पुरानी डायरी के पीले पड़ते पन्नो मे
बटुए की चोर जेब मे
मेरी नज़्म और कविताओं मे
मन के किसी कोने मे
तो कभी किसी चमकीली सुबह की
रोशनी मे, बेवजह की मुस्कान मे
किसी न किसी रूप मे
मौज़ूद रहते हो तुम
मेरे अस्तित्व के रग - रग, रेशे- रेशे मे
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,
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