मित्रों -- ये एक कहानी का शुरुआती भाग है - जो पत्रोतर शैली मे आगे लिखने का विचार है
पर उसके पहले आप लोगों की प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------------------------------------
दोस्त ,
आज पहाड़ी सुबह कुछ ज्यादा ताजी और धुली धुली नजर आयी, चैट बाक्स मे पडे आपके मैसेज ने उसे कुछ और ही खूबसरत बना दिया।
सुबह की हल्की रोषनी ने ओस के साथ साथ रात की बची खुची खुमारी भी सोख लिया।
फक्त
दो दिन की दोस्ती और चैट बाक्स मे हुयी बातो का असर इन खुनखुनाती हवाओं मे
घुल घुल के न जाने कैसी तासीर पैदा कर रहा था कि उंगलियां अपने आप मोबाइल
के कीपैड से खेलने लगीं और न जाने कव आपके नाम पे रुक गयी जो आपको कॅाल कर
के ही मानीं।
महज दो तीन वाक्यों मे हुयी बात का असर काफी देर अपने वजूद पे महसूस करता रहा।
न
जाने क्यूं लगा आप उस वक्त घबराहट मे या संकोच मे या किसी और कारण से बात
नही कर पा रही थी। लिहाजा मैने कॉल को वहीं खत्म करना ही उचित समझा।
फिर दोपहर मे जब आपका मैसेज आया उस वक्त मै कुछ काम मे व्यसत था। खैर ...
इस
वक्त षाम का झुटपुटा धीरे धीरे अंधेरे की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में मै देख
रहा हूं। बादलों की ओट से सिंदूरी सूरज को, पहाड़ं के पीछे छुपते हुये। पेड़
और इंसान की लम्बी परछाइयों को अंधेर में विलीन होते हुए। पक्षियों को अपने
आसियाने में चहचहा कर दुपकते हुये। गिलहरी गिल्लू को फुदक कर पेड़ की खोह
में घुसते हुये। इसी के साथ साथ मै भी अपने एकाकीपन में डूब रहा हूं। किसी
गहरे तलातल में, जहां खोते जा रहे थे सारे षब्द, सारे भाव, सारे विचार सारी
संवेदनाए।
लेकिन इस विलीनता में हो रहा था सब कुछ हौले हौले आहिस्ता
आहिस्ता। फिर आहिस्ता से बिदा हो गयी थी सारी बेचैनी। जहां था एक गहन
लयबद्ध मौन से आप्लावित किसी षाम की रागनी।
उसी तंद्रा की अवस्था में
दूर से आती स्वरलहिरयों की तरह मन के अचेतन से आपका नाम स्पंदित हाने लगा।
इस भाव के साथ कि आहिस्ता आहिस्ता परवान चढते इस संबध को किस रुप में लूं
किस रुप मे न लूं। कहां तक समझूं कहां तक न समझूं। लेकिन इस होैले हौले
उभरते हुये विक्षोभ के साथ भी मै, इस अवस्था से निकलना नही चाह रहा था।
बहुत देर तक।
इस भाव दषा से उबरने के बाद भी बहुत देर तक सोचता
रहा। आपके साथ हो रही आपसी सौहार्द की बातों व हल्की फुल्की चर्चाओं के
बारे में। उन बातों के बारे में जिन्हे हम और आप कह सुन लेते हैं। और सोच
रहा था अक्सर अपने आप ही अंकुआ जाने वाले कुछ ऐसे संबंधों के बारे में
जिन्हे, कोई संज्ञा तो नही दी जा सकती। पर उन संबंधों को यदि आहिस्ता और
समझदारी से जिया जाये तो निसंदेह समाज में एक मिसाल कायम करते हैं। चाहे वह
वर्तमान में सात्र व सिमॉन द बउवा का रहा हो या कि अम्रता और इमरोज का रहा
हो या कि पुराणों में द्रोपदी व क्रष्ण का रहा हो।
हालाकि इन बड़े बड़े
नामो से मै अपने आपको नही जोड रहा पर एक बात जरुर है कि फिलहाल हम लोगों को
