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Tuesday, 15 December 2020

सहरा को भी हरा भरा कर सकता हूं

 सहरा को भी हरा भरा कर सकता हूं

मैं बादल हूँ कभी भी बरस सकता हूं


अपने सारे असबाब बाँध रखे हैं मैंने

सफ़र पे कभी भी निकल सकता हूं


ज़रा आहिस्ता से छूना मेरे दिल को

कांच का हूँ कभी भी चटक सकता हूं


ओस बन के तेरे बदन को चूम लूँगा 

सर्द कोहरा हूँ तुझसे लिपट सकता हूँ 


अपने नाज़ुक हाथ हटा तू बदन से  

पत्थर नहीं बर्फ हूँ पिघल सकता हूँ 


मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,


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