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Sunday, 2 September 2012

गंध के गलियारों मे कस्तूरी सम महकती हो


 

गंध के गलियारों मे कस्तूरी सम महकती हो
नेह के आंगन मे तुम बुलबुल सा चहकती हो

सिर पे घड़ा साध के ज़रा कंचुकी संभाल के
पनघट पे जाती हो तो लहर सा मचलती हो

घनन घनन घटा सावन के आसमा मे छाये
तो सखियन संग तुम मोर सा  थिरकती हो

बैरन सखि जब सोय रहीं  पिया संग रात मे
तब देह के उत्ताप से रात दिन भर सुलगती हो

जानता हूं कि वेदना विरह तुमको है सालती
रात के अंधेरे मे तुम रोज रोज सिसकती हो


मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

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