिर संभाला इत्तफाक से उसे एक दूसरे कालेज मे दूसरे षहर मे फिर उसी स्टेटस की जॉब मिल गयी।
उसने बच्चों को लिया और फिर एक नयी मंजिल की ओर चल दी।
मगर इन सब हादसों का नतीजा हुआ उसके मन की कोमल धरती सूखती गयी सूखती गयी उसकी खूबसूरत आखों के आंसुओं की तरह।
जमाने के कामुक कीडों ने न जाने तो कितनी बार उसे काटना चाहा छूना चाहा नोचना चाहा पर न जाने कौन उसकी अंदरुनी ताकत थी कि वह किसी न किसी तरह बच ही जाती पर वह इन कडीें के मानसिक डंकोे से न बच पायी और उसका ओ सी डी बढता ही गया दिनो दिन और अब हर चीज मे गंदगी ढूंडती अपने हाथ दिन मे कई कई बार धोती कभी डिटाल से तो कभी गरम पानी से और कोई उसको छू लेता तो वह उसके जाने के बाद या घर आने के बाद तुरंत कपडे धोती और नहाती ताकि उसके कीडे पानी मे बह जायें और वह फिर साफ सुथरी हो जाये पर वह जितना ही अपने आप को सफ सुथरा रखने की कोषिष करते ये कीडे अैार और और तेजी से रेगने लगते। उसकी इस आदतों से बच्चे भी परेषान होने लगे थे।
पर वह मजबूर थी अपने आप को समझाने मे।
एक ओर जहां उसकी यह ओ एस डी की बीमारी बढती जा रही थी वहीं उसके मन की धरती भी सूखती जा रही थी पपडियाती जा रही थी।
संध्या अपनी इन स्म्रतियों मे जाने कितनी देर तक डूबी रहती अगर उसे मॉ की आवाज न सुनायी देती पानी देने के लिये।
इधर वह मॉ को पानी देने के लिये उठी उधर बाहर सूनी सडक पर धूल का गर्म गुबार उड रहा था जिसके कारण गुलमोहर की पत्तियां और हिल रही थी। और उसका साया भी हिल रहा था।
पता नही यह गुलमोहर का साया था या संध्या के दर्द का साया था ?
सूनसान जंगल मे चुपचाप बहती रही।
सूनसान जंगल मे गुपचुप बहती रही
वह नदी थी रास्ता खुद चुनती रही
जीवन के जंगल मे चुपचाप बहती रही बहती रही। रात बीतती रही दिन गुजरते रहे।
मॉ के पर्वत जैसे व्यक्तित्व और साये से जब निकली तो उसका जीवन किसी नयी नदी सा ही तो षुभ्र और उज्जवल था मन मे भावनाओं की लहरें कुलाचें मारने लगी थीं जो षायद पिता के न रहने की कमी से मन मे अंदरी ही अंदर हरहरा रही थीं पर उपर से षांत थी। रीतेष ने भी तो अपनी भूजाओं मे बांध बहने दिया था अपनी तरह से उफनते दिया था बहने दिया था और तब वह कितनी मगन थी कितनी खुष थी। लेकिन जिंदगी की राह मे न जाने कितनी बडी बडी चटटाने न जाने कितने बडे बडे रोडे आये जिनसे तो कई बार लगा भी कि अब वह कहां जाये क्या करे पर वह तो नदी थी अपना रास्ता खुद बनाना जानती थी। अपनी तरलता से कभी उन चटटानों के बगल से खुद को बह जाने दिया और जो छोटे मोटे कंकड पत्थर आये उन्हे बहा के दूर कहीं फंेक दया। वह निर्बाध रुप से बहती रही बहती रही।
वह नये षहर मे आके एक बार फिर अपने को सेटल कर लिया बच्चे स्कूल जाने लगे जिंदगी ढरें पे चलने लगी। वह सुबह से षाम तक अपने को कभी कालेज के काम मे तो कभी घर के काम मे उलझाये रखती।
दीन बीतते रहे जिंदगी बहती रही हौले हौले गुपचुप गुपचुप।
बेटी ने अपनी पढाई पूरी की नौकरी की और अपने एक कुलीग से षादी करके विदष षेटल हो गयी। एक दो सालों मे बेटा भी वही जा के षेटल हो गया वहीं षादी कर ली।
हालाकि वह अपने प्रेम विवाह का हश्र देख चुकी थी फिर भी उसने बच्चों के निर्णय मे कोई आपत्ती नही जतायी। उसका विचार है कि हर एक को अपना जीवन अपने तरीके से जीने का पूरा अधिकार मिलना चाहिये।
आज दोनो बच्चे अपने अपने परिवार मे खुष हैं प्रसन्न है।
दिन बीते साल बीते मॉ रिटायर हो के उसके पास चली आयी। और जाती भी कहां मॉ का उसके सिवाय और कोई था भी तो नही वही तो इकालौती संतान थी।
मॉ और बेटी दो लोंग बस। घर मे कोई ज्यादा काम होता नही दोनो मॉ बेटी अपने लिये मिल जुल के पका लेते और काम काज कर लेते न कोई किच किच न कोई परेषानी हॉ। सिवाय इस बात के भी की इस पकती उम्र मे भी कुछ पके और कुछ उससे कम उम्र के लोग भी उसे अकेला जान के पास आने की कोषिष करते। कई बार उसे भी लगा कि वह कुछ टूट रही है पर जब भी मर्द उसके नजदीक आता तो उसके षरीर मे कीडे रेंगने लगते और इस तरह से रेंगने लगते कि वह घबरा के उस व्यक्ति से दूर हो जाती और फिर अपने एकाकी राह मे मंधर गति से बहने लगती बिना किसी हलन बिना किसी चलन।
फिर नदी गुनगुनायी एहसास की
यूं तो जिंदगी की नदी मे तूफान और भंवर आते ही रहे हैं। पर इधर वालेंटरी रिटायरमेंट के बाद से और बच्चों के सेटल हो जाने के बाद उसकी जिंदगी किसी जंगल की षांत नदी सा बह रही थी बिना किसी हलन बिना किसी चलन। ओर न जाने कितने दिन चलती ही रहती। गर प्रभात से परिचय न होता। हालाकि षुरुआती खतोकिताबत से उसे ये उम्मीद नही थी कि यह सिलसिला इस हद तक बढे जायेगा कि उसके दिल की सूखी और दरककी हुयी धरती पे फिर से एहसासों के बादल बरसेंगे फिर से कुछ भावनाओं के उम्मीदों की कोपल फूटेंगी।
संध्या आज भी अपने रुटीन के काम काज से निपट के खिडकी के पास बैठ निहार रही थी सामने की साफ सुधरी पर सूनी सडक को और निहार रही थी पर इस सूनी सडक को देख कर आज वह अपनी जिंदगी की इस एकाकी यात्रा को नही याद कर रही थी। बल्कि आज वह बाहर लॉन मे लगे मोगरा और जूही के फूलों की मीठी मीठी गमक मे खो जाना चाहती थी।
अपने अंदर के एहसासों की नदी मे डूब जाना चाहती थी जो उसकी बरसों की परती पडी धरती पे जिंदगी के सारे कटु अनुभवों की कठोर चटटानो को तोाड के बह जाना चाहते हैं एक नदी की तरह एहसासों की गुनगुनाती नदी की तरह।
किसी पहाडी नदी सा उचछंखरल तो नही पर मैदान मे बहती एक षांत पवित्र नदी की तरह।
संध्या इन्ही ख्वाबों और खयालों मे डूबी हुयी थी कि मोबाइब पे एक बार फिर प्रभात का नाम फलैष हुआ मोबाइल की धंटी बजी और उसके अंदर जलतरग बज उठी। एक बार फिर षायद पहली बार एहसास की गुनगुनी नही बह उठी बरसों की परती पडी धरती पे।









