धूप
आवाज़ लगाकर, या
कुंडी खटखटाकर नही आती
धूप तो बस,
चुपचाप आसमान से उतर कर
बाल्कनी मे,
बरामदों मे,
आंगन मे ओसारे मे
सड़कों और बाजारों मे
जिसकी रोशनी मे दुनिया निबटाती है
अपने सारे काम
यहि धूप शाम
चुपचाप खुद को लपेट कर चली जाती है
अपने गाँव,
छितिज के उस पार
और तब दुनिया सो जाती है
अंधेरे की चादर ओढ़ कर
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,,,,
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