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Thursday, 25 June 2020

ज़मीन हिली बादल फटा था

ज़मीन हिली बादल फटा था
दर्द का ऐसा बगुला उठा था
तेरी बातों के तीर ऐसे चुभे
बहुत दिनों तक मै तड़पा था
सूरज सर पे आ चूका था मै
तेर खाबों को ले के सोया था
मेरी चाल में लड़खड़ाहट थी
तेरी मासूम हंसी का नशा था
लोग कहते है मुकेश पत्थर है
पर तेरे जाने के बाद रोया था
मुकेश इलाहाबादी ---------

मुझसे ज़माना है रूठा हुआ

मुझसे ज़माना है रूठा हुआ
मै इक खिलौना हूँ टूटा हुआ
रहने दो न समेट पाओगे तुम
पारा हूँ ज़मी पे बिखरा हुआ
पलट के न लौट पाऊँगा अब
कि ज़माना हूँ मै गुज़रा हुआ
चेहरा धुंधला नज़र आएगा
कि आईना हूँ मै चटका हुआ
साथ मेरे मत कदम बढ़ा तू
मुसाफिर हूँ मै भटका हुआ
मुकेश इलाहाबादी ---------

काश प्यारी सी लोरी सुना दे कोई

काश प्यारी सी लोरी सुना दे कोई
अपनी बाँहों में ले के सुला दे कोई
जमा दर्द दिल का निकल जायेगा
जो हक़ से डांटे और रुला दे कोई
काश बदरिया बन तन जाये कोई
आग के दरिया को बुझा दे कोई
काश मुहब्बत से कोई आवाज़ दे
अपने पास मुझको बुला ले कोई
काश कोई हो जिसपे लुट जाऊं मै
औ मुझपे भी सबकुछ लुटा दे कोई
मुकेश इलाहाबादी ------------

मासूम इतनी खुशी में लिपट जाती है

मासूम इतनी खुशी में लिपट जाती है
हँसती है तो चाँदनी सी बिखर जाती है
छू देता हूँ जो उसको शरारत से कभी
शरमा के छुई मुई सा सिमट जाती है
ज़माना कहता है वो बहुत जिद्दी है
मैं जो समझाता हूं समझ जाती है
मुकेश बेवज़ह लोग पत्थर समझते हैं
आँच पाते ही मोम सा पिघल जाती है
मुकेश इलाहाबादी -----------------

फ़लक में दूर तक उड़ कर देखा

फ़लक में दूर तक उड़ कर देखा
उदास था चाँद लिपट कर देखा
मसले जाने का क्या दर्द होता है
क़तरा - क़तरा बिखर कर देखा
दर्द को किताबों में नहीं पढ़ा है
नंगे पाँव आग पे चल कर देखा
कल शह्र तफरीहन निकला था
उदास मंज़र मैंने घर घर देखा
सोचता हूँ तो याद नहीं आ रहा
तुझको आख़िरी बार कब देखा
मुकेश इलाहाबादी ---------

मेरे सीने में खंज़र चला गया कोई

मेरे सीने में खंज़र चला गया कोई
दे गया आज फिर घाव नया कोई
एक ही चराग़ था दिल दहलीज़ पे
सांझ वो भी दिया बुझा गया कोई
बड़ी शिद्दत से तेरा नाम लिखा था
दिलजला आ कर मिटा गया कोई
उसकी आवाज़ में नुक़रई खुनक है
शायद उसके जी को भा गया कोई
मुक्कू नहीं बताऊंगा मै भी तुम्हे
कि मेरे दिल पे भी छा गया कोई
मुकेश इलाहाबादी --------------

चाँद आसमा से न उतरा

चाँद आसमा से न उतरा
मै भी फलक तक न उड़ा
साथ उम्र भर का रहा पर
न कुछ कहा न कुछ सुना
राह आसान हो सकती थी
जिद्दन राह कांटो की चुना
जनता था बिखर जायेंगे
फिर भी खाब तेरा ही बुना
साँसों ने तेरे ही गीत गाये
मुक्कु क्या कभी तूने सुना
मुकेश इलाहाबादी -------

दिल का दर्द कागज़ पे उतर आया

दिल का दर्द कागज़ पे उतर आया
कागज़ पे इक समंदर उमड़ आया
जाने किस बात पे रूठ गया था वो
वो गया तो फिर लौट कर न आया
उसकी आँखों में कुछ लिखा तो है
पर मुझ मासूम को न समझ आया
मुकेश इक मुद्दत के बाद घर लौटा
पूरा आलम ही बदला नज़र आया
मुकेश इलाहाबादी ----------------

तुम खिलखिलाओ मै तुम्हे देखूँ

तुम खिलखिलाओ मै तुम्हे देखूँ
मेरे पास बैठो और तुम्हे मह्सूसूँ
किसी रोज़ अपनी चुप्पी तो तोड़ो
तुम बोलो और तुम्हे देर तक सुनूँ
अपनी हिरणी सी आँखें ले के आ
तुझको जी भर देखूँ गज़ल लिखूँ
ज़िंदगी कुछ पल मोहलत दे तो
खल्वत में बैठूँ सिर्फ तुझे सोंचू
मुकेश बेतरह जल रहा कब से मै
कभी तो बदल सा बरस मै भीगूँ
मुकेश इलाहाबादी -----------

थिर और उदास नदी थीं तुम

थिर
और उदास
नदी थीं तुम
तुम्हारी आँखों के कोर
डबडबाए रहते थे
तुम्हे अँधेरा कमरा
सूनी दीवारें अच्छी लगती थीं
दर्द भरे नग्मे गुनगुनाया करती थीं
तुम मेरी बातें गौर से सुनती थीं
मै तुम्हे ज़बरदस्ती रोशनी में ले जाया करता
तुम्हे हंसाने की कोशिश करता
तुम मुस्कुरा के रह जातीं मेरे लतीफों पे
मैं तुम्हे गुदगुदाना चाहता
तुम परे खिसक जातीं
मै कुछ पूछता तुम टाल जाती
मैंने ये भी पूछा "तुम्हारा कोई और दोस्त तो नहीं .... ?"
तुमने "पागल हो क्या ? " कह के बात को टाल दिया था
पर एक दिन मैंने तुम्हारी चुप्पी को पढ़ लिया
तुम्हारी आँखों की पुतलियों में सजे सपने देख लिए
जिसमे एक खूबसूरत और समवयस्क राजकुमार मुस्कुरा रहा था,
उसके बाजुओं की मछलियाँ टी शर्ट से झाँकती हुई
किसी स्त्री को आकर्षित कर सकती थी
राज कुमार घोड़े पे सवार था
उसके पास बाहु बल और धन बल भी था
उसका नाम लेते ही तुम्हारा चेहरा खिल उठता
अब तुम उदास गीत नहीं गुनगुनाती थी
अब तुम मुझसे अपना हर सुख दुःख भी नहीं साझा करती थीं
अब तुम बहुत सी बातों को टाल जातीं
मै जिद करता तो कहतीं थी "पागल हो क्या ,,,?"
खैर अब
तुम्हारा ये पागल दोस्त
एक उदास नदी में तब्दील हो गया है
जो अब गुदगुदाती कविता नहीं लिखेगा
पर तुम खिलखिलाती रहना
हँसती रहना
सुमी : ये बात तो सुन रही हो न ???
मुकेश इलाहाबादी ---------------

नरक कुण्ड की मछली ------------------------


लड़की
की आँखों में
मछली थी
जो ख्वाबों के समंदर में
अपने रंगीन डैने लहरा के दूर तक
तेरा करती, अपने छोटे से मुँह से
ईश्क़ का पानी पीती
खूबसूरत गलफड़ों से पिचकारी सी निकालती
जो समंदर के ऊपर बुलबुले सा तैरता
मछली को इस तरह तैरना बेहद पसंद था
एक दिन
उस मासूम रंगीन मछली पे एक
मगरमच्छ की नज़र पडी
नहीं - नहीं वो
मगरमच्छा नहीं
एक बेहद शातिर मछुआरा था
जिसकी बाहों की मज़बूत मछलियाँ किसी भी
मछली को आकर्षित करने का माद्दा रखती
उसकी पसिनाई देह की मानुष गंध बेहद नशीली थी
उसकी लच्छेदार बातों में गज़ब का जादू था
उसकी आँखे किसी जादूगर की आँखे लगती
उसके हाथो में बातों मे ग़ज़लों में
मोहक काँटा होता
जससे ये मासूम मछली भी न बच पायी
और एक दिन वो उस शातिर मछुआरे के जाल में आ फँसी
फिलहाल मछली उस जादूई जाल में खुश है
लेकिन ये तय है
एक दिन वो शातिर महुआरा इस मासूम को भी
इस तिलस्मी जाल से निकाल के
अपनी यादों के नरक कुण्ड में डाल देगा
और दूसरी मछलियों की तरह
तब ये मछली भी बहुत पछताएगी
पर अब मै कुछ नहीं कर पाऊँगा
सिवाय
कुछ उदास कविताओं के लिखने के
(शीर्षक वरिष्ठ साहित्यकार और गुरु तुल्य
श्री अजित पुष्कल जी की एक कहानी से प्रेरित हो के )
मुकेश इलाहाबादी -----------------

इक पत्थर पे अपना नाम लिख आये

इक पत्थर पे अपना नाम लिख आये
संग संग उसके बहुत दूर निकल आये

खवाबों की नदी कस्मे वादों की कश्ती
चाँदनी रातों में नौका विहार कर आये

आसमानी आँचल बादल से उसके गेसू
हल्की- हल्की बारिश में भीग कर आये

बैठे हैं अब हम दोनों बाँहों में बाहें डाले
हम से मत पूछो कि कितना चल आये

यूँ ही नहीं किताबे इश्क में नाम लिखा
जाने कितनी रुसुआई सह कर आये

मुकेश इलाहाबादी ------------------

घाव नहीं दिखता पर दर्द रिसता है

घाव नहीं दिखता पर दर्द रिसता है
कोई अपना रूठता है तो टीसता है

आसमान ही नहीं ज़मी भी रोती है
गर फ़लक़ पे कोई सितारा टूटता है

ये सच है वक़्त हर घाव भर देता है
ये भी सच है ज़ख्मे निशाँ रहता है

कौन कहता है ईश्क़ मज़ा देता है
इसमें जिस्मो जां दोनों जलता है

मुकेश न तो चाँद है न ही सूरज है
ईश्क़ का तारा है सुबह खिलता है

मुकेश इलाहाबादी --------------

Monday, 8 June 2020

तेरी ज़ुल्फ़ों के ये लच्छे लच्छे

तेरी ज़ुल्फ़ों के ये लच्छे लच्छे
उलझे हैं जिसमे अच्छे -अच्छे

सभी फंस जाते हैं तेरे जाल में
बूढ़े हों जवान हों या कि बच्चे

तूने मुझे भी कर दिया दीवाना
वर्ना हम तोथे बेहद सीधे सच्चे

तपते हुए मौसम में तेरे ये गाल
अमिया जैसे लगते कच्चे पक्के

सुमी तेरी इन मासूम अदाओं पे
मुकेश मर जायेगा हँसते हँसते

मुकेश इलाहाबादी ----------

मुझसे रूठ कर चला गया कोई

मुझसे रूठ कर चला गया कोई
आँखे अश्कबार कर गया कोई

सीना और गला जल रहा मेरा
तेज़ाबे ईश्क़ पिला गया कोई

शब भर करवटें बदलता रहा हूँ
शुबो लोरी सुना सुला गया कोई

तेरे नाम का दिया जला रखा था
सांझ चराग़ को बुझा गया कोई

बड़ी मुश्किल से तो सुलझी थी
ज़िंदगी फिर उलझा गया कोई

मुकेश इलाहाबादी ---------

मुझसे रूठ कर चला गया कोई

मुझसे रूठ कर चला गया कोई
आँखे अश्कबार कर गया कोई

सीना और गला जल रहा मेरा
तेज़ाबे ईश्क़ पिला गया कोई

शब भर करवटें बदलता रहा हूँ
शुबो लोरी सुना सुला गया कोई

तेरे नाम का दिया जला रखा था
सांझ चराग़ को बुझा गया कोई

बड़ी मुश्किल से तो सुलझी थी
ज़िंदगी फिर उलझा गया कोई

मुकेश इलाहाबादी ---------------

दिल मेरा ये कहते हुए डरता है

दिल मेरा ये कहते हुए डरता है
तू मुझे बहुत अच्छा लगता है

कभी छलिया तो कभी अपना
तू जाने क्या क्या तो लगता है

तुझसे मिलने के बाद आँखों में
इक ख्वाब सुनहरा सा पलता है

जाने क्यूँ जब तू पास नहीं होती
ये दिल तुझको ही ढूँढा करता है

तुझको मुझसे प्यार नहीं तो तू
क्यूँ तेरे बारे में सोचा करता है

मुकेश इलाहाबादी ----------

यमुना की गहराई गँगा सी रवानी है

यमुना की गहराई गँगा सी रवानी है
लगता है तू परी कोई आसमानी है

झटक दो गेसू फ़िज़ाएं महक जाती हैं
तेरे वज़ूद में चंपा चमेली रातरानी है

होठ नज़्म गेसू ग़ज़ल आँखे रुबाई है
तेरी हर अदा हर बात इक कहानी है

चंद लम्हे को सही मुलाकात तो कर
ढेरों बातें हैं जो मुझे तुझको सुनानी है

जब कभी खल्वत में बैठ के सोचता हूँ
तू मेरी रूह मेरी साँस मेरी ज़िंदगानी है

मुकेश इलाहाबादी ----------------

मै बहते- बहते रुक गया हूँ

मै बहते- बहते रुक गया हूँ
खामोश दरिया बन गया हूँ
तेरा घर आ गया रास्ते में
तेरे दीदार को रुक गया हूँ
मेरे लिए ठंडी छाँह बन जा
चलते - चलते थक गया हूँ
मोम सी सिफ़त थी अपनी
अब तो पत्थर बन गया हूँ
कारवां के साथ न चल सका
मुकेश बहुत पीछे रह गया हूँ
मुकेश इलाहाबादी ---------

कंकरी फेंकूं तो ही हलचल होती है

कंकरी फेंकूं तो ही हलचल होती है
नदी वो बेहद खामोशी से बहती है

बहुत खुश हुई तो मुस्कुरा देती है
वर्ना वो ज़्यादातर चुप ही रहती है

फ़लक पे टंगे सितारे को देखती है
फिर देर तक जाने क्या सोचती है

मैंने ही नहीं ज़माने भर ने पुछा है
कुछ नहीं कहती खामोश रहती है

कोई तो ग़म है उसकी आँखों में
अक्सर गँगा जमना सी बहती हैं

मुकेश इलाहाबादी -------------

मुझसे ज़माना है रूठा हुआ

मुझसे  ज़माना है रूठा हुआ
मै इक खिलौना हूँ टूटा हुआ

रहने दो न समेट पायेगा तू
पारा हूँ ज़मी पे बिखरा हुआ

पलट के न लौट पाऊँगा मै
कि ज़माना हूँ मै गुज़रा हुआ

चेहरा धुंधला नज़र आएगा
कि आईना हूँ मै चटका हुआ

साथ मेरे मत कदम बढ़ा तू
मुसाफिर हूँ मै भटका हुआ

मुकेश इलाहाबादी ------------