दोस्त,
आज पहाड़ी सुबह कुछ ज्यादा ताजी और धुली धुली नजर आयी, चौट बाक्स मे पडे आपके मैसेज ने उसे कुछ और ही खूबसरत बना दिया।
सुबह की हल्की रोषनी ने ओस के साथ साथ रात की बची खुची खुमारी भी सोख लिया।
फक्त दो दिन की दोस्ती और चौट बाक्स मे हुयी बातो का असर इन खुनखुनाती हवाओं मे घुल घुल के न जाने कैसी तासीर पैदा कर रहा था कि उंगलियां अपने आप मोबाइल के कीपैड से खेलने लगीं और न जाने कव आपके नाम पे रुक गयी जो आपको कॅाल कर के ही मानीं।
महज दो तीन वाक्यों मे हुयी बात का असर काफी देर अपने वजूद पे महसूस करता रहा।
न जाने क्यूं लगा आप उस वक्त घबराहट मे या संकोच मे या किसी और कारण से बात नही कर पा रही थी। लिहाजा मैने कॉल को वहीं खत्म करना ही उचित समझा।
फिर दोपहर मे जब आपका मैसेज आया उस वक्त मै कुछ काम मे व्यसत था। खैर ...
इस वक्त षाम का झुटपुटा धीरे धीरे अंधेरे की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में मै देख रहा हूं। बादलों की ओट से सिंदूरी सूरज को, पहाड़ं के पीछे छुपते हुये। पेड़ और इंसान की लम्बी परछाइयों को अंधेर में विलीन होते हुए। पक्षियों को अपने आसियाने में चहचहा कर दुपकते हुये। गिलहरी गिल्लू को फुदक कर पेड़ की खोह में घुसते हुये। इसी के साथ साथ मै भी अपने एकाकीपन में डूब रहा हूं। किसी गहरे तलातल में, जहां खोते जा रहे थे सारे षब्द, सारे भाव, सारे विचार सारी संवेदनाए।
लेकिन इस विलीनता में हो रहा था सब कुछ हौले हौले आहिस्ता आहिस्ता। फिर आहिस्ता से बिदा हो गयी थी सारी बेचौनी। जहां था एक गहन लयबद्ध मौन से आप्लावित किसी षाम की रागनी।
उसी तंद्रा की अवस्था में दूर से आती स्वरलहिरयों की तरह मन के अचेतन से आपका नाम स्पंदित हाने लगा। इस भाव के साथ कि आहिस्ता आहिस्ता परवान चढते इस संबध को किस रुप में लूं किस रुप मे न लूं। कहां तक समझूं कहां तक न समझूं। लेकिन इस होैले हौले उभरते हुये विक्षोभ के साथ भी मै, इस अवस्था से निकलना नही चाह रहा था। बहुत देर तक।
इस भाव दषा से उबरने के बाद भी बहुत देर तक सोचता रहा। आपके साथ हो रही आपसी सौहार्द की बातों व हल्की फुल्की चर्चाओं के बारे में। उन बातों के बारे में जिन्हे हम और आप कह सुन लेते हैं। और सोच रहा था अक्सर अपने आप ही अंकुआ जाने वाले कुछ ऐसे संबंधों के बारे में जिन्हे, कोई संज्ञा तो नही दी जा सकती। पर उन संबंधों को यदि आहिस्ता और समझदारी से जिया जाये तो निसंदेह समाज में एक मिसाल कायम करते हैं। चाहे वह वर्तमान में सात्र व सिमॉन द बउवा का रहा हो या कि अम्रता और इमरोज का रहा हो या कि पुराणों में द्रोपदी व क्रष्ण का रहा हो।
हालाकि इन बड़े बड़े नामो से मै अपने आपको नही जोड रहा पर एक बात जरुर है कि फिलहाल हम लोगों को साक्षी भाव से हर घटना व बात को देखना समझना होगा पवित्रता, धैर्यता और विस्वास के साथ।
वैसे इतना जरुर है आपका ये दोस्त उन कसौटियों पे कतई नही खरा उतरता जिन कसौटियों पे एक अच्छे दोस्त को उतरना चाहिये। हां यह जरुर ईमानदारी से कहूंगा कि आप इस दोस्त पे आसानी से विष्वास न करियेगा। ये बहुत छलिया दोस्त है। जो अक्सर अपनी लच्छेदार बातों से लोगो को मोहित करने की कला जानता है। इसलिये आप मेरी कविताओं और बातों से मुझे बहुत अच्छा इन्सान न समझें।
हां ये जरुर है जितनी दूर और देर तक दोस्त रहूंगा ईमानदारी से दोस्त रहूंगा।
वैसे तो कलम अभी रुकना नही चाहती पर एक ही बार मे सब कुछ कह देना व बता देना न तो संभव है और न ही रिष्तों की मजबूती के लिये ठीक होता है।
जो चीज धीरे धीरे पकती है उसकी सुगंध स्वाद और तासीर ही अलग होती है।
एक ही बार मे पूरी आंच दे देने से चीजें नष्ट ही होती हैं चाहे सम्बंध ही क्यूं न हो।
बाकी आप खुद समझदार और दुनियादार हैं।
कम षब्दों मे ज्यादा समझना आपकी विषेषता है।
शुभकामनाओं सहित
एक दोस्त
दोस्त,
नेट खोलते ही निगाहें चौट बॉक्स मे आपको ढूंढती हैं। और अपडेटस मे आपकी रचनाएं। आज चौट बाक्स मे आपके पत्र देख मन हिलोंरे लेने लगा। उंगलियां माउस पे कंपकंपाने लगी, दिल न जाने क्यूं धडकने लगा।
जैसे जैसे निगाहें खत को पढती जातीं वैसे वैसे मन आपके लिये श्रद्धा विस्वास और प्रेम से भीगता जाता।
पत्र को कई बार पढने के बाद भी मन नही भरा और ये पत्रोत्तर लिखते लिखते कई बार आदयोपातं पढ चूकी हूं।
आपके एक एक षब्द मे न जाने कौन सा जादू होता है जो उतरने की जगह चढता ही जा रहा है। षायद ये आपके दिल की पाक साफगोई और अनुभव ही है जो हर एक को इतना आकर्षित करता है।
अपने विचारों को कई बार सिलसिलेवार करने की नाकाम कोषिष कर चुकी हूं पर ये बेर्षम विचार हर बार हवा की तरह उड जाते है।
दोस्त, इतना तो मै भी जानती हूं कि ये बेब दुनिया है, एक जाल है। जिसमे जितनी देर रहो उतने सतरंगी सपने दिखाता रहता है। बाहर आते ही फिर वही भयानक वास्तविकता होती है।
और ये जिंदगी वेब दुनिया के सहारे नही चल सकती फिर भी मे इस का षुक्र गुजार हूं कि आप जैसे नेक और समझदार दोस्त से मुलाकात कराई।
आपने अपने पत्र मे कहा है कि ‘एक ही बार मे सब कुछ कह देना व बता देना न तो संभव है और न ही रिष्तों की मजबूती के लिये ठीक होता है।’
पर ये भी सच है कि अगर रिष्तों की दीवार सच और विस्वास पे न उठी हो तो कुछ देर बाद भरभरा के कभी भी गिर सकती है। और इसके लिये जरुरी है कि एक दूसरे के बारे मे सब कुछ नही तो बहुत कुछ तो मालूम ही होना चाहिये।
और अगर सब कुछ कहना एक बार में संभव नही तो कम से कम बहुत कुछ कम षब्दों मे भी तो कहा जा सकता है।
लिहाजा कम से कम षब्दों मे अपनी बात कहने की कोषिष है।
दोस्त, कई लडकियों के बाद मॉ बाप को उम्मीद थी कि इस बार तो लडका ही होगा। पर बदनसीबी से मै पैदा हो गयी। और वो भी साधारण रुप रंग ले के लिहाजा बचपन से उपेक्षा और तानो के सिबा कुछ न मिला। बडी बहनो को संग साथ ही सहारा रहा। अपने रुप रंग और घर के वातावरण ने हीन भावना को बढावा ही दिया। लिहाजा बचपन से ही अंर्तमुखी होती गयी। हां इस घुन्नेपन ने दुनिया को देखने समझने की क्षमता मे इजाफा किया और ज्यादा से ज्यादा पढने की तलब जगा दी।
घर की परेषानियों को झलते हुये भी पढाई पूरी की और नौकरी की।
उधर बडी बहनो की षादियां करते करते पिता चल बसे। प्राइवैट नाकरी थी पिता की पेन्सन का भी सहारा न था। लिहाजा मॉ और घर की जिम्मेदारियों के चलते अपनी आर सोचने का मौका ही न मिला।
हां कभी कदार अकले पन को दूर करने के लिये अपने आस पास नजरें दौडाती भी तो। उन लोंगों की ही भीड नजर आती जिनकी नजरें मेरी भावनाओं को कम और सरकारी नौकरी से मिलने वाली सैलरी की तरफ ज्यादा रहती। या फिर उनकी ऑखों मे सिर्फ टाइमपास की फितरत नजर आती।
एक दो सरल और सहज लोग मिले भी पर गौर से देखने पर वे भी मानवीय समझ और दुनियादारी मे बौने ही नजर आये। लिहाजा मैने खुद को मॉ नौकरी और किताबों की दुनिया मे खपा दिया था। जिसमे खुश तो नही पर आराम से थी।
इसी बीच मोबाइल की वजह से नेट की दुनिया मे आना हुआ।
और एक दिन किसी कॉमन दोस्त की वाल पे आपकी एक रचना से रुबरु हुयी।
जिसने मुझे आपको ज्यादा से ज्यादा पढने के लिये उकसाया।
और मैने आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी।
और वो दिन कि आज का दिन षायद कोई ऐसी रचना न होगी जिसे आपने पोस्ट किया हो और मैने न पढा हो।
उस दिन भी मैने आपकी रचना पे लाइक कर के एक छोटा से कमेट भी दिया था। जिसका जवाब आपने वॉल पे न दे के षुक्रिया के साथ चौट बाक्स पे दिया था।
बस उसी दिन के बाद से जो बातें हुयी वो आप को भी मालुम है। और हमे भी।
हालाकि मैने भी अभी इस सम्बंध के बारे मे बहुत गम्भीरता से नही सोचा पर ये भी है कि मेरे चाहने के बावजूद आपकी बातें और रचनाऐ जेहन मे किसी जादू की तरह किसी इंद्र जाल की तरह छायी रहती हैं जिससे अपने आप बाहर निकलने मे असमर्थ पा रही हूं।
हालाकि ये भी मालूम है ऐसं संबंध अक्सर पानी के बगूले की तरह जिस तेजी से बनते हैं उतनी ही तेजी से फूट भी जाते हैं।
आप मेरी इन बातों को किस तरह से लेते हैं और क्या प्रतिक्रिया करते हैं इसका असर मुझ पर नही पडेगा, एसा तो नही कह सकती फिलहाल पर ये भी सच है कि जिंदगी मे इतने हादसात और थपेडे आये हैं कि इसे भी सह लेने की क्षमता है। पर आप अपना निर्णय लेने मे स्वतंत्र हैं। वैसे भी मुझे सुहानभूति से चिढ है।
आपने इस तरह के अपने आप अंकुआऐ सम्बधों का जिस खूबसूरती से परिभाषित किया है ये आप जैसे षब्दों और भावों के चितेरे ही कर सकते हैं। मै नही।
बाकी मै क्या कहंू,गर मै कम शब्दों मे बहुत कुछ समझ पाती हूं तो आप बिन कहे भी सब कुछ समझने की समझ रखते हैं।
एक दोस्त
 एफ बी दोस्त कहानी की तीसरी कडी ...............
दोस्त,
उधर खिड़की के बाहर सुबह से ही सूरज बादल के साथ लुका छिपी खेल रहा हैं और इधर मेरा दिल और दिमाग एक दूसरे से खेल रहे हैं। इधर दिल कहता है तुमसे बढती हुयी दोस्ती को गुनगुनाओ खुश रहो उधर दिमाग कहता है ठीक है दोस्त प्यारा है उसकी बाते अच्छी है पर कदम समझदारी से बढाओ। इसी उहापोह मे तुम्हारे पढे हुये ख़त को कई बार पढ चुका हूं। क्या जवाब दूं क्या न दूं इस बात के भी विचार आपस मे ऑखमिचौली कर रहे हैं।
अंत मे कुछ नही समझ आने पे कलम उठा ली और तुम्हे लिखने लगा।
तुम्हे मै ‘तुम’ लिख रहा हूं उम्मीद है इसे अन्यथा न लोगी। चूकि तुमने मुझपे श्रद्धा और विष्वास किया है लिहाजा अब ‘आप’ कहना अटपटा लग रहा है। खैर ... तुमने अपने बारे मे जो लिखा है उसे पढ के बहुत देर तक तुम्हारे बारे मे ही सोचता रहा हू।
वैसे तो औरत होने का मतलब ही है दुख झेलना पर तुमने जो मानसिक यंत्रणा झेली है वह सच मे रुला देने वाली है।
दोस्त मै समझ सकता हूं ऐसी स्थिति मे मन जहां कहीं भी झुकाव और पायेगा वहीं बह जायेगा। भले ही वो आभासी दुनिया हो। लिहाजा इसमे तुम्हारा कोई दोष नही है। दोस्त, तुमने अपने बारे मे तो थोडे षब्दों मे सब कुछ बहुत सलीके से बता दिया उतनी दक्षता तो मेरे अल्फाजों मे तो नही हैं फिर भी मै संबंधो मे भावो, विचारों और अनुभवों के आदान प्रदान के तहत मै भी अपने बारे मे तुमसे कुछ साझा कर रहा हूं।
उम्मीद है तुम इस पत्र से मेरे बारे मे थोडा बहुत जान सकोगी।
तो दोस्त .....
तुमने कभी रेगिस्तान देखा है। रेत ही रेत। रेत के सिवा कुछ भी नही। रेत, समझती हो न। पत्थर, जो कभी चटटान की तरह खडा रहता है सदियों सदियों तक, पर धीरे धीरे आफताब की तपिश और बारिष व तूफान से टूट टूट कर रेजा रेजा होकर बिखर जाता है। तब वही पत्थर रेत का ढेर कहलाता है। और जब पूरा का पूरा पहाड़ रेजा रेजा बिखर जाता है, तो वह रेगिस्तान कहलाता है।
उसी रेगिस्तान को कभी गौर से देखना। जो दिन में आग सा दहकता और रात में बर्फ सा ठंड़ा होता है। जिसके सीने पर मीलों तक सन्नाटा पसरा रहता है, मौत सा गहरा सन्नाटा। जिसमें साथ देने के लिये पहाड़ों कि तरह चीड़ व चिनार के दरख्त नही होते। खूबसूरत लहलहाते फूल के गुच्छे नही होते। दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाले ठंडे़ पानी के चष्में नही होते। झील व कलकल करती नदियां नही होती।
वहां।जंगल में नाचने वाले मोर और कूकने वाली कोयल भी नही होती। शेर व चीता जैसे चिंघाड़ने वाले जानवर भी नही होते। यहां तक कि मासूस शावक व फुदकती हुयी गिलहरी भी नही होती। और न ही होती है मीलों तक एक के पीछे एक कतार से चलने वाली चींटियां।
