वक़्त
के खामोश दरिया में
हम दोनों
पाँव लटकाये बैठे हैं
दूर,
जीवन का सूरज अस्तगत है
रात,
अपना श्रृंगार करे
इसके पहले 'मै '
तुम्हरी स्याह ज़ुल्फ़ों
में ख़ुद को क़ैद कर के
खो जाना चाहता हूँ
न ख़त्म होने वाली
रात की नदी में
ओ ! मेरी सुमी
ओ ! मेरी प्रिये
मुकेश इलाहाबादी --------------
के खामोश दरिया में
हम दोनों
पाँव लटकाये बैठे हैं
दूर,
जीवन का सूरज अस्तगत है
रात,
अपना श्रृंगार करे
इसके पहले 'मै '
तुम्हरी स्याह ज़ुल्फ़ों
में ख़ुद को क़ैद कर के
खो जाना चाहता हूँ
न ख़त्म होने वाली
रात की नदी में
ओ ! मेरी सुमी
ओ ! मेरी प्रिये
मुकेश इलाहाबादी --------------
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