तन्हाइयों की छाँव में सोया हुवा था मुसाफिर आँचल की हवा से तुमने अरमान जगा दिया होश नहीं हमको पीने के बाद तेरी बज़्म मे जाम ऐ मुहब्बत ये तुमने कैसा पिला दिया ? मुकेश इलाहाबादी --------------------------------
खजाना तेरी यादों का हमने लुटा दिया अफसाना ऐ मुहब्बत सबको सुन दिया चरागे उम्मीद जल रहा था, तुम आओगी रात अपनी मज़ार का ये दिया भी बुझा दिया बुत ऐ संगमरमर कभी पिघलता नही, ये जान के भी तेरे दर पे सर झुका दिया दिल हो गया ख़ाक, राख भी न बची ये हादसा हुआ जब तुमने घूंघट उठा दिया मुकेश इलाहाबादी ------------------------
हद्दे निगाह में वीराना ही वीराना है
ये कैसा वक़्त है? कैसा ज़माना है?
हमारा ही घर हमारा ही शहर हमारे ही लोग
फिर भी जाने क्यूँ सब कुछ लगता बेगाना है
शराफत में सहता रहा सबके ज़ुल्मो सितम
हम सब मुसाफिर और दुनिया सरायाखाना है
पल दो पल का ठहराना है फिर सबको जाना है
जिसने भी सच को सच और कहा झूठ को झूठ
दुनिया ने उसी को कहा ये पागल है दीवाना है