ऐसा ही एक रेगिस्तान मेरे अंदर भी फैला है। जिसमें हरियाली के नाम पर छोटी छोटी अपने आप उग आने वाली कंटीली झाड़ियां है या फिर अक्सर और दूर दूर पर दो दो चार चार की संख्या में खुरदुरे तने वाले ताड़ या कहो खजूर के पेड़ होते है। जिनकी जड़ों में पानी देने के लिये कोई नहर या झरना नही बहता। खाद व पानी देने के लिये कोई इंसान नही होता। फिर भी ये षान से और पूरी अलमस्ती से खड़े रहते है। बिना किसी षिकवा शिकायत के अपने उपर नुकीली पत्तियों का छाता सा लगाये।
जानती हो। एसे बीराने मरुस्थल में ये दरख्त कैसे जिंदा रहते हैं।
तो सुनो
जब कभी कोई बदरिया अपने ऑचल के सारे जल को किसी पहाड़ या तराई पे बरसा के या कहो लुटा के फिर से सागर की ओर जा रही होती है। और उसका रहा सहा जलकण सूरज भी सूख चुका होता है। उसी छूंछे बादलों से ये पेड़ सूरज की रोशनी से ही कुछ जल चुरा लेते हैं। और फिर षान से जिंदा ही नही रहते बल्कि अपने अंदर भी मीठा मीठा जीवन रस पैदा करते और संजोते रहते हैं।
यही रस रात भर ऑसू की तरह बहते रहते हैं, चुपके चुपके धीरे धीरे ताकि किसी को एहसास न ही उनकी बीरानी का उनकी तंहाई का। लेकिन जमाने वाले उसे भी हंड़िया में बूंद बूंद भर लेते हैं।।और सुबह पीते हैं जिसे ताड़ी कहते हैं। और जानती हो उस ताड़ी में हल्का हल्का मीठा मीठा सा नशा होता है। जो धूप चढ़ने के साथ साथ और भी ज्यादा बढ़ता जाता है। इसके अलावा ये दरख्त उसी जल कणों से खजूर जैसे मीठे फल भी उगा लेते हैं। ये सीधे पर थोडे़ से तिरछे खड़े होकर किसी थके व तपे मुसाफिर को घनी छांह भले न दे पाते हों पर वे ताड़ी जैसा नशीला पेय और खजूर सा मीठा अम्रततुल्य फल जरुर देते हैं जो इस रेगिस्तान के मुसाफिरों के लिये वरदान है।
बस इसी तरह मै भी अपनी महबूबा और चाहने वालों से दूर चाहे कितनी दूर रहूं। पर उनकी यादों और फोन कॉलों से प्रेमरस खींचता रहता हूं और जिंदा रहता हूं।
लिहाजा मेरी बातों को ताड़ी और कविताओं को खजूर जानो।
बाकी तो एक पहाड़ हूं जो टूट टूट कर रेजा रेजा बिखर चुका है किसी रेगिस्तान की तरह।
तो दोस्त यही मेरा परिचय है। यही मेरी कहानी। यही सक्षेंप है और यही विस्तार। अब इन बातों से तुम क्या मतलब निकालती हो क्या समझ पाती हो ये तो मुझे नही पता पर मेरे जीवन का बस इतना ही सच हो और इतना ही अनुभव है।
खैर --- दोस्त उधर बाहर बादल किरणों से लड लड के थक चुके हैं और अब तितर बितर कर आसमान मे न जाने कहां विलीन हो चुके हैं या फिर से समुंदर की सतह पे डुबकी लगा रहे हैं फिर से उर्जा इक्ठठा करने के लिये फिर से बादल बन के बरसने और उडने के लिये, सूरज से ऑखॅ मिचौली करने के लिये।
और इधर मेरा भी मन इन शब्दों को कागज पे उकेर के अपनी बातें तुमसे कह के उहापोह के बादलों से निकल सूरज सा चमकने लगा है।
इसी चमक के बीच घडी की सूई दिन के दूसरे कामो की आवाज लगा रहा है।
लिहाजा तुम्हो अगले पत्र के जवाब तक के लिये कलम को विराम देता हूं। शुभ दिवस ...
तुम्हारा दोस्त
एक बी मित्र कहानी की चौथी कड़ी
दोस्त,
सच आपके शब्दों मे जादू होता है। प्यार, स्नेह, दोस्ती की सोंधी सोंधी महक होती है अपनेपन की गमक होती है। जो एक एक लफज के साथ दिलों दिमाग पे बरसती रहती हैं। आपके खत पढती हूं तो ऐसा लगता है मानो तपते हुये रेगिस्तान मे बहुत दिनो बाद बरसती हुयी बारिस की फुहारें हो। सच .... दोस्त तुम जितना प्यारा लिखते हो चीजों को महसूसते हो उसे पढ के मै ही नही कोई भी नही मान सकता कि, ये षख्ष कभी पत्थर दिल रहा होगा जो रेजा रेजा बिखर के रेगिस्तान बन गया है। अगर ये बात कुछ हद तक सच भी होगी ‘जो की नही है’ तो भी इतना यकीं है इस सहरा मे इस मीलों फैले रेगिस्तान की जमी के भीतर भीतर जल का मीठा सोता जरुर हरहराता है वरना शब्दों मे बातों मे भावों मे इतनी तरलता इतनी मिठास न होती दोस्त। ‘माफ करना मैने भी तुम्हे तुम लिख दिया’ दिल नही माना आप लिखने को’ कारण मुझे पता नही ................
कल तुम्हारा खत पढ के काफी देर तक रोती रही रोती रही न जाने क्यूं। तुम्हारा खत पढ के लगा कि हर एक इंसान के दिल मे एक रेगिस्तान फैला होता है। जिसमे नंगे पांव न जाने किस मंजिल की तलाष मे फिरा करता है और एक दिन अपनी चाहतों की प्यास लिये दिये उन्ही रेतीली जमीं पे दम तोड देता है।
सच दोस्त तुम इतना डूब के कैसे लिख लेते हो। तुम्हारी कलम को नमन है।
दोस्त जी तो करता है तुमसे बतियाती रहूं बतियाती रहूं जब तक की सब कुछ कह न दूं, जब तक कि शब्द साथ न छोड़ दे कुछ कहने को रह न जाये। बस एक स्वप्निल मौन मे डूब न जाउं, पर जब तुमसे बतियाने के लिये तुमको लिखने की कोषिष करती हूं तो सारे के सारे बिचार उत्तेजना की लपट मे कपूर की तरह उड जाते हैं और बस ..... आस पास रह जाती हैं तुम्हारे शब्दों की महक गमक जिसमे देर तक महमहाती रहती हूं। बिना कुछ सोचे बिना कुछ लिखे बिना कुछ करे।
दोस्त यह सच है इन्सान मुहब्बत के बिना नही रह सकता। मुहब्बत ही है जो इन्सान के लिये हवा पानी और भोजन के बाद सबसे जरुरी तत्व है।
इस मामले मे आप की क्या सोच है, ये आप से सुनना अच्छा लगेंगा।
उम्मीद हे आप हमारी इस बात का जवाब देंगे।
बस ... अब आफिस रही हूं अपने दाना दुनके की तलाश मे।
तुम्हारी दोस्त
दोस्त,
तुमने जिस तरह से मेरी तारीफ लिखी है मुझे नही लगता कि मै इस काबिल हूं। हां ये जरुर है कि मेरी कोषिष रहती है कि किस तरह से लोगों की भावनाओं को बिना चोट पहुंचांए सम्बंधो को न सिर्फ बनाये रखा जाये बल्कि मजबूत और मजबूत करते रहा जाये। खैर ....
पत्र मे तुमने ‘प्रेम’ के सम्बंध के सम्बंध मे मेरी राय जाननी चाही है। इस सम्बंध मे सिर्फ इतना ही कहूंगा कि ‘प्रेम’ तत्व को कौन जान सका है। जिसने प्रेम को जान लिया उसने खुदा को जान लिया। वैसे भी जानने वालों ने कहा है ‘मुहब्बत’ खुदा का दूसरा नाम है। और खुदा को कौन जान सका है।
दोस्त फिर मेरे जैसा अदना इंसान क्या कुछ जान पायेगा।
इतना तो तुम भी जानती होगी कि आज तक ‘प्रेम’ को ले कर जितना कहा और लिखा जा चुका है उतना कोई और दूसरा विषय संसार मे कोई नही है। फिर भी यह ‘प्रेम’ तत्व आज तक अपरिभाषेय ही रहा आया है।
मेरे देखे भी तो प्रेम सिर्फ जिया जा सकता है। प्रेम मे सिर्फ हुआ जा सकता है। प्रेम के संदर्भ मे कुछ इशारे जरुर किये जा सकते हैं पर इसे पूरा का पूरा बयां नही किया जा सकता। क्योेकि एक बात और जान लो जब षब्द मौन हो जाते हैं तब प्रेम मुखरित होता है। लिहाजा तुम भी इसे सिर्फ गूंगे के गुड सा स्वाद तो लो पर बखान मत करो, वैसे तो कर भी नही पाओगी। और, अगर कोषिष किया भी तो कोई खाश नतीजा नही आने वाला।
चुकि तुमने इस संदर्भ मे मुझसे कुछ कहने को कहा है तो मैने आज तक जो कुछ भी ‘प्रेम’ के बारे मे सुना है, पढा है अनुभव किया है उसे तुम्हे पूरी ईमानदारी से बताने की कोषिष करुंगा।
तो दोस्त सुनो ........... सबसे पहले इस प्रेम तत्व को समझने के लिये हम भारतीय वांगमय के सबसे पुराने दर्षन पे जाते हैं और देखते हैं येह इस संदर्भ मे क्या कहता है।
सांख्य की माने तो आदि तत्व ‘महतत्व’ दो तत्वों का योग है। महायोग। जो दो होकर भी एक हैं और एक होकर भी दो हैं। यानी ‘अद्वैत’। वही अनादि तत्व प्रक्रिति और पुरुष जब कभी परासत्ता की क्री इक्षावशात या यूं ही लीलावषात किसी विक्षोभ यानी रज; यानी क्रिया करती है तभी यह प्रक्रति और पुरुष अलग अलग भाषते हैं अलग अलग जन्मते और मरते हैं। अलग अलग जातियों में अलग अलग रुपों में। लेकिन ये दोनो अनादि तत्व एक बार फिर से एक ही होने की अनुभूति के लिये भटकते रहते हैं। उसी रज; यानी क्रिया के कारण जो किसी इड़ा की तरह श्रद्धा यानी प्रक्रिति को पुरुष यानी मनु से मिलने नही देती। कारण रज;यानी क्रिया का भी अपना आर्कषण है अपना प्रभाव है। इसलिये कहा जा सकता है जबतक क्रिया का आर्कषण कायम रहेगा तबतक श्रद्धा व मनु एकाकार नही हो पाते बार बार मिलने के बावजूद।
इसी बात को तंत्र इस तरह कहता है। आत्म तत्व जब परमात्म तत्व से अलग हुआ ‘अहं’ के रुप में तो उसी वक्त उसका प्रतिद्वंदी ‘इदं’ तत्व भी अलग हुआ था। पहला पुरुष प्रधान दूसरा स्त्री प्रधान। दोनो ही तत्व दो रुप एक ही सत्ता के अलग अलग दिषाओं में जन्म लेने लगे अलग अलग रुपों में फिर से एक बार मिल जाने की ख्वाहिष में।
जब कभी दोनो खण्ड एक दूसरे से फिर से एक बार मिल लेते है। तब एक अदभुत घटना घटती है। उसे ही कहते हैं राधा व कान्हा का मिलन। राम व सीता का मिलना। या फिर हीर का रांझा से मिलना या कि किसी सोहनी का महिवाल से मिलना।
तो मेरे हिसाब से ‘आत्म खण्ड’ के इन हिस्सों ‘इदं’ और ‘अहम’ के आपस मे दुबारा मिलने की जो तडप होती है और जो उसके लिये प्रयास किये जाते हैं उसी का नाम ही ‘प्रेम’ है।
इसको अब इस तरह से भी समझो।
‘प्रेम’ षब्द में हम यदि ‘प’ से प्रक्रति और ‘र’ से रवण यानी क्रिया व ‘म’ से पुरुष का बोध लें तो यह बात बनती है कि जब प्रक्रिति, पुरुष के साथ रवण या क्रिया करती है तो जीवन की जडों में एक धारा प्रवाहित होती है। जिसे ‘प्रेम’ की संज्ञा दी जा सकती है। यह प्रेम धारा ही उस जीवन को पुष्पित व पल्लवित करती रहती है साथ ही पुर्ण सत्य के खिलने और सुवासित होने देने का अवसर प्रदान करती है। यह धारा जीवन के तीनो तलों षरीर, मन और आत्मा के स्तरों पर बराबर प्रवाहित होती रहनी चाहिये। यदि यह धारा किन्ही कारणों से किसी भी स्तर पर बाधित होती है तो जीवन पुष्प या तो पूरी तरह से खिलता नही है और खिलता है तो षीघ्र ही मुरझाने लगता है।
यही रस धार यदि प्रथम तल तल पर रुक जाती है तो उसे वासना कहते है। यदि यह मन पर पहुचती है तो उसे ही लोक भाषा में या सामान्य अथों में ‘प्रेम’ कहते हैं। और फिर जब यह रसधार आगे अपने की यात्रा पर आत्मा तक पहुंचती है तब उसे ही ‘सच्चा प्रेम’ या आध्यात्मिक प्रेम कहते हैं। और उसके आगे जब ये रसधार गंगासागर में पंहुचती है तो वह ही ब्रम्ह से लीन होकर ईष्वर स्वरुप हो जाती है।
प्रेम जब प्रथम तल पे होती है तो वह कामवासना के रुप मे फलित होती है। जब वह सूक्ष्म षरीर की तरफ बढ़ती है तो प्रेम का रुप ले लेती है और जब यही प्रेम की धारा शरीर के तीसरे कारण शरीर को छूती है तब वह भक्ति बन जाती है।
तभी तो रामक्रष्ण परमहंस अपनी पत्नी को मॉ के रुप मे ही देख पाये और वे दुनियावी तौर पे कभी पति पत्नी की तरह नही रहे।
और इसी तरह मीरा का भी पेम क्रष्ण से कारण षरीर तक पहुंचा हुआ प्रेम है।
लिहाजा प्रेम को समझने के लिये हमे अपने षरीर के तीनो तलों तक की यात्रा करनी होगी तभी हम कुछ समझ पायेंगे उसके पहले तो सब कुछ वितंडामात्र है बातीं का खाली लिफाफा है। जिससे कुछ हासिल नही होने वाला है।
प्रेम जब पहले तल पे होता है तो सिर्फ प्रेमी के शरीर से मतलब होता है। वह उसे सुन्दर से सुन्दर देखना चाहता है। उसे भोगना चाहता है।
दूसरे तल पे वह सिर्फ देना चाहता है। इस तल पे प्रेमी शांति को उपलब्ध होते हैं और तीसरे तल पे आनंद को उपलब्ध होते हैं।
दोस्त हम इस इस संदर्भ मे आगे चर्चा करेंगे फिलहाल इतना ही।
तुम्हारा दोस्त ...............