साक्षी भाव से हर घटना व बात को देखना समझना होगा पवित्रता, धैर्यता और
विस्वास के साथ।
वैसे इतना जरुर है आपका ये दोस्त उन कसौटियों पे
कतई नही खरा उतरता जिन कसौटियों पे एक अच्छे दोस्त को उतरना चाहिये। हां यह
जरुर ईमानदारी से कहूंगा कि आप इस दोस्त पे आसानी से विष्वास न करियेगा।
ये बहुत छलिया दोस्त है। जो अक्सर अपनी लच्छेदार बातों से लोगो को मोहित
करने की कला जानता है। इसलिये आप मेरी कविताओं और बातों से मुझे बहुत अच्छा
इन्सान न समझें।
हां ये जरुर है जितनी दूर और देर तक दोस्त रहूंगा ईमानदारी से दोस्त रहूंगा।
वैसे
तो कलम अभी रुकना नही चाहती पर एक ही बार मे सब कुछ कह देना व बता देना न
तो संभव है और न ही रिष्तों की मजबूती के लिये ठीक होता है।
जो चीज धीरे धीरे पकती है उसकी सुगंध स्वाद और तासीर ही अलग होती है।
एक ही बार मे पूरी आंच दे देने से चीजें नष्ट ही होती हैं चाहे सम्बंध ही क्यूं न हो।
बाकी आप खुद समझदार और दुनियादार हैं।
कम षब्दों मे ज्यादा समझना आपकी विषेषता है।
शुभकामनाओं सहित
एक दोस्त
दोस्त,
नेट
खोलते ही निगाहें चैट बॉक्स मे आपको ढूंढती हैं। और अपडेटस मे आपकी
रचनाएं। आज चैट बाक्स मे आपके पत्र देख मन हिलोंरे लेने लगा। उंगलियां माउस
पे कंपकंपाने लगी, दिल न जाने क्यूं धडकने लगा।
जैसे जैसे निगाहें खत को पढती जातीं वैसे वैसे मन आपके लिये श्रद्धा विस्वास और प्रेम से भीगता जाता।
पत्र को कई बार पढने के बाद भी मन नही भरा और ये पत्रोत्तर लिखते लिखते कई बार आदयोपातं पढ चूकी हूं।
आपके
एक एक षब्द मे न जाने कौन सा जादू होता है जो उतरने की जगह चढता ही जा रहा
है। षायद ये आपके दिल की पाक साफगोई और अनुभव ही है जो हर एक को इतना
आकर्षित करता है।
अपने विचारों को कई बार सिलसिलेवार करने की नाकाम कोषिष कर चुकी हूं पर ये बेर्षम विचार हर बार हवा की तरह उड जाते है।
दोस्त,
इतना तो मै भी जानती हूं कि ये बेब दुनिया है, एक जाल है। जिसमे जितनी देर
रहो उतने सतरंगी सपने दिखाता रहता है। बाहर आते ही फिर वही भयानक
वास्तविकता होती है।
और ये जिंदगी वेब दुनिया के सहारे नही चल सकती फिर भी मे इस का षुक्र गुजार हूं कि आप जैसे नेक और समझदार दोस्त से मुलाकात कराई।
आपने
अपने पत्र मे कहा है कि ‘एक ही बार मे सब कुछ कह देना व बता देना न तो
संभव है और न ही रिष्तों की मजबूती के लिये ठीक होता है।’
पर ये भी सच
है कि अगर रिष्तों की दीवार सच और विस्वास पे न उठी हो तो कुछ देर बाद
भरभरा के कभी भी गिर सकती है। और इसके लिये जरुरी है कि एक दूसरे के बारे
मे सब कुछ नही तो बहुत कुछ तो मालूम ही होना चाहिये।
और अगर सब कुछ कहना एक बार में संभव नही तो कम से कम बहुत कुछ कम षब्दों मे भी तो कहा जा सकता है।
लिहाजा कम से कम षब्दों मे अपनी बात कहने की कोषिष है।
दोस्त,
कई लडकियों के बाद मॉ बाप को उम्मीद थी कि इस बार तो लडका ही होगा। पर
