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Friday, 31 March 2017

दिन के उजाले में तुझे, ढूँढता है दिल

दिन के उजाले में तुझे, ढूँढता है दिल
तुझे रात ख्वाबों में भी देखता है दिल

मेरे मेहबूब ये तेरे ही नाम का जादू है
सिर्फ तेरे ही नाम से धड़कता है दिल 

कंही भी जाऊँ कंही भी आऊं, मुकेश
जाने क्यूँ सिर्फ तुझे, खोजता है दिल

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Tuesday, 28 March 2017

स्वाति नक्षत्र

कभी ,
तो, बरस जाओ 
स्वाति नक्षत्र की
दिव्य बूँद सा
उग,
आने दो
इक मोती, 
इस सीप के अंदर

मुकेश इलाहाबादी --




Sunday, 26 March 2017

कुछ, रिश्ते,

कुछ,
रिश्ते, प्रेमी - प्रेमिका
माँ - बाप
दोस्त, नाते -दारी, रिश्तेदारी कि
परिभाषा की परिधि में नहीं आते 
यहाँ तक कि,
दोस्त- गाईड - फिलॉसर की
परिधि को भी छू कर निकल जाते हैं
परिभाषाओं की परिधि के पार बहुत पार

अक्सर - कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं

मुकेश इलाहाबादी -----------

अगर, तू ख्वाब है?

अगर,
तू ख्वाब है?
तो, ख़्वाब में क्यूँ नहीं आती ?
गर, तू हक़ीक़त है तो ?
दिन के उजाले में क्यूँ नहीं मिलती ?

क्यूँ - क्यूँ - क्यूँ  ,मेरी सुमी ?

मुकेश इलाहाबादी ---------------

आज नहीं तुम कल, आना

आज नहीं तुम कल, आना
थोड़ी फुरसत ले कर आना

अम्मा - बाबू, भाई - बहन
सारी झंझट घर रख आना

अपनी, शोख अदाएं लाना
हया मत लाना जब आना

कोई मना करे गर, तुमको
मंदिर जाना है, कह  आना

कोई बहाना मत कर, कल
साँझ ढले पुलिया पर आना

मुकेश इलाहाबादी ---------

samiksha 'astitv'




जंगलों और गुफाओं से निकल के 'आदम' और 'हौव्वा' ने एक साथ विकास का सफर शुरू किया
और बराबर का योगदान दिया।  जहाँ आदम ने घर के बाहर की ज़िम्मेदारी निभाई वहीं 'हव्वा'
ने घर की ज़िम्मेदारी पूरी शिद्दत से निभाई और वक़्त पड़ने पर आदम के साथ क़दम दर क़दम
हर मोर्चे पे साथ दिया, चाहे वो युध्द का मैदान रहा हो, विज्ञानं की प्रयोगशाला रही हो या फिर
शिक्षा का क्षेत्र रहा हो, पर आदम ने हमेशा  शारीरिक क्षमता और हव्वा की भावुकता का फायदा
उठाते हुए सिर्फ और सिर्फ अपने आप को महिमा मंडित किया और खुद को ही श्रेष्ठ बताता रहा,
आज चाँद सितारों तक पहुचने के बाद और नारी ससक्ती करण  की बात करने के बावज़ूद, जब
कभी हव्वा पीछे पलट के अपने अस्तित्व को टटोलती है तो खुद को नदारत पाती है, और वह एक
बार फिर अनंत पीड़ा में डूब जाती है.

हव्वा,  'नारी ' की इसी पीड़ा को, 'कुसुम पालीवाल' जी ने बहुत खूबी से व्यक्त किया है।

कुसम जी ने अपने अस्तित्व को तलाशती औरत के दुःख के साथ साथ उसके हिस्से में आये थोड़े
से सुखों को, इक्षाओं, को प्रेम को, ख्वाबों को परत - दर- परत न केवल महसूस किया है वरन बड़ी खूबी
और ख़ूबसूरती से अपनी इस काव्य माला में पिरोया भी है.

करीब एक माह पूर्व कुसुम जी ने द्वारा डाक से भेजी गयी इस सप्रेम भेंट प्राप्त हो चुकी थी, जिसे
एक ही सांस में उसी दिन पढ़ लिया था किन्तु कुछ कुछ व्यस्तताओं की वजह से प्रतिक्रिया देने में
विलम्ब हो गया था , दूसरी वजह यह भी थी की कुसुम जी की कविताएं एक बार पढ़ के ही प्रतिक्रिया
देना इन गंभीर और प्रश्न उठती रचनाओं के साथ अन्याय होता, इस लिए इन्हें कई - कई बार पढ़ा.