Tuesday, 23 August 2016

ख़त मेरे महबूब ------------------

ख़त मेरे महबूब ------------------

ख़त मेरे महबूब ------------------
मेरे महबूब,
यह ख़त नही, गुफ़तगूं है।
जो की गयी है,
बोगनबेलिया, कचनार और गुलाब की कतारों से।
अषोक, देवदार और युकलिप्टस के उंचे उंचे लहराते पेडों से।
तुम्हारी यादों से
ये वो बातें हैं, जो गुपचुप गुपचुप की गयी हैं।
खामोषी की उन गहराइयों से।
जो इस पहाड़ की अतल गहराइयों से
प्रतिघ्वनित हुयी है।
वेद की ऋचाओं सी या कुरान की पाकीजां आयतों सी।
यह वह पवित्र एहसास  है।
जो  महसूस गया है।
इन पेड पहाड़ पगड़ंड़ी घास फूस
कोैवे गिलहरी सांप गोजर और ग्रामवासियों
के बीच फ़ैली रहने वाली अनवरत खामोशी के साथ।
जिसे कभी
कोई झींगूर की सूं सूं या दूर चलती पनचक्की की पुक पुक
या किसी बैलवाले की र्हड़ र्हड़ ही तोड़ पाती है।
उसी खामोषी को कैद करने की कोषिष की है।
लिहाजा .... मेरी जानू
मेरी अच्छी जानू ....
कई दिनो की जददो जहद के बाद तुम्हे खत लिखने का साहस कर पाया हूं। यह जददो जहद किसी और से नही अपने आप से थी। यह जददोजहद अपने विचारों से अपने सिद्धांतों से थी। इन दो तीन दिनो मे न जाने कितने विचारों के बवंडर आये और चले गये। कलम उठायी और फिर रख दी। दो चार लाइने लिखी और फिर काट दी। कभी कोई बात बनती कोई विचार आकार लेता पर फिर थोडी देर बाद ही रेत की लकीरों सा न जाने किस बवंडर मे मिट जाता।
पर पता नही कौन सी ऐसी कशिश थी। या कि रुहानी ताकत। या कि तुम्हारी मुहब्बत। जिसने मुझ जैसे आलसी और काहिल आदमी को भी यह खत लिखने के लिये मजबूर कर ही दिया।
हालाकि एक बात और। मै नही जानता इस वक्त तुम कहां हो। कैसी हो और क्या कर रही हो। मुझे याद करती हो भी की नही।
और याद करती भी होगी तो किस रुप मे, कह नही सकता।
पर इतना जरुर जानता हूं कि यह यह खत जो मै तुम्हे इतने प्रेम से लिख रहा हूं कभी नही भेजूंगा कभी भी नही। इसके सारे राज सीने मे दफन ही  रहेंगे। या कि जिंदगी की किताब मे किसी मुरझाये फूल सा दब के रह जायेगे।
खैर छोडो इन सब बातो को ----
हां बात शुरू हो ही गयी है तो मै भी हर लिखने वालों की तरह या नये मिलने वालों की तरह अपनी बात मौसम के तष्करे से करना चाहूंगा।
कल्पना करो।
चारों ओर पहाड़ है। जो गर्मी मे नंगे खड़े रहते है। शीशे से चमकते । और वही पहाड़ बरसात मे हरी घास और पदों से लदे फंदे मदमस्त हाथी से खडे़ हो जाते है। जैसे आज खड़े हैं।
कल्पना को आगे बढ़ाओगी तो देखोगी। 
इन्ही पहाड़ों के बीच मे बड़ी सी टेबल लैंड़ है,  इसी टेबल लैड़ मे कुछ मकान है। आस पास गांव है। थोड़े से रहवइया है। हमारी तरह।
समझ लो एैसा लगता है। मानो एक हरे भरे बड़े से  कटोरे के तली मे कुछ बौने रह रहे हों, और ये बौने उछल उछल कर अक्सर इस कटोरे की दीवार को फांदना चाहते है पर फांद नही पाते। अपनी कम उंचाई और छोटे छोटे हाथो से। उन्ही बौनों  मे से एक बौना मुझे भी समझो। जो अक्सर इन पहाड़ की दीवारों मे कैद तुम्हारी यादों के सहारे सिसकता रहता है जीता रहता है। इस उम्मीद से कि कभी तो वक्त आयेगा। जब तुम मुझे ढूंढ़ती ढूंढती यहां आ जाओगी या तो मै ही कभी इन पहाड़ों के पार आ सकूंगा और मिल सकूंगा अपनी स्नोव्हाइट से।
तो, मेरी स्नो व्हाइट।
तुम सोंच रही होगी । यह कैसा चाहने वाला है जो प्यार मुहब्बत की कसमे वादे  छोड़ न जाने किस खब्तपना की बाते करने बैठ गया।
क्या करुं। मेरी सोणी। मेरी महिवाल।
यहां रहते रहते। इन वादियों मे इन खामोशियों मे। इस जंगल मे। इन कौवे, गिलहरी सांप गोजर खरगोश  के बीच अपने आप को इन्ही की तरह ढ़ाल लिया है अब तो यही हमारे मित्र है दोस्त हैं सखा सहोदर हैं नातेदार, रिश्तेदार है।
जब कभी अपने आपको उदास पाता हूं तो किसी भी आम अमरुद चीड़ या देवदार के तने से लिपट रो लेता हूं । लड़ना झगड़ना भी रहता है तो इन अपढ़ निपट ग्रामवासियो से लड़झगड़ लेता हूं। गाली गलौज कर लेता हूं।
या कि कभी ज्यादा अकेलापन महसूसने लगता है। तो गांव की उतरी कच्ची चढ़ा लेता हूं और फिर मस्त मगन हो नाचता गाता और उछलता कूदता इन्ही वादियो मे ढे़र हो जाता हूं। सुबह होने तक के लिये।
हो सकता है तुम्हे यह बात पसंद न आये।
पर मुझे मालुम है तुम मेरी बहुत सारी गुस्ताखियों की तरह इसे भी बरदास्त कर लोगी।
मेरी अच्छी जानू।
जहां मै रहता हूं वह जगह देखने और रहने के लिये बहुत ही मुफीद है। हो सकता है दुनिया से दूर इस जगह को तुम न पसंद करो। पर एक बात जान लो आज दुनिया मे कहीं कुछ भी ऐसा नही हो रहा है जिसको न जानने से आदमी की खुशी मे कोई कमी रह जाती है।
हो सकता है तुम मेरी बात से इत्तफाक न करो पर। जब कभी उजेले पाख की गहन नीरव रातो को । इस मैदान मे। तनहाइयों के साथ इन झींगुरो का झन झन संगीत सुनता हू। या इन अनंत चमकते तारों को देखता हूं तो न जाने क्यों इस सब को बनाने वाले उस कुशल  चितेरे की सूझ बूझ और सौंदर्य परकता पे मन रीझ रीझ जाता है। शिर सजदा करने के लिये अपने आप ही झुक जाता है। सोचता हूं तो यह कहना ही पडता है जिसकी रचना इतनी सुंदर वह कितना सुंदर होगा। सच तारों से भरी रात हो या अमावस की काली कजरारी रात, सभी कुछ तो मनभावन होता है। मगर शर्त  है यह सब तुम्हे मेरी आखों से देखना होगा।
यहां की अंधेरी और सूनी रात जब चुपके चुपके बतियाती है तो बहुत बतियाती है। हां। यह जरुर है उसका बतियाना षब्दों मे नही होता। वह होता है पेड़ों की सूं सूं मे भौरों  की भन भन मे। पपीहे की टेर मे। या कि एक गहन मौन संगीत की तरह। जिसे कोई योगी या साधक ध्यान मे सुन पाता है। सोहम की तरह। या कोई भक्त तुकाराम के अभंग की तरह। या कोई मीरा कान्हा की बांसुरी की तरह।
मेरी बुलबुल। ऐसा हरगिज नही, कि इन वादियों की बेपनाह खूबसूरती मे डूब मै तुम्हारे गुलाबी होंठ, गाल और मदमस्त अदाओं को भूल गया हूं। मुझे तुम्हारी हर बात हर अदा तुम्हारे साथ बिताये एक एक पल जेहन के किसी कोने मे मौजूद रहते है। जो हर सांस के साथ। अपनी मौजूदगी बनाये रखते है।
सच तुम्हारी यादें ही तो है। जो सतत जिंदगी के अलाव को जलाये रखती है। धीमे धीमे। सोंधी सोंधी उपले की महक के साथ। जानती हो अलाव की राख आसानी से नही बुझती और नही कम होती है। वह अंदर ही अंदर सुलगती रहती है बड़ी देर तक। उसी तरह तुम्हारे साथ की यादें दिल की राख मे कैद है।
जानती हो सोनम। यहां बरसात मे बादल बहुत नीचे तक आ जाते है। यहां तक की इतने नीचे कि कभी कभी तो पहाड़ की फुनगी से उतर कमरे और विस्तरे तक आ जाते है। लगता है जैसे हम उड़ रहे हों। चल रहे हों बादलो के बीच। बस एक उड़न खटोले की दरकार रहती है।
काश हमारे पास एक उड़न खटोला होता तो तो कितना अच्छा होता। तुम जब चाहे नदी नाले और इन पहाडों को पार कर मेरे पास आजती और इन वादियों के अलमस्त मौसम मे हम दोनों रहगुजर होते। या कि मै खुद तुम्हारे पास आ आ कर तुम्हारी द्यनी अलकावलियों से हौले हौले छेड छाड कर चुपके से चला आता।
चलो छोडो, जो हो नही सकता उसकी क्या बाते करना।
जानती हो। सावन मे जब मेघ अपनी पूरी मस्ती मे उफान मे उछल कूद करते बरसते है। एक दूसरे से टकरा टकरा कर हरहराते हैं, तो इन पहाड़ो की चोटियों से एक एक कर बावन झरने झर झर बरसते है। उनमे से एक तो रिवर्ष वाटरफाल है। उसकी बौछारें हवा के झोंको से ऊपर की ओर उछल कर फिर नीचे की ओर जाती है। कितना खूबसूरत और लुभावना समॉ होता है। मानो कोई नवेली नहा के जुल्फें झटक रही हो। और जिसे किसी कैमरे कविता कहानी कहीं भी कैद नही किया जा सकता। उसे तो सिर्फ देखा और महसूसा जा सकता है। जिया जा सकता है। सांस सांस नशे मे उतारा जा सकता है। सच ऐसे मे तुम होती तो कितना अच्छा होता। कितना सोणा होता।
जानम। तुमको याद हो कि न याद हो। पर याद करोगी तो याद भी आजायेगी। उस दिन की जब हम दोनो। किसी गरम दिन की चिपचिवे मौसम मे। बरामदे मे बैठ बतिया रहे थे और मै तुमसे कह रहा था। कि मै चाहता हूं। कि मेरे पास सिर्फ एक कमरा हो। झोपडी नुमा। जिसमे मात्र जरुरत भर की चीजें ही तो भी चलेगा। बस जहां यह झोपडी हो वहा का वातावरण सुहाना और षांत हो। जहां मै एकांत मे रह सकू ओैर पढ सकूं। अपने पसंदीदा लेखको को और सोच विचार कर सकूं अपने तरीके से।
और जानती हो। वह सपना उम्र के इस मुकाम पे इस तरह आके पूरा होगा। मालुम भी न था।
यहां मेरे पास रहने के लिये दो कमरे का एक मकान है । जिसकी छत स्लोप लिये है जो बाहर से झोपडी की ही तरह लगता है। कमरे मे मेरे पास समान के नाम पे भी ज्यादा कुछ नही है और मुझे ख्वाहिष भी नही है। बस समझ लो कि एक साधरण सा पलंग। एक मोटा गददा। एक लिखने पढने की मेज। एक टी वी जो कभी कदात ही खुलती है। कुछ जरुरत भर के बरतन वा कपडे। बस यही मेरी ग्रहस्थी है। बिना ग्रहिणी के ?
मेरी चुनमुन।
जानती हो, अगर यहां के लोगों की माने तो, जहां मै रहता हूं। उन्ही पहाड़ोके ऊपर से रावण सीता को अपने उडन खटोले पे उठा ले जा रहा था। तभी सीता जी का कोई एक गहना गिरा था। वह जगह मेर रहने के जगह के आस पास की बतायी जाती है।
एक बात और जो मैने सुना है कि यह जगह शापित जगह है
तुम इन बातो को सुनकर क्या प्रतिक्रिया करोगी मुझे नही मालुम। पर इन बातों को सुनकर अच्छा जरुर लगता है। थोड़ी  देर को रोमांच भर आता है।
जबसे मैने सुना है तब से अक्षर अकेले ही इन पहाडों पे टहल टुहल आता हू। यह सोंचते हुए कि इन अनादि पहाडो पे न जाने कितने जानवरो। आदमियों के कदम पडे हांगे। न जाने कितनी बरसाते और धूप झेली होंगी इन चटटानों ने। न जाने कितने गांव दिहात बसे और उजडे होंगे। न जाने कितने काले कलूटे व गठीले आदिवासी तीर कमान से इन्ही जंगलों पहाड़ों के चप्पे चप्पे को छाना होगा शिकार किया होगा फिर थक,आग जला कर अपने षिकार से पेट भरा होगा महुआ की उतारी शराब पी के रात रात भर नाचा होगा। फिर इन्ही पेड़ों के झुरमुट के पीछे या झोपड़ी मे गुत्थम गुत्था हो के तन मन की आदिम भूख से निजात पायी होगी। सच दृ
मेरी छोनी छोनी सोणी। इन हरे भरे जंगलों व पहाड़ों के बीच मे एक ड़ैम भी है जिसका नीला गहरा पानी दूर तक शांत रहता है। इस गहरे नीले पन मे भी एक गजब का आर्कषण है जादू है जो देर तक व दूर तक बांधे रहता है। रोज तो नही अक्सर इस ड़ैम के किनारे किनारे न जाने कहां तक चलता चला जाता हूं। कभी कभी तो सूरज के उगे रहने पर ही चलना शुरु करता हूं और चांद के उग आने तक चलता ही रहता हूं। पर इस मौन  ड़ैम का छोर नही आता । फिर मै चांद की चांदनी से भीगता तारों से बतियाता । अपने ही आप मे मगन कब वापस आता हूं पता ही नही चलता।
