गो कि, मेरा घर तेरे दर से दूर बहोत है
बैठे ठाले की तरंग -----------
गो कि, मेरा घर तेरे दर से दूर बहोत है
पै, तेरे रूह की सेंक इधर आती तो है
गर, ये निगोड़ी हवा, राह में न भटकती
तेरे आँचल की हवा मुझ तक आती तो है
चुप्पियाँ अक्सर फुसफुसाती हैं, शहर मे
थोड़ी ही सही मगर,अपनी रुसवाईयाँ तो है
मुकेश इलाहाबादी --
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