अपना अस्तित्व ढूंढती नारी जब कुसुम जी के शब्दों में समाज से प्रश्न पूछती है,

दुनिया घूमती है
जिसके, इर्द- गिर्द  में
उसी से उसका
पता पूछती है

तो समाज को एक कटघरे में खड़ा करती है , और सारे के सरे हव्वा चुप हो जाते हैं,

यही हव्वा हमेशा - हमेशा  नहीं तो बहुतों बार ,,

आडम्बरों से बहुत दूर
रोपती रही
हृदय की धरती पर
कुछ रंग बिरंगे
फूलों के समंदर

और खुद बेरंग - बेनूर होती रही

यही हव्वा दूसरों के लिए ख्वाबों का और खुशियों का आसमान बनती रही, खुद बिखरती रही एक बित्ता आसमान की खातिर,
यही पीड़ा कुसुम जी की कविता में  'उड़ान पे पहरा ' बन के उतरती है,' और 'मन का सूनापन' बदस्तूर बरकरार रहता है।
यही नहीं कुसुम जी ने अपने इस काव्य माला में ' नारी के 'मन का सूना पन ' 'नारी मन का झंझावात ' 'जीवन के सत्य' के साथ
व्यक्त किया है, यही नारी बार बार छले जाने और अपने अस्तित्व को मिट जाने की हद तक आने के बावज़ूद ज़िन्दगी से उम्मीद
नहीं हारती और कहती है  ....

'तुमसे आस है मुझको
तुमसे प्यास है मुझको '

आकर्षक कलेवर और प्यारी साज़ सज़्ज़ा के साथ कुसुम जी की कविताओं की यह माला अनेक और नारी मन को खोलती रचनाओं
की 78 फूलों से गुथी ये माला 'अस्तित्व' पाठकों के मन को न केवल देर तक महकाती रहती है, बल्कि बहुत कुछ सोचने को भी
मज़बूर करती है, खाशकर 'आदम' को।
एक दो स्थानों पे बहुत छोटी - छोटी स्पेलिंग को छोड़ दिया जाए तो 'कुसम पालीवाल' जी का यह प्रथम संग्रह काबिले तारीफ है,
अपने पहले ही कविता संग्रह से एक परिपक्व रचनाकार के रूप में पाठकों के समक्ष प्रतुत हुई हैं।

कुसुम जी को उनके प्रथम काव्य संग्रह के लिए ढेरों बधाई, और शुभकामनाएं



मुकेश इलाहाबादी ------


Friday, 24 March 2017

यादें , किसी पंछी सा

यादें ,
किसी पंछी सा
अनंत आकाश में
उड़ती हैं,
दूर तलक
नज़रों से ओझल हो जाने की
हद तक, फिर सांझ
थक कर लौट आती हैं अपने ठिये पे
और चहचहाती हैं देर तक

मुकेश इलाहाबादी ---------

तुम, खिलखिलाती हुई आतीं हो

तुम,
खिलखिलाती हुई
आतीं हो
और बिखेर देती हो
टोकरा भर  हँसी
जिसे अपनी हथेलियों में 
तमाम कोशिशों के बावज़ूद
बटोर न नहीं पाता हूँ
और
हताश लेट जाता हूँ औंधे,
तकिया में मुँह लपेट के
इस उम्मीद पे
शायद अगली बार समेट लूँ
तुम्हारी उजली - उजली हँसी

मुकेश इलाहाबादी ---

Thursday, 23 March 2017

लोग, लिखते होंगे हाज़ारहां पेज ,

लोग,
लिखते होंगे
हाज़ारहां पेज ,
मेरी डायरी में तो
सिर्फ एक पन्ना है
जिसमे, सिर्फ
तुम्हारा नाम दर्ज है

सच ! सुमी, तेरी कसम ,,,,,,

मुकेश इलाहाबादी --

पीली पड़ती उस ग्रुप फोटो में

पीली
पड़ती उस ग्रुप फोटो में
एक चेहरा
जो बतियाता है
मुझसे,
आज भी, जब कभी 
खोलता हूँ
पुराने एलबम को 

मुकेश इलाहाबादी ---

बार बार सुलझाया बार बार उलझी

बार बार सुलझाया बार बार उलझी
ज़ुल्फ़ तुम्हारी बड़ी बेवफा निकली
हम तो समझे सिर्फ हमी प्यासे,पर 
नदी हमसे ज़्यादा, प्यासी निकली

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Wednesday, 22 March 2017

धूप ! आज भी हुलस, कर आती तो है

धूप !
आज भी
हुलस, कर
आती तो है
सुबह, छत पर 
मगर
साँझ होते - होते
लौट जाती है मायूस,
दबे पाँव 
तुम्हे न पा कर, छत पर 

ख्वाब !
आज भी आते तो हैं
मगर
तुम्हे न पा कर खो जाते हैं
न जाने किस अँधेरे बियाबान में

मुकेश इलाहाबादी ------

मुकेश इलाहाबादी ------

Tuesday, 21 March 2017

मन और देह पाइथागोरस का प्रमेय भी नहीं

मन
और देह
पाइथागोरस का प्रमेय भी नहीं
कि, हल कर लिया जाये
गणित के किसी फार्मूले से

मन और देह
द्र्व्यमान और सूर्य की किरणे भी नहीं
कि, बांध लिया जाए
e=mcᒾ के सूत्र में

शायद मन और देह
ऐसे सवाल जिसे सुलझाने में
और भी उलझ जाते हैं
और भी  गुत्थम - गुत्था हो जाते हैं हम

ओ .....  रे मन ....  ओ .....  री देह  .....

(सुन रही हो न सुमी )

मुकेश इलाहाबादी ---

Monday, 20 March 2017

इत्ती सी इल्तज़ा है

दरिया,
तू मेरी उतनी ही
प्यास बुझा
जितने में तू मैली न हो
मेरी प्यास का क्या?
बुझे न बुझे।

बस अपनी तो
इत्ती सी इल्तज़ा है

मुकेश इलाहाबादी --

तारा जो सिर्फ और सिर्फ मेरा है

तनहाई,
एक समंदर
जसके बीचों - बीच
तेरी यादों का टापू है
जिसपे बैठ
निहारता हूँ
आकाश गंगा के
अन्तं तारों के बीच
उस शुक्र तारे को
जिसपे तेरा नाम लिखा है

वो शुक्र तारा जो सिर्फ
और सिर्फ मेरा है

सुमी - तुम्ही से

मुकेश इलाहाबादी --

Sunday, 19 March 2017

आप की सादगी आप की हंसी

आप की सादगी आप की हंसी
न कभी देखी है, न कंही सूनी

होंटों पे ये छुपी -छुपी मुस्कान
बादलों से छन के आती चांदनी

कँवल से भी कोमल है बदन
हया से समेटे पंखुरी - पंखुरी

मुकेश इलाहाबादी -----------

Saturday, 18 March 2017

आवारा बादल सा

आवारा
बादल सा
बरस के खाली हो जाना
चाहता हूँ
किसी भी खेत पे
मैदान पे नदी में
नाले में

मगर नहीं
नहीं बरसूँगा उमडूंगा - घुमडूंग
बहूँगा देर तक - दूर तक
हवा के संग संग

जब तक मिलेगी नहीं वो धरती
जो तप रही होगी
जल रही होगी
सिर्फ और सिर्फ
मेरे इंतज़ार में
(सुमि के लिए )

मुकेश इलाहाबादी -----------

खाली टोकरा फूलों से भर लूँ

खाली टोकरा फूलों से भर लूँ
आ,
कुछ देर तुझसे बातें कर लूँ

मुकेश इलाहाबादी ----------------

आदम ने होठों पे, प्रेम गीत सजाए

आदम ने
होठों पे,
प्रेम गीत सजाए

ईव बांसुरी बन गईं


आदम,
कि इच्छा थी
सूरज बन जाये

ईव - फूल बन खिल गयी

आदम,
बादल बन बरसा
ईव - धरती बन भीगती रही
लहराती रही अपना धानी आँचल


सुमी,
मेरी ईव सुन रही हो न ??

मुकेश इलाहाबादी ----------------







Friday, 17 March 2017

अधूरा ख़्वाब

अधूरा ख़्वाब


घुटनो को मोड़ के
एड़ियों पे
बैठी हो तुम

गोद में तकिया लिए

शैम्पू
की खुशबू से तर
बॉब्ड कट बाल
तुम्हारे कंधो को साधिकार
चूम रहे हैं,
(जिन्हें हथेलियों में ले
सूँघना चाहता हूँ - देर तक
आँखें बंद कर के )

तुम्हारे
चंदा से गोल चेहरे पे
मासूम सी शरारत लिए हँसी
तैर रही है
जिसे अपनी बाँहों में क़ैद करने के लिए
गुदगुदाता हूँ तुम्हे

मछलियों की मुस्कराहट
हंसी में तब्दील हो जाती है
तुम हंसती जाती हो
और
गुदगुदाने के लिए मना भी करती जाती हो
और
मुक्की मारती हुई लिपट जाती हो

और मैं -
मगन देखता हूँ
पूर्णिमा के चाँद को अपनी बाँहों में
खुश, तृप्त और पूर्ण

मुकेश इलाहाबादी --

Thursday, 16 March 2017

ख्वाब, महल,जिसे कभी


ख्वाब,
महल,जिसे कभी
बड़ी शिद्दत से
तामील किया था
हमने और तुमने
खंडहर में
तब्दील हो चूका होगा
जब तक तुम
लौट कर आओगे
मगर
उसकी ध्वंश दीवारों में
तुम अपना नाम लिखा पाओगे

मुकेश इलाहाबादी -----------

शोर के नाम पे हवा सनसनाती है

शोर के नाम पे हवा सनसनाती है
या कि,मेरी खामोशी गुनगुनाती है
जब कभी सुनहरा ख्वाब देखा तब
आँखे मुस्कृराती नींद कुनमुनाती है
तुम्हारी मासूम हँसी को क्या कहूँ 
चांदी के सिक्के सी खनखनाती है

मुकेश इलाहाबादी --------------