जो यादों के समंदर मे हर वक्त मचलती है
हो के तसव्वुर से जुदा मछली सी तडपती है
सांझ होते ही फलक पे चांद सा खिल कर
रात भर ख्वाब मे चांदनी सा बिछलती है
तुम कहते हो देखूं न छुऊँ न सूघूं न उसे
कैसे हो सकता है वो सांसों मे महकती है
सरगम हो जाए है हमारी हर सुबह तब,
जब आंगन मे वह बुलबुल सा चहकती है
कभी बाहों मे झुलाऊँ कभी उर मे बसाऊँ
गुलशन सी लगे जब वो सजती संवरती है
बादल सा मुखड़ा और समंदर सी आखें
परी सी लगे है जब वो बाहों में उतरती है
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
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