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Friday, 28 September 2018

दिन भर की थकन से ख़ुद को ताज़ा दम पाता हूँ

दिन भर की थकन से ख़ुद को ताज़ा दम पाता हूँ
रात होते ही तेरे ख्वाबों की नदी में उतर जाता हूँ

तुम्हारा ईश्क़ मेरे लिए तो संजीवनी बूटी जैसा है
ज़माना रोज़ रोज़ मारता है रोज़ रोज़ जी जाता हूँ

जानता हूँ समंदर की लहरें आ आ कर मिटा देंगी
फिर भी रेत् पे तुम्हारा नाम लिखता हूँ मिटाता हूँ

मै मुफ़लिस मेरे पास सिर्फ मुहब्बत की चादर है,
मेरे घर मेहमान आता है तो वही चादर बिछाता हूँ

बूढा हो गया हूँ मेरे पास चंद पुरानी यादे ही शेष हैं
जो भी मिलता है मुकेश वही वही किस्सा सुनाता हूँ

मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

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