कभी कभी लगता है यह ड़ैम भी मुझसे कुछ कहना चाहता है। जिसे मै सुन नही पा रहा हूं। इसी तरह कई बार मुझे ये पहाड़ भी कुछ कहते से नजर आते है। एक बार तो इन पहाड़ों से बड़ी देर तक बतियाता भी रहा।  हो सकता है तुम इन बातों और अहसासों को न समझ पाओ पर सच कहता हूं। क़ायनात का ज़र्रा ज़र्रा आपसे बतियाने को आतुर रहता है बस जरुरत है आपके हां करने की। आपके कानों को उनकी आवाज सुनने देने की। आपके दिलों को उनके दिलों के धड़कनो से मिल जाने देने की। खैर .....
सजनी। अगर मै तुम्हे बताने लगूं। तो इतनी बाते बताने के लिये है। इतनी बातें कि रात भर मे भी खत्म न हो। तो इस खत मे क्या होंगी।
आजकल। बारिसों का मौसम है। लोगों ने धान लगा रखें है। अब धान की पौध को एक जगह से उखाड दूसरी जगह रोपने का काम हो रहा है। हरे भरे पानी भरे खेतों मे पाति के पांत औरतो आदमियों को बोरे या बांस की बरसाती सा ओढे काम करते और गाते देखना बहुत अच्छा लगता है।
मेरी ड़ाल। क्या कभी तुमने आसमान पे उडते उए पक्षियों की पांतो को देखा है। एक के पीछे एक। कभी ये के आकार मे तो कभी हिंदी के सही के आकर मे। जानती हो जब ये चलते हैं तो एक क्रम से एक नियम से। पता नही इन्हे कौन सिखाता है। हो सकता हो इनके अंदर यह सब ज्ञान नैसर्गिक रुप से जन्म से ही प्राप्त होता हो। उसी तरह जैसे उडने के लिए पंख।
अक्षर मै भी तो उडता रहता हू। विचारों मे सपनो मे।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं। उडने का सपना देखना अति महत्वाकांक्षा का प्रतीक है।
पर मुझे तो नही लगता कि मै कोई अति महत्वाकार्क्षी आदमी होंऊ।
हां ज्यादा से ज्यादा पढ लेना और जान लेने की ख्वाहिष जरुर है। यह ख्वाहिष अगर महत्चाकांक्षा की जद मे आती है तो मुझे अपने आपको महत्वाकाक्षीं कहाने मे कोई गुरेज नही है।
वैसे देखा जाय तो मै अपने आप को एक साधारण इच्क्षा व चेतना का आदमी मानता हू।
पर छोडो इन सब बातों को।
मेरी अच्छी अच्छी प्यारी प्यारी मुहब्बत क्या तुम्हे पता है। मुहब्बत ही वह बूटी है वह खाद पानी है जो इंसान को ज़िदा और जीवंत बनाये रखती है। वही तुम मेरे लिये हो मेरी जीवन की बीर बहूटी। तो मेरी बीर बहूटी तुम्हारी खनखनाती हंसी व तुम्हारे आंखों का शरबती पानी ही तो है जिसे इतनी दूर से भी महज यादों के सहारे पी पी के जी रहा हूं।
सच मुहब्बत ही है जो दुनिया को देखने का अंदाज बदल देती है। क्या कभी तुमने उन लोगों को देखा है जिनके जीवन मे मुहब्बत नही होती । कभी देखना। वह कितने क्रूर और भयावह लगते हैं। इसके अलावा ...
सुना। तुम जानती हो किसी से मुहब्बत होने के पांच कारण बताये गये हैं।
पहला नैर्सगिक प्रेम।
यह प्रेम होने का पहला उपादान माना गया है। इस प्रकार के प्रेम पूर्व जन्म के संबंध कारण होते है।
दूसरा सुंदरता से प्रेम। तीसरा गुण से प्रेम। चौथा व्यवहार से प्रेम। पांचवां साहर्चय से प्रेम।
पर जहंा तक मै समझता हूं। तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम मे पांचों कारण उपादान बनते है। षायद यही कारण है मै तुम्हारे प्रति इतना ज्यादा आर्कषण महासूस करता हूं।
सच मेरी रुह तुमने मुझे जितना मासूम और उजला उजला नेह और प्रेम दिया उसकी गमक आज भी मेरे जेहन मे महमह करती है।
तुम्हारा यह नेह ही तो है जिसने बिछडने के इतने दिनो बाद भी न भूलने दिया।
मरी स्नो, तुम्हे तो मालुम ही है। मैने जिंदगी से कभी भी ज्यादा की ख्वाहिष नही की। पेट भर भोजन तन भर कपडे और तुम। हां इन सबके अलावा अगर कुछ और चाहा था तो वह बस अपनी पसंद की किताबें पढना और धयान करना।
और शांत बैठ प्रक्रिति को निहारना और निहारना। बस।
यहां सभी कुछ है। सिवाय तुम्हारे।
सोणी। सिवाय तुम्हारे जिंदगी महज इकतारा है। जिसे अकेले ही इन वादियों मे वर्षों से बजाता आ रहा हूं। तुन्नक तूना। तुन्नक तूना। जिसमे न कोई सुर है न कोई राग। न कोई रागनी। क्योकि मेरी रागनी तो तुम ही हो। तुम ही हो मेरा संगीत।
हालाकि संगीत का क ख ग भी नही जानता पर इतना जानता हूं कि तुम ही मेरा संगीत हो तुम ही मेरी ज़िंदगी हो तुम ही सब कुछ हो सब कुछ यंहा तक कि जीवन भी मृत्यु भी।
हालाकि संगीत की तरह मै यह भी नही जानता कि मुहब्बत क्या है। पर इतना पता है कि तुम मेरे अंदर सांस सांस में समायी हो। जिसकी रगों में तुम्हारी याद ही लहू बन के दौड़ रहा है।
मेरी जाना।
किसी ने कहा है कि मुहब्बत वह चाह है जिसमे रुह और जिस्म मिलने की ख्वाहिष रखते हैं . 
लिहाजा कभी यह मत सोंचना कि मै तुम्हे अपने गले लगाने की चाहत महज जिस्मानी हवस मिटाने के लिये है। नही यह तो वह आदिम चाह है जिसके पूरा हुए बिना मुहब्बत सिर्फ एक ख्वाब बन के रह जाती है।
वही ख्वाब एक दिन न खत्म होने वाले रेगिस्तान में तब्दील हो जाता है और जिसमे आदमी तड़प के अपने आप को खत्म कर लेता है।
खैर ....
इस वक्त रात बहुत गहरा चुकी है। पर नींद कोशो  दूर।
ऐसा ही होता है। अक्सर जब तुम्हारी याद आने लगती है। घंटो सोंचता रह जाता हूं तुम्हारे बारे मे। पर अक्सर ऐसा भी होता है कि बिना किसी कारण के भी नींद नही आती।
ऐसा क्यों होता है। यह तो पता नही पर ऐसा होता जरुर है मेरे साथ।
तब मै होता हूं और मेरी तन्हाई और सिगरेट। जिसकी तबल इस वक्त काफी महसूस कर रहा हूँ ।
सिगरेट सुलगाना। धीरे धीरे उठते धुएं को देखना। फिर लच्छे लच्छे बना छोड़ना। और अंत मे ठुठके को मसल के तो कभी छिटक कर फेंक देना और फिर होंठों को गोल कर सीटी सी आवाज निकलते हुए किसी उलजलूल काम मे लग जाना। आदत रही है।
हालाकि इस वक्त सिगरेट पीने के बाद क्या करुंगा। कह नही सकता। हो सकता है लिहाफ ओढ कर सों जाऊ। हो सकता है अंधेरे मे यू ही उल्लुओं सा बैठा रहूं। काफी देर। हो सकता है चाय या कॉफी बना धीरे धीरे चुस्कियां लेता रहू। और फिर नयी सिगरेट के स्वाद की कल्पना करता रहूंगा। हो सकता है किसी पढी या अनपढी किताब के पन्नो को उलटता पलटता रहूंगा। काफी देर तक। नींद न आने तक।
मेरी जॉन। तुम मेरी इन आदतो से यह न समझ लेना की मै एक बीमार और खब्ती आदमी हू। हालाकि यह तय जरुर है कि मै इस उम्र मे इस मुकाम पे आके एक खब्ती और बीमार आदमी ही बन गया हूँ ।
खैर पर छोडो मेरी इन बेवकूफियाना हरकतो को। हालाकि इन बेवकूफियों और बेहूदा हरकतो को मैने सूफियाना अंदाज देने की कोषिष की है।
वैसे एक बात बताऊं तुम्हे। मुझे न जाने क्यो सूफी दरवेश  पीर पैगम्बर औलिया लोग आकर्षित करते रहते रहे हैं।
खास कर सूफी लोगो की मस्ती दिल तक उतर जाती है।
पता नही क्यों मुझे सूफियों का लिबास और उनकी वेषभूषा आकर्षित करती है। हो सकता है किसी दिन तुम मुझे भी इसी रुप मे टहलते घुमते देखो। भले ही वह घूमना फिरना घर के ही अंदर हो।
वैसे भी मै कोई फकीर बन जाऊं, साधू बन जाऊं या पागल दिवालिया कुछ भी हो जाऊं। उससे तुम्हे क्या फर्क पडने वाला है तुम तो अपनी दुनिया मे खुश हो और रहोगी। हालाकि अब मेरी भी यही चाहत है। तुम जहां भी रहो खुश रहो।
मै अच्छी तरह महसूस कर रहा हूं। जो तुम महसूस करोगी इस ख़त को पढ़ते हुए।
तुम सोच रही होगी कि आज इस बुढ़ापे मे। इतनी संजीदगी। इतनी इष्काना बाते कर रहा हू। जो उस वक्त कहनी चाहिये थी जब वक्त था। या कि जब हम जवान थे। तो मेरी जानू। क्या करुं चाहा तो बहुत था यह सब उस समय भी कहना पर पता नही क्यों तुम्हारे सामने आते ही मेरे सारे शब्द खो से जाते थे। सारी हिम्मत जवाब दे जाती थी।
वैसे अगर यह बात आज भी लिखने की जगह कहना पडे तो शायद मै न कह पाऊं।
अब इसे तुम मेरी कमजोरी समझो या मजबूरी।
तुम सोंच रही होगी कि एक तो इतने सालों कोई खोज खबर नही कोई बात चीत नही पर अब जब बात शुरू की तो खत्म ही नही होने पे आरही। तो क्या करुं, जाना मेरे अंदर भी पता नही क्यों अजीब अजीब आदतें आती जा रही हैं। जिनके बारे मे मैने अपने हालिया खतम किये उपन्यास मे विस्तार से लिखा है। जानती हो उस उपन्यास को क्या नाम दिया है ‘एक बोर आदमी का रोजनामचा’। मै जानता हूं तुम यह नाम पढ कर हंस रही होगी कि। जो बात सबको मालुम है उसे लिखने की क्या जरुरत थी।
मेरी किलयोपेट्रा, आदमी को अगर समाज मे रहना हो तो समाज के नियम और कानून भी मानने होंगे। चाहे मजबूरी हो या खुषी। लिहाजा मै भी इधर कई महीनों से ऑफिस व परिवार की झंझटों मे फंसा था। लिहाजा चाह कर भी तुमसे नही बतिया पा रहा था। भले ही यह बतियाना आज की तारीख मे आत्मालाप के सिवा कछ भी नही है। पर फिर भी वह भी नही कर पा रहा था।
मैंने सोचा है अब से रोज तुम्हे खत लिखूंगा भले ही एक लाइन लिखूं या एक शब्द । अपने वायदे पे कहां तक टिक पाता हूं यह तो वक्त ही तय करेगा। पर पता नही क्यों जब तुमसे दो दो बातें हो लेती हैं। तो एकषुकून सा जेहन मे उतर आता है।
अच्छा एक बात बताओ कहीं ऐसा तो नही कि तुम मेरी बातों से बोर हो रही हा। पर क्या करुं आदत से लाचार हूं। जैसा की मैने बताया ही है। कि मै एक बीमार और बोर आदमी हूं।
और जब तुमने एक बोर और बीमार आदमी से दिल लगाया है तो उसको सहो।
सखी, क्या तुम्हे याद है वह पहला दिन जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था। बॉब कट बाल। बालों मे कलरफुल स्कार्फ । फूले फूले सेब से गाल। गालों मे पडता गढढा, और गहरे रंग की कलरफुल फ्राक। पैरों मे जूते मोजे से लैस। हल्के और गहराते जाडे की धुंधलकी शाम मे तुम घर के सामने वाले मैदान मे अपनी हमउम्र सहेली के साथ खेल और गा रही थी। दूर मै खडा तुमको एक टक देख रहा था। पर तुम इन सब से बेखबर अपने मे मस्त मगन खेल और गा रही थी। धीरे धीरे सांझ का झुटपुटा बढता गया और अचानक घर से तुम्हे पुकारने की आवाज सुन कर तुम अपनी सहेली के साथ उछलती कूदती अपने घर को चली गयी। और मै वहीं ठगा खडा रह गया था।
तुम्हारी वही मासूमियत तो है जिसकी याद मे मै आज भी ठगा सा खडा हूं।
इन पहाड़ो और घाटियों मे। और अब तो न जाने कितनी घाटियां मेरे सीने मे दफन हैं। अपनी तमाम ऊँचाइयों को लेकर। ठीक उसी तरह जैसे समुद्र की तलहटी मे न जाने कितने पर्वत आज भी समाधिस्थ हैं।
सुमी। हो सकता है तुम्हे मालुम हो कि न हो। पर यह भौगोलिक सत्य है कि हिमालय भी कभी समुद्र की गहराइयों मे खोया था। जो आज अपनी उतुगं चोटियों को फहराते शान से खडा है। खैर ...

