देखता हूँ
तुम मुझे कैसे अपने पास आने सो रोक पाती हो ?
क्यूँ कि
किसी दिन भी
'मै ' चाँद का उजियारा बन जाऊँगा
और फिर
हरे रंग की खिड़की से
रात तुम्हारे कमरे में आ पसर जाऊंगा
तुम्हारे बिस्तरे में
या
किसी दिन
खुद को विरल कर लूँगा
इतना इतना इतना
जितना की एक 'खूबसूरत ख्वाब'
और फिर चुपके से
तुम्हारी बंद पलकों पे समा जाऊँगा
और कुछ नहीं तो,
इक प्यारा सा मैसेज बन के
तुम्हारे चैट बॉक्स में आ कर तुमसे मिल जाऊँगा
और अगर ये सब कुछ भी न हो पाया तो
ख़ुदा से इबादत करूंगा कि
तुम्हारे गालों पे मुझे डिम्पल बना के ऊगा दे
मुकेश इलाहाबादी --------------------
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