बदनसीबी से मै पैदा हो गयी। और वो भी साधारण रुप रंग ले के लिहाजा बचपन से
उपेक्षा और तानो के सिबा कुछ न मिला। बडी बहनो को संग साथ ही सहारा रहा।
अपने रुप रंग और घर के वातावरण ने हीन भावना को बढावा ही दिया। लिहाजा बचपन
से ही अंर्तमुखी होती गयी। हां इस घुन्नेपन ने दुनिया को देखने समझने की
क्षमता मे इजाफा किया और ज्यादा से ज्यादा पढने की तलब जगा दी।
घर की परेषानियों को झलते हुये भी पढाई पूरी की और नौकरी की।
उधर
बडी बहनो की षादियां करते करते पिता चल बसे। प्राइवैट नाकरी थी पिता की
पेन्सन का भी सहारा न था। लिहाजा मॉ और घर की जिम्मेदारियों के चलते अपनी
आर सोचने का मौका ही न मिला।
हां कभी कदार अकले पन को दूर करने के लिये
अपने आस पास नजरें दौडाती भी तो। उन लोंगों की ही भीड नजर आती जिनकी नजरें
मेरी भावनाओं को कम और सरकारी नौकरी से मिलने वाली सैलरी की तरफ ज्यादा
रहती। या फिर उनकी ऑखों मे सिर्फ टाइमपास की फितरत नजर आती।
एक दो सरल
और सहज लोग मिले भी पर गौर से देखने पर वे भी मानवीय समझ और दुनियादारी मे
बौने ही नजर आये। लिहाजा मैने खुद को मॉ नौकरी और किताबों की दुनिया मे खपा
दिया था। जिसमे खुश तो नही पर आराम से थी।
इसी बीच मोबाइल की वजह से नेट की दुनिया मे आना हुआ।
और एक दिन किसी कॉमन दोस्त की वाल पे आपकी एक रचना से रुबरु हुयी।
जिसने मुझे आपको ज्यादा से ज्यादा पढने के लिये उकसाया।
और मैने आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी।
और वो दिन कि आज का दिन षायद कोई ऐसी रचना न होगी जिसे आपने पोस्ट किया हो और मैने न पढा हो।
उस
दिन भी मैने आपकी रचना पे लाइक कर के एक छोटा से कमेट भी दिया था। जिसका
जवाब आपने वॉल पे न दे के षुक्रिया के साथ चैट बाक्स पे दिया था।
बस उसी दिन के बाद से जो बातें हुयी वो आप को भी मालुम है। और हमे भी।
हालाकि
मैने भी अभी इस सम्बंध के बारे मे बहुत गम्भीरता से नही सोचा पर ये भी है
कि मेरे चाहने के बावजूद आपकी बातें और रचनाऐ जेहन मे किसी जादू की तरह
किसी इंद्र जाल की तरह छायी रहती हैं जिससे अपने आप बाहर निकलने मे असमर्थ
पा रही हूं।
हालाकि ये भी मालूम है ऐसं संबंध अक्सर पानी के बगूले की तरह जिस तेजी से बनते हैं उतनी ही तेजी से फूट भी जाते हैं।
आप
मेरी इन बातों को किस तरह से लेते हैं और क्या प्रतिक्रिया करते हैं इसका
असर मुझ पर नही पडेगा, एसा तो नही कह सकती फिलहाल पर ये भी सच है कि जिंदगी
मे इतने हादसात और थपेडे आये हैं कि इसे भी सह लेने की क्षमता है। पर आप
अपना निर्णय लेने मे स्वतंत्र हैं। वैसे भी मुझे सुहानभूति से चिढ है।
आपने
इस तरह के अपने आप अंकुआऐ सम्बधों का जिस खूबसूरती से परिभाषित किया है ये
आप जैसे षब्दों और भावों के चितेरे ही कर सकते हैं। मै नही।
बाकी मै क्या कहंू ,गर मै कम शब्दों मे बहुत कुछ समझ पाती हूं तो आप बिन कहे भी सब कुछ समझने की समझ रखते हैं।
एक दोस्त
एफ बी दोस्त कहानी की तीसरी कडी ...............
दोस्त,
उधर
खिड़की के बाहर सुबह से ही सूरज बादल के साथ लुका छिपी खेल रहा हैं और इधर
मेरा दिल और दिमाग एक दूसरे से खेल रहे हैं। इधर दिल कहता है तुमसे बढती
हुयी दोस्ती को गुनगुनाओ खुश रहो उधर दिमाग कहता है ठीक है दोस्त प्यारा
है उसकी बाते अच्छी है पर कदम समझदारी से बढाओ। इसी उहापोह मे तुम्हारे पढे
हुये ख़त को कई बार पढ चुका हूं। क्या जवाब दूं क्या न दूं इस बात के भी
विचार आपस मे ऑखमिचौली कर रहे हैं।
अंत मे कुछ नही समझ आने पे कलम उठा ली और तुम्हे लिखने लगा।
तुम्हे
मै ‘तुम’ लिख रहा हूं उम्मीद है इसे अन्यथा न लोगी। चूकि तुमने मुझपे
श्रद्धा और विष्वास किया है लिहाजा अब ‘आप’ कहना अटपटा लग रहा है। खैर ...
तुमने अपने बारे मे जो लिखा है उसे पढ के बहुत देर तक तुम्हारे बारे मे ही
सोचता रहा हू।
वैसे तो औरत होने का मतलब ही है दुख झेलना पर तुमने जो मानसिक यंत्रणा झेली है वह सच मे रुला देने वाली है।
दोस्त
मै समझ सकता हूं ऐसी स्थिति मे मन जहां कहीं भी झुकाव और पायेगा वहीं बह
जायेगा। भले ही वो आभासी दुनिया हो। लिहाजा इसमे तुम्हारा कोई दोष नही है।
दोस्त, तुमने अपने बारे मे तो थोडे षब्दों मे सब कुछ बहुत सलीके से बता
दिया उतनी दक्षता तो मेरे अल्फाजों मे तो नही हैं फिर भी मै संबंधो मे
भावो, विचारों और अनुभवों के आदान प्रदान के तहत मै भी अपने बारे मे तुमसे
कुछ साझा कर रहा हूं।
उम्मीद है तुम इस पत्र से मेरे बारे मे थोडा बहुत जान सकोगी।
तो दोस्त .....
तुमने
कभी रेगिस्तान देखा है। रेत ही रेत। रेत के सिवा कुछ भी नही। रेत, समझती
हो न। पत्थर, जो कभी चटटान की तरह खडा रहता है सदियों सदियों तक, पर धीरे
धीरे आफताब की तपिश और बारिष व तूफान से टूट टूट कर रेजा रेजा होकर बिखर
जाता है। तब वही पत्थर रेत का ढेर कहलाता है। और जब पूरा का पूरा पहाड़ रेजा
रेजा बिखर जाता है, तो वह रेगिस्तान कहलाता है।
उसी रेगिस्तान को
कभी गौर से देखना। जो दिन में आग सा दहकता और रात में बर्फ सा ठंड़ा होता
है। जिसके सीने पर मीलों तक सन्नाटा पसरा रहता है, मौत सा गहरा सन्नाटा।
जिसमें साथ देने के लिये पहाड़ों कि तरह चीड़ व चिनार के दरख्त नही होते।
खूबसूरत लहलहाते फूल के गुच्छे नही होते। दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाले
ठंडे़ पानी के चष्में नही होते। झील व कलकल करती नदियां नही होती।
वहां
ंजंगल में नाचने वाले मोर और कूकने वाली कोयल भी नही होती। शेर व चीता
जैसे चिंघाड़ने वाले जानवर भी नही होते। यहां तक कि मासूस शावक व फुदकती
हुयी गिलहरी भी नही होती। और न ही होती है मीलों तक एक के पीछे एक कतार से
चलने वाली चींटियां।
ऐसा ही एक रेगिस्तान मेरे अंदर भी फैला है।
जिसमें हरियाली के नाम पर छोटी छोटी अपने आप उग आने वाली कंटीली झाड़ियां है
या फिर अक्सर और दूर दूर पर दो दो चार चार की संख्या में खुरदुरे तने वाले
ताड़ या कहो खजूर के पेड़ होते है। जिनकी जड़ों में पानी देने के लिये कोई
नहर या झरना नही बहता। खाद व पानी देने के लिये कोई इंसान नही होता। फिर भी
ये षान से और पूरी अलमस्ती से खड़े रहते है। बिना किसी षिकवा शिकायत के
अपने उपर नुकीली पत्तियों का छाता सा लगाये।
जानती हो। एसे बीराने मरुस्थल में ये दरख्त कैसे जिंदा रहते हैं।
तो सुनो
जब
कभी कोई बदरिया अपने ऑचल के सारे जल को किसी पहाड़ या तराई पे बरसा के या
कहो लुटा के फिर से सागर की ओर जा रही होती है। और उसका रहा सहा जलकण सूरज
भी सूख चुका होता है। उसी छूंछे बादलों से ये पेड़ सूरज की रोशनी से ही कुछ
जल चुरा लेते हैं। और फिर षान से जिंदा ही नही रहते बल्कि अपने अंदर भी
मीठा मीठा जीवन रस पैदा करते और संजोते रहते हैं।
यही रस रात भर ऑसू की
तरह बहते रहते हैं, चुपके चुपके धीरे धीरे ताकि किसी को एहसास न ही उनकी
बीरानी का उनकी तंहाई का। लेकिन जमाने वाले उसे भी हंड़िया में बूंद बूंद भर
लेते हैं। ंऔर सुबह पीते हैं जिसे ताड़ी कहते हैं। और जानती हो उस ताड़ी में
हल्का हल्का मीठा मीठा सा नशा होता है। जो धूप चढ़ने के साथ साथ और भी
ज्यादा बढ़ता जाता है। इसके अलावा ये दरख्त उसी जल कणों से खजूर जैसे मीठे
फल भी उगा लेते हैं। ये सीधे पर थोडे़ से तिरछे खड़े होकर किसी थके व तपे
मुसाफिर को घनी छांह भले न दे पाते हों पर वे ताड़ी जैसा नशीला पेय और खजूर
सा मीठा अम्रततुल्य फल जरुर देते हैं जो इस रेगिस्तान के मुसाफिरों के लिये
वरदान है।
बस इसी तरह मै भी अपनी महबूबा और चाहने वालों से दूर चाहे
कितनी दूर रहूं। पर उनकी यादों और फोन कॉलों से प्रेमरस खींचता रहता हूं और
जिंदा रहता हूं।
लिहाजा मेरी बातों को ताड़ी और कविताओं को खजूर जानो।
बाकी तो एक पहाड़ हूं जो टूट टूट कर रेजा रेजा बिखर चुका है किसी रेगिस्तान की तरह।
तो
दोस्त यही मेरा परिचय है। यही मेरी कहानी। यही सक्षेंप है और यही विस्तार।
अब इन बातों से तुम क्या मतलब निकालती हो क्या समझ पाती हो ये तो मुझे नही
पता पर मेरे जीवन का बस इतना ही सच हो और इतना ही अनुभव है।
खैर ---
दोस्त उधर बाहर बादल किरणों से लड लड के थक चुके हैं और अब तितर बितर कर
आसमान मे न जाने कहां विलीन हो चुके हैं या फिर से समुंदर की सतह पे डुबकी
लगा रहे हैं फिर से उर्