एकांत एक नदी है
जिसमे मै पड़ा रहना चाहता हूँ
किसी मगरमछ की तरह
या फिर बहता रहना चाहता हूँ,
चुपचाप, किसी टूटे पेड़ के तने
या फिर
बिन नाविक बिन पतवार की नाव सा
जिसमे लदे हैं
मेरे सारे दुःख सारे सुख
सारे भाव सारे विभाव
और वो नाव
जो सिर्फ हवा के बहाव से बहती हुई
हिंद महासागर सहित सातों समंदर से
होती हुई, पृथ्वी के किनारे पहुँच
गिर जाए अनंत के महा शून्य मे
जंहा मै सुन सकूँ
अपनी रगों का स्पंदन
और दिल की धड़कन
और, सुन सकूँ
तुम्हारी पुकार
जिसे तुमने कभी
उच्चारित ही नही किया मेरे लिये
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,
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