मेरी मुहब्बत का हिमालय कब अपनी ध्वजा फहरायेगा। यह तो पता नही पर कई बरसों से यहीं समाधिस्थ हूं। तुम्हारी ही याद के सहारे।
और आगे न जाने कितने बरसों के लिये। शायद युगों युगों के लिये।

तुम्हारा।

Monday, 22 August 2016

मैं खुशबू सा बिखर जाऊँ तो

मैं खुशबू सा बिखर जाऊँ तो
तेरा जिस्म छू कर आऊँ तो

हज़ारों हज़ार ग़म लेकर भी
हर वक़्त  हँसू मुस्कुराऊँ तो

तू चाँद है तेरा वज़ूद चाँदनी 
रात बन के लिपट जाऊँ तो

क्या मुझको गले लगाओगे
किसी रोज़ तेरे घर आऊं तो  

क्या मुझको वेणी में गूँथोगी
फूल बन कर खिल जाऊँ तो

मुकेश इलाहाबादी -------------

Friday, 19 August 2016

समंदर बादल बन जाये तो भी क्या होगा

समंदर बादल बन जाये तो भी क्या होगा
कुछ  दिन बारिश होगी फिर  सूखा होगा

आज तुम मेरे घर आये तो रौशनी सी है
तेरे जाने के बाद फिर गुप्प अँधेरा होगा

तुमने हाले दिल पुछा, साँस चलने लगी
तुम्हारे जाने के बाद न जाने क्या होगा?

रात महताब रो रहा था सितारे रो रहे थे
फ़लक़ से ज़रूर कोई सितारा टूटा होगा ?

यूँ तो फितरत नहीं मुकेश की रोने की,
ज़रूर किसी ने दिल उसका दुखाया होगा

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

Thursday, 18 August 2016

चाँद मुझे आग का गोला लगता है

चाँद मुझे आग का गोला लगता है
तुझ बिन गुलशन सहरा लगता है
कहीं जाऊं कहीं आऊं कहीं बैठूँ ??
तुझ बिन जग सूना-सूना लगता है

मुकेश इलाहाबादी ------------------

रात ऑगन में चॉदनी नही आती

रात ऑगन में चॉदनी नही आती
मेरे चेहरे पे अब हंसी नही आती
मीलों फैला रेगिस्तान हो गया हूं
मेरे घर तक कोई नदी नही आती
मुकंश तू भी मुझको भूल गया है ?
अर्सा हुआ तेरी चिठठी नही आती
मुकेश इलाहाबादी .................

रात, नींद तो नहीं आई,

रात,
नींद तो नहीं आई,
आप के ख्वाब ज़रूर आये
रात से अब,
कोई  शिकायत नहीं
मुकेश इलाहाबादी -----------

 

Wednesday, 17 August 2016

तू फूल की मानिंद खिल और खुशबू सा महक

तू फूल की मानिंद खिल और खुशबू सा महक
या परिंदा बन कर , मुंडेर पे बुलबुल सा चहक

वज़ूद में अपने यूँ बर्फ सा ठंडापन मत रख तू
पहले शोला बन फिर अंगारा सा देर तक दहक

मेरी चाहत है तू इक दिन तू महताब बन जाये
चाँद बन कर मेरी अंधेरी स्याह रातों में चमक

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

देर तक सोचता हूँ फिर लिखता हूँ

देर तक सोचता हूँ फिर लिखता हूँ
तुझको ख़त लिखता हूँ मिटाता हूँ  
कभी उठता हूँ ,कभी बैठ जाता हूँ
जैसे तैसे मैं रातों दिन बिताता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ---------------

नींद आये तो, तेरा ख्वाब रहता है

नींद आये तो,  तेरा ख्वाब रहता है
आँख खोलूँ तो तेरा खयाल रहता है 
गर तेरी  सूरत देखना चाहूँ मैं  तो
तेरे चाँद से मुखड़े पे हिज़ाब रहता
मुलाकात की इल्तज़ा करता हूँ तो
तेरा हमेशा इंकार में जवाब होता है

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Tuesday, 16 August 2016

फिजॉ


फिजॉ ने बच्चे को स्कूल की बस पे बैठा के घर की तरफ का रुख किया ही था। अचानक एक छोटा बच्चा उसकी हाथ मे एक कागज थमा के यह कहते हुये भाग गया कि ‘आपको ये कागज उन अंकल ने देने के लिये कहा है’ वह कुछ समझ और सम्हल पाती तब तक वह लडका सडक के पार की गली मे न जाने कहां खो गया था। और जिस अंकल की तरफ इषारा किया था उस तरफ भी उसे कोई नजर नही आया।
कागज का पुरजा अभी भी उसकी हथेलियों मे किसी अंगारे सा दबा दहक रहा था। पर वह उस कागज के टुकडे को कुछ डर और कुछ बदहवाषी मे फेक भी नही पा रही थी, और यह भी नही समझ पा रही थी कि वह इस टुकडे का क्या करे।
लिहाजा इसी उहापोह की स्थिति मे उस कागज के टुकडे को हथेलियों मे लिये दिये जल्दी जल्दी घर की तरफ बढ चली। न जाने कव उसके हाथों ने उस टुकडे को अपने कपडों मे छुपा लिया।
और अपनी उखडी सांसों को सहेजते हुये व चेहरे पे उभर आयी बदहवासी को छुपाने के लिये। अपने सिर के पल्लू के आदतन सही किया, आंचल से नाक व माथे पे चमक आयी पसीने की बूंदों को पोछा और सीधे किचन की तरफ चली आयी।
सासू मॉ कुरान षरीफ पढने के लिये बैठी थीं। अब्बू रोज की तरह अखबार मे मुॅह गडाये चाय की चुस्कियों मे व्यस्त थे। साहिल जल्दी जल्दी दाढ़ी पे हाथ साफ कर रहे थे। ननंद कॉलेज के लिये जल्दी जल्दी तैयार हो रही थी। लिहाजा किसी को फिजॉ के चेहरे को देखने की फुरसत न थी। इस बात से उसे कुछ तसल्ली मिली।
फिजा के हाथ तेजी तेजी रसोंई के काम निपटाते जा रहे थे पर दिमाग उससे ज्यादा तेज चल रहा था, और अंदाज लगा रहा था सोच रहा था कि कौन हो सकता है यह कागज देने वाला ये तो उसे समझ ही आ गया था कि ये उसको कोई दूर से चाहने वाले प्रेमी ने ही भेजा है। पर वह कौन हो सकता है यह नही समझ पा रही थी।
कागज का टुकडा अभी भी उसके षरीर से चिपका हुआ था। दहक रहा था। पर वह इसे छुपाये भी तो कहां छुपाये।
ज्वाइंट फेमली मे कोई जगह कोई कोना अपना नही होता। कोई जगह कोई भी अलमारी व्यक्तिगत नही होती। इस बात की कमी उसे आज कुछ ज्यादा ही खल रही थी। खैर,,, फिजा ने उसे फिलहाल वहीं रहने दिया जहां था। पर मन ही मन उस कागज के मजमून को कहां और कब पढा जाये ये सोचती जा रही थी।
इसी दौरान उसने जल्दी जल्दी चाय और नास्ता तैयार किया। नंनद का चाय नास्ता उसके कमरे मे जा के दे आयी। पति का चाय व नास्ता डाइनिंग टेबल पे सजा के उन्हे बता भी दिया कि नास्ता तैयार है जल्दी तैयार हो के कर लें। सासू जो अब नमाज से उठ चुकी थी और अब्बू के बगल मे बैठ के अखबार के दूसरे पन्ने मे मषगूल हो गयी थी। उन दोनो को भी उनके पास ही चाय पहुचा दिया।
कामवाली आ गयी थी उसे उसने कपडे छांटने के पहले झाडू पोछा करने को कहां।
इसके बहाने सब को सुनाते हुये कि वह बाथरुम मे जा रही है। कोई काम हो तो जल्दी से बता दे वर्ना वह नहा के ही निकलेगी।
सब अपने अपने काम मे लगे रहे। पति ने ही कहा जाओ मै भी आफिस के लिये निकल रहा हूं। उधर नंनंद ये बात सुनने के पहले ही कॉलेज को निकल गयी थी।
खुलता हुआ गेहुऑ रंग, पानी दार चेहरा व बोलती हुयी बडी बडी ऑखों वाली फिजा को जो भी एक बार देखता दूसरी बार देखने की इच्छा जरुर रहती। लबों से कम और आखों से ज्यादा बोलने वाली फिजा अभी उस उम्र मे ही थी जब लडकियों के मन मे नये नये और कोमल कोमल सपने संजोती हैं अपने आस पास किसी ऐसे चेहरे के ढूंढती हैं जो उनके इन एहसासो बातों को समझे सराहे उसकी खूबसूरती व अदाओं पे फिदा हों। कुछ कसमे वादे हों मिलना मिलाना हो। पर यह सब वह सोच पाती इसके पहले ही मॉ बाप ने साहिल से उसका पल्लू बांध दिया। साल के अंदर ही मॉ बन गयी और घर ग्रहस्थी मे फंस गयी।
वैसे तो उसकी जिंदगी मे कोई कमी नही। साहिल मियॉ भी सीधे साधे और सरल इंसान हैं। ज्यादातर अपने आफिस और बिजनेष के काम मे मसरुफ रहते हैं। कम बोलने की फितरत है। पर उससे फिजॉ को काई परेषानी नही पर कभी कभी इतना कम भी बोलना भी चुभ जाता है खाष कर के जब वह अपनी कुछ बातें उनसे षेयर करना चाहती हो। चूंकि फिजां को किषोरवय से ही ग़ज़ल षेरो षायरी पढना लिखना और गुनगुना अच्छा लगता रहा है। उसकी इस तबियत की वजह से ही उसे लगता कि जिंदगी मे कोई ऐसा तो साथी हो जिससे हल्के फुल्के माहौल मे हंसा बोला जाये। एक दूसरे से षालीनता से छेड़ छाड़ करते रहा जाय। कोई तो हो जो उसकी कभी तो तारीफ करे। पति पत्नी के रिष्ते के अलावा भी कुछ ऐसे पल हों जब वह सिर्फ और सिर्फ कोमल एहसास महसूसे और जिये जायें। पर साहिल का धीर गम्भीर स्वभाव इन सब से अलग था। मगर इन सब बातों के बाद भी वह अपनी दुनिया और बच्चों परिवार के साथ खुष रहती।
पर,, कमल और कुमुदनी से भरे पूरे खूबसूरत तालाब की तरह जो अपनी ही रौ मे हल्की हल्की लहरों के साथ बहती जिंदगी मे। थोडा सा हलन चलन उस दिन हुयी जिस दिन उसने अपने पड़ोस मे आये नये नये परिवार के मुखिया गुलषन साहब से मुलाकात हुयी।
‘गुलषन’ उनका तखल्लुष था सही नाम तो कुछ और ही था। जिसे बहुत कम ही लोग जानते थे। गुलषन साहेब की लम्बी चौडी कद काठी। काली गहरी ऑखें। क्लीनषेब्ड चेहरे पे एक अलग ही जादू जगाती थी। फिर उनका बोलने का बिंदास लहजा। भारी आवज किसी को भी अपने जादू मे ले लेने के लिये काफी थी।
जिससे फिजॉ भी न बच सकी। जब उसे ये पता लगा गुलषन साहब भी एक अच्छे गजलगो हैं और उनका तरन्नुम भी महफिलों मे जान डाल देता है। तो वह भी उनके व्यक्तित्व के जादू मे बहती गयी। पर उनसे जान पहचान का सिलसिला महज इतना था कि कभी कदात ईद बकरीद मे एक दूसरे के यहां आना जाना। या फिर कभी उनके घर के सामने से निकलते हुये दिख भर जाना था।
फिजॉ के मन मे कई बार ये खयाल भी आया कि उनसे ग़ज़ल के लिये इस्लाह लिया जाये। इसके लिये साहिल भी तैयार हो गये थे पर सास ससुर कॉफी पुराने खयाल व कड़क मिजाज के होने से उसकी हिम्म्त न पड़ी।
उसे अपने घर से जब भी कहीं आना जाना होता तो गुलषन साहब के घर के सामने से ही हो के जाना होता था। पर कभी उसकी हिम्मत अपने से बात करने की नही हुयी।
धीरे धीरे यह एहसास भी उसके मन की कहीं गहराइयों मे दब ढ़क से गये थे।
उनके अलावा उसे और कोई ऐसा षख्स तो नही याद आ रहा था जो उसको इस तरह से ख़त भेज सकता होगा। हालाकि वह यह भी सोचती जा रही थी कि गुलषन साहेब एसा नही कर सकते उनकी पत्नी तो उनसे कहीं ज्यादा खूबसूरत और जहीन है।
हां कालोनी या आस पास मे कोई और हो जो उसे किसी और नजर से देखता हो जिसका उसे अन्दाजा नही तो बात अलग है।
फिजॉ ने कंपकंपाते हाथो से बाथरुम का दरवाजा बंद किया उसकी चटखनी को गौर से देखा कि बंद है कि नही। फिन नल खोल दिया पानी की धार धड़ धड़ कर के बात्टी मे गिरने लगी।
तब अपने कुतें मे छुपाये खत को खोला।
अब,,, उसकी नजरे खत पे थी ...
दोस्त,
आदाब,
मुझे नही पता तुम इस खत को पा के कैसा महसूस करोगी। मेरे बारे मे क्य सोचोगी। पर इतना जरुर है कि बहुत सोचने समझने और कई दिन विचारों के समंदर मे डूबने उतराने के बाद मैने यह खत तुम्हे लिखने का फैसला लिया है। अब तुम हमे सजा देती हो या कुछ और हमे नही पता। पर इतना तय है फिजॉ जी इधर कुछ दिनो से न जाने क्यंू मै आपकी तरफ आकर्षित होता गया मुझे खुद पता नही। वैसे तो खुदा की दुआ से बंदे की जिंदगी मे न कोई ग़म है और न कोई खलिष। एक इन्सान अपनी जिंदगी मे जो कुछ भी चाहता है उससे ज्यादा नही तो कम भी नही है। इंषाअल्लाह ने टीक ठाक सेहत दे रखी है ठीक ठाक बीबी है प्यारा से दो बच्चे हैं। अच्छी नौकरी है। सब कुछ गुडी गुडी है।
और षायद ऐसा ही आप के साथ भी है।
तो फिजॉ जी, जिंदगी आपके षहर मे आने तब अपनी रफतार और खूबसरती से चली भी आ रही थी। पर न जाने क्यूॅ जब से आप से मुलाकात हुयी तो न जाने क्यूूं मन कुछ कुछ भटकने लगा। और जितना भी मन को कहीं और ले जाने की कोषिष करता हूं आप की काली गहरी बोलती ऑखें मुझसे बतियाने लगतीं। और मै भी उनसे गुफतगू करने लगता हूं, और घंटो किया करता हूं।
सच आप मे जो कषिष है वह हर वक्त मुझे अपने गिर्दाब मे लिये रहती है। चाह के भी नही निकल पाता।
कई बार अपने मन से मैने पूछने जानने की भरपूर कोषिष की भी इस उम्र मे इस मुकाम पे ऐसा क्यूं ऐसा क्यूं। पर जितना ही सोचता हूं उतना ही उलझता जाता हूं।
दिल और दिमाग दोनो जानते हैं इन सब बातों को कोई मतलब नही। कुछ हासिल भी नही होना। पर हर बार दिल पारे की तरह छटक के गिर जाता हूं और फिर फिर मै उन्हे बटोरने समेटने मे लग जाता हूं। हर बार नाकामियाबी ही हाथ लगती है।
हालाकि मुझे कोई जिस्मानी भूख नही है। कोई मुहब्बत का इरादा भी नही है पर न जाने क्यंू आपसे मिलना आपको देखना आपको महसूसना अच्छा लगता है। बस लगता है मेरी रुह आपके आस पास ही रहे। आपकी खुषबू को अपने लम्स लम्स मे संजोता रहूं। आपकी इन झील सी आखों के आबे हयात को पीता रहूं। आपके इस मासूस खामोष चेहरे को देखता रहूं। बस ......
मैने बहुत दिन अपने जज्बातों को जब्त किया और आगे भी करे रहता पर आज जब दिल और दिमाग इस बात पे राजी हो गये कि कम से कम एक बार यह षहर छोडने के पहले अपने एहसासों को आप तक पहुचा ही देना चाहिये। भले ही मेरी ये हरकत आपको नागवार गुजरे और मेरी इज्जत आपकी नजरों मे कम हो जाये। पर आज जब मै आपके इस षहर को हमेसा हमेसा के लिये छोड के जा रहा हूं। कारण मेरी एक बेहतर नौकरी हो।
फिजा जी मुझे ये भी नही मालूम आप मेरे बारे मे क्या सोचती है। पर इतना तो मुझे विस्वास है कि घर से निकलते ही आपकी नजरें भी हमे ही ढूंढती हैं। ये बात मैने कई बार छुप छुप के देखकर महसूस की हैं और इसकी वजह कुछ भी रही हो। और यही वजह रही कि मेरी भी हिम्मत हुयी ये खत लिखने की।
इस खत का जवाब भी आप चाहे तो दे और चाहे न दे। उसके लिये मुझे कुछ नही कहना।
फिजाजी मै अपने इन एहसासों को आप तक पहले ही कह देता पर जानता हूं कि आप भी जिंदगी के इस मुकाम पे उस मंजिल के लिये जिसका न कोई पता है न ठिकाना है अपनी खुषहाल जिंदगी को बरबाद नही करेंगी, और मै भी नही नही चाहता।
यही वजह रही है अपने जज्बातों को इतने दिनो तक अपने अंदर दबाये रखने का।
आप पहली और आखरी बार मैने आपको अपनी बाते कह दी।
अब आप मेरे बारे मे सोचेगी और क्या न सोचेंगी इस खत का जवाब भी दंेगी या न देंगी। इन सब बातों के पहले ही मेरा कारवॉ एक नयी राह मे बढ चुका होगा।
और मै आपसे बहुत दूर जा चुका होउंगा। षायद कभी और कभी न मिलने के लिये।
खुदा हाफिज
अलबिदा
गुलशन
फिजा कहानी को कई कई बार पढ चुकी थी। बाल्टी पूरी भर चुकी थी पानी तेजी से बह रहा था। पानी की धार की आवाज मे ही बाहर किसी ट्रक और एक कार की दूर जाती आवाज आ रही थी।
फिजा के हाथ का खत न जाने कब पानी की धार के नीचे आ आ के भीग चुका था जिसे उसकी हथेलियां मसल के घबराहट मे बहा चुकी थी।
भले ही खत पानी मे भीग के गल के बह गया हो।
पर उसके एक एक हरुफ उसके दिलो दिमाग के सफे पे पूरी चमक के साथ छप चुके थे। जिन्हे न वक्त गला सका न बिन बहे आंसुओं की धार।

Monday, 15 August 2016

ज़मी ने चॉद से इठलाते हुये कहा

सुमी जानती हो ?
एक दिन,
ज़मी ने चॉद से इठलाते हुये कहा, ‘चॉद ! एक तो तुम महीने मे सिर्फ एक दिन पूरा का पूरा खिलते हो। बाकी दिन खिलते ही हो तो कभी आधा तो कभी अधूरा खिलते हो, और फिर तुम फ़लक मे इतनी दूर हो कि तुम्हे इतनी दूर से देखने से जी नहीं भरता। मै चाहती हूं, तुम मेरे बहुत बहुत नजदीक रहो। ताकि मै तुमसे बतिया सकूं तुम्हारे संग हंस सकूं खिलखिला सकूं।’
यह सुन चॉद हंसा, मुस्कुराया, बोला ‘ठीक है मेरी प्यारी ज़मी, ऐसा करो तुम अपनी आखें खोलो।
ज़मी किसी चंचल किशोरी सा अपनी बडी बडी नीर भरी ठहरे पानी की झील सी गहरी पलकें खोल दी। और ,,,,,,,,, चॉद उस ठहरी हुयी झील में उतर गया।
ज़्ामी बहुत खुश हुयी।
चॉद भी जमी की आगोंश मे आ के खुश था।
दोनो अठखेलियॉ करने लगे, देर तक मुहब्बत करते रहे।
और सुबह जैसे ही आफताब के आने का वक्त हुआ।
चंचल चॉद झील से बाहर निकल फिर से आसमान में रोज सा टंग गया।
फिर से रात होने के इंतजार में । धरती ने भी उसे फिस संाझ आने का वायदा लिया।

और,, सुमी तब से ही शायर और प्रेमी अपनी मासूका की ऑखों की तुलना झील से करने लगे।
खैर ,,,
मै तुम्हारा चॉद हूं या नही ये तो मुझे नही पता पर तुम मेरी ज़मी जरुर हो । जिसे मै यादों के फ़लक से रोज रोज रोज निहारता हूं।
और निहारता रहूंगा न जाने कितने दिनो तक शायद युगों युगों तक तुम्हारी झील सी ऑखों मे उतरने के लिये।
मुकेश इलाहाबादी..............

Wednesday, 10 August 2016

भर गये ज़ख्मों के निशान कौन रक्खे

भर गये ज़ख्मों के निशान कौन रक्खे
गमजदा रातों का हिसाब कौन रक्खे
ऑखें मेरी पत्थर की हो गयी, दोस्त
इन ऑखोमें हसीन ख्वाब कौन रक्खे
है आग सा जलता हुआ बदन मेरा
जिस्म पे मखमली लिबास कौन रक्खे
दिल निकाल के भेजा खत में तुझे
तेरी नही नही का जवाब कौन रक्खे
तुझे भूला हूं मुकेश बडी मुस्किल से
बीते हुये लम्हों को याद कौन रक्खे
मुकेश इलाहाबादी ..........................

Tuesday, 9 August 2016

बातों में तल्खियॉ देखी

बातों में तल्खियॉ देखी
दिलों में बेचैनियॉ देखी
जिस्म तो पास पास हैं
रिश्तों मे तल्खियॉ देखी
उूबे और थके हुये लोग
चहरों पे उबासियॉ देखी
मुरझाये मुरझाये से फूल
डरी हुयी तितलियॉ देखी
जाने कैसा शहर है ये ?
हर जगह बेचैनयॉ देखी
मुकेश इलाहाबा

Sunday, 7 August 2016

मै, कोई नजूमी तो नहीं

मै,
कोई नजूमी तो नहीं
जो तेरे हाथों की
लकीरें पढ सकूं
हॉ,
मै तेरी खामोश निगाहों
और,
धडकती सॉसो को पढने
का हुनर जरुर रखता हूं

‘नजूमी ... हाथ देखने वाला ज्यातिषी’
मुकेश इलाहाबादी...

ज़मी ने चॉद से कहा,

सुमी,
जानती हो?
एक दिन
ज़मी ने चॉद से कहा,
‘तुम मेरे बहुत बहुत प्यारे दोस्त हो पर तुम मुझे अर्हिनिश निहारते रहते हो देखते रहते हो पर जब मेरे और तुम्हारे बीच मे बादल आ जाते हैं और तुम मुझे देख नही पाते हो, तब तुम मुझे कैसे महसूसते हो पहचानते हो?
चॉद पहले मुस्कुराया फिर हॅसा और बोला ‘ मै तुम्हे तुम्हारे रुप के अलावा तुम्हे तुम्हारी गंध से पहचान लेता हूं। तुम्हारे बदन से गेंदा, गुलाब, गुलमोहर और तमाम तमाम फूलों के अलावा जो माटी की सोंधी सोंधी महक आती है मै उससे तुम्हे पहचान लेता हूं।
ज़मी ये सुन के खिलखिलाने लगी, इतराने लगी, बाली ‘ और इसी लिये तो ज़मीन, धरती, वसुधा आदि आदि नामों के अलावा मेरा एक नाम ‘गन्धा’ भी है।
चॉद ने कहा ‘ हूॅ ! जानता हूं प्रिये’
फिर ज़मी ने कहा ‘अच्छा ये बताओ जैसेे मुझमे तमाम खुशबुऐं हैं तो कया तुममे भी कोई खुशबू है? और अगर है तो मै कैसे जानूं कि तुम भी मेरी तरह महकते हो‘।
चॉद ने कहा ‘अच्छा ! ऐसी बात, तो तुम अपनी अंजुरी फैलाऔ, ज़मी ने अपनी अंजुरी मे ऑचल लपेट के चॉद के सामने कर दिया।
चॉद ने ज़मी के ऑचल मे सुगंध के कुछ बीज छितरा दिये।
और कहा ‘प्रिये ! आज के बाद से मै धरती पे इन फूलों के रुप मे अपनी सुगंध के साथ खिलूंगा उगूंगा। और तुम्हारे आस पास महकता रहूंगा।
ज़मी खुष हो गयी। हंसने लगी मुस्कुराने लगी नाचने लगी अपनी धुरी पे जोर जोर से।
तभी से कुछ लोग कहते हैं । धरती पे चॉद रातरानी और रजनीगंधा के रुप मे खिलता है महकता है गमकता है। जैसे चॉद सिर्फ रात को उगता हैं
बस ! सुमी, देखना एक दिन मै भी जब फ़ना हो जाउंगा। इस ज़मी से तब मै भी रजनीगंध और रातरानी से खिलूंगा और महकूंगा तुम्हारी सॉसों मे और फिर कभी भी कभी भी तुमसे जुदा नही हाउूंगा कभी भी नहीं।
मेरी प्यारी सुमी सुन रही हो न?
या फिर आज भी तुम सो गयी हो थक कर। न जाने किसके इंतजार में?
शायद मेरे रकीब के इंतजार में?
खैर कोई बात नही मेरी प्यारी सुमी।

बॉय बॉय बॉय
मुकेश इलाहाबादी ..

Friday, 5 August 2016

गर कुछ अच्छा लगता है

अच्छी कविता
खुशनुमा शाम
या ,
बादलोंके बीच
अधखिला चाँद
और ,,
रजनीगंधा के
फूलों के अलावा
गर कुछ अच्छा लगता है
तो, वो सिर्फ
और सिर्फ
तुम हो  - सुमी

मुकेश इलाहाबादी ------

Thursday, 4 August 2016

रातों में जुगनू सा चमकता है

रातों में जुगनू सा चमकता है
यादों में चन्दन सा  महकता है

सुर्ख रंग हैं  उसके  आरिज़ के
चेहरा गुलमोहर सा दमकता है

लगा लेती है जब लाल बिंदी
माथा उसका खूब चमकता है

वो झटक दे अपनी ज़ुल्फ़ें तो
बादल भी देरतक बरसता है

जिसके हिज़्र में,मुकेश बाबू
दिल मेरा देर तक सुलगता है

मुकेश इलाहाबादी ---------

Wednesday, 3 August 2016

कह तो दूं सुनेगा कौन

कह तो दूं सुनेगा कौन
बात मेरी मानेगा कौन
सच की राह कारवां है
साथ मेरे चलेगा कौन
दुनिया सरांयखाना है
यहां पर रहेगा कौन
दिल मेरा खाली मकॉ
इस घर मे रहेगा कौन
ईश्क की झीनी चादर
बता मुुकेश बुनेगा कौन
मुकेश इलाहाबादी .....