गंध के गलियारों मे कस्तूरी सम महकती हो
नेह के आंगन मे तुम बुलबुल सा चहकती हो
सिर पे घड़ा साध के ज़रा कंचुकी संभाल के
पनघट पे जाती हो तो लहर सा मचलती हो
घनन घनन घटा सावन के आसमा मे छाये
तो सखियन संग तुम मोर सा थिरकती हो
बैरन सखि जब सोय रहीं पिया संग रात मे
तब देह के उत्ताप से रात दिन भर सुलगती हो
जानता हूं कि वेदना विरह तुमको है सालती
रात के अंधेरे मे तुम रोज रोज सिसकती हो
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------
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