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Monday, 30 October 2017

दरिया में आग लगा देती है


दरिया में आग लगा देती है
इस अदा से मुस्कुरा देती है

गुज़र जाए जिधर से भी वो 
गली व शहर महका देती है

उसकी बातों में अजब जादू
हर किसी को बहका देती है

बादल भी टूट के बरस जाएँ 
जब अपने गेसू लहरा देती है 

मुकेश हँसने पे आ जाए तो
हज़ारों मोती बिखरा देती है

मुकेश इलाहाबादी ----------

तूने जो घूँघट उठा दिया होता

तूने जो घूँघट उठा दिया होता
शहर में उजाला हो गया होता

तू अपने गीले गेसू झटक देती
कोई नदी नाला न सूखा होता

नज़र भर देख लेती जो तुम,,
मुकेश यूँ दीवाना न बना होता

मुकेश इलाहाबादी -------------

Sunday, 29 October 2017

जैसे जैसे सांझ कजराती है

जैसे जैसे सांझ कजराती है
तुम्हारी बहुत याद आती है

मै लौट गया होता कब का
तेरी मुहब्बत बुला लाती है

ज़िन्दगी मेरी मज़बूरी पर
हँसती है, खिलखिलाती है

तन्हाई की बुलबुल मुझको
रोज़ इक ग़ज़ल  सुनाती है

तुझसे कभी मिला नहीं पर
ख्वाबों  में  तू रोज़ आती है

मुकेश इलाहाबादी ---------

Monday, 23 October 2017

बातों के फूल भी खिलाया करो कभी - कभी

बातों के फूल भी खिलाया करो कभी - कभी
हंसो नहीं तो मुस्कुराया ही करो कभी- कभी

तुम नहीं आते जाते हो कंही कोई बात नहीं
मुझी को अपने घर बुलाया करो कभी-कभी

हर बार हमी अपनी दास्ताने सफर सुनते हैं
तुम भी तो दुःख दर्द बताया करो कभी कभी

औरों के संग तो हमेशा खेलते कूदते रहते हो
चंद लम्हे मेरे संग भी बिताया करो कभी कभी

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

Tuesday, 17 October 2017

दोस्त ! दर्द किसके जिगर में निहां नहीं है ?

दोस्त ! दर्द किसके जिगर में निहां नहीं है ?
कोई बयाँ कर देता है, कोई कहता नहीं है !!

ये अलग बात हमने कभी पलट वार न किया
वरना अपने कानो से क्या क्या सुना नहीं है!!

बेवज़ह मेरा दिले दरवाज़ा खटखटा रहे हो ??
इस बेजान घर में अब कोई रहता नहीं है !!

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Monday, 16 October 2017

दीप हो तुम दिवाली हो तुम



दीप हो तुम दिवाली हो तुम
घरभर की खुशहाली हो तुम

कौन कहता है सिर्फ पत्नी हो
रिद्धि- सिद्धि, लक्ष्मी हो तुम

हो लाई लावा खील बताशा
अक्षत,फूल व रोली हो तुम

अन्नपूर्णा, हो हम सब की
छप्पन भोग मिठाई हो तुम

चकरघिन्नी सा नाचती हो
हँस दो तो फुलझड़ी हो तुम

मुकेश इलाहाबादी -----------

ग़ैर नहीं अपनी सी लगती है अब तो

ग़ैर नहीं अपनी सी लगती है अब तो
ये तन्हाई बहुत बतियाती है अब तो 

स्याह रात किसी लिहाफ से कम नहीं
सांझ होते ही लिपट जाती है अब तो

जवानी में ईश्क़ के बारे में सोचा नहीं   
इक साथी की कमी खलती है अब तो

याद आते हैं गुनाह अपने तो, मेरी ही 
रूह मुझसे ही लड़ने लगती है अब तो 

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Sunday, 15 October 2017

जाने कौन सा जादू जानते हो संवरते जा रहे हो

जाने कौन सा जादू जानते हो संवरते जा रहे हो
उम्र बढ़ने के साथ -साथ और खिलते जा रहे हो

कौन सी नदी या फुहारे में  नहाते हो तुम जो ?
जिधर से गुज़रते हो इत्र सा महकते जा रहे हो

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

Monday, 9 October 2017

तुम्हे छू लेना चाहता हूँ

मै
तुम्हे छू लेना चाहता हूँ
बिलकुल वैसे ही
जैसी सुबह की ठंडी बयार
छू कर गुज़र जाती है
किसी ताज़े खिले फूल को
और फिर देर तक महकती रहती है छत पे

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Sunday, 8 October 2017

मशालें कंही खो गयी

हैलोजम
और नियॉन बल्ब की
रोशनी में मशालें कंही खो गयी हैं
आओ एक बार फिर चलें हम
मनाने चलें उन हाथों को
जो मशालें लिए आगे - आगे चला करते थे
लड़ने के लिए
अँधेरे एक ख़िलाफ़

मुकेश इलाहाबादी -------------

ऐसा क्यूँ होता है ?

ऐसा
क्यूँ होता है ?
राजा
और सत्ता को सिर्फ
फ़ैली हुई हथेलियां ही अच्छी लगती हैं ?

ऐसा
क्यूँ होता है ?
जब, फ़ैली हुई हथेली
मुट्ठी में तब्दील हो जाती है तो
सत्ता को उसमे से बग़ावत की बू आने लगती है ,

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

हे गंगे, अच्छा होता, तुम

हे गंगे,
अच्छा होता, तुम
पाप के साथ- साथ पुण्य भी
धो देतीं
क्यूँ कि पाप के बोझ से  ज़्यादा
पुण्य के अहंकार से धरती
पाताल में धंसती जा रही है

मुकेश इलाहाबादी --------------

Friday, 6 October 2017

जब भी तुम खुश हो

जब
भी तुम खुश हो
हँसना
खूब हंसना जोर जोर से
उड़ना चिड़िया सा
या फिर फुदकना गिलहरी सा
और
नाचना आंगन में
बड़े से घांघरे को गोल गोल फहरा के

पर
जिस दिन जी उदास हो
मन रोने -रोने को हो
किसी के कांधे पे सर रख सोने को मन हो
बेशक - आ जाना मेरे पास

मिलूँगा मै तुम्हे
तुम्हारे इंतज़ार में

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Monday, 2 October 2017

तेरी अदाओं की सोंधी मिट्टी

तेरी
अदाओं की सोंधी मिट्टी
को  चाहत के आब से गूंथ के
वक़्त के चाक पे रख दिया है
देखना एक दिन ईश्क़ का
चराग़ ज़रूर मुकम्मल होगा
जिसकी रोशनी से रौशन होंगे
हमारे, दिन और रात

मुकेश इलाहाबादी ------------------