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Thursday, 11 October 2012

जो यादों के समंदर मे हर वक्त मचलती है


जो यादों के समंदर मे हर वक्त मचलती है
हो के तसव्वुर से जुदा मछली सी तडपती है

सांझ होते ही फलक पे चांद सा खिल कर
रात भर ख्वाब मे चांदनी सा बिछलती है

तुम कहते हो देखूं न छुऊँ न सूघूं न उसे
कैसे हो सकता है वो सांसों मे महकती है

सरगम हो जाए है हमारी हर सुबह तब,
जब आंगन मे वह बुलबुल सा चहकती है

कभी बाहों मे झुलाऊँ कभी उर मे बसाऊँ
गुलशन सी लगे जब वो सजती संवरती है

बादल सा मुखड़ा और  समंदर  सी आखें
परी सी लगे है जब वो बाहों में उतरती है

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

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