सहरा को भी हरा भरा कर सकता हूं
मैं बादल हूँ कभी भी बरस सकता हूं
अपने सारे असबाब बाँध रखे हैं मैंने
सफ़र पे कभी भी निकल सकता हूं
ज़रा आहिस्ता से छूना मेरे दिल को
कांच का हूँ कभी भी चटक सकता हूं
ओस बन के तेरे बदन को चूम लूँगा
सर्द कोहरा हूँ तुझसे लिपट सकता हूँ
अपने नाज़ुक हाथ हटा तू बदन से
पत्थर नहीं बर्फ हूँ पिघल सकता हूँ
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
No comments:
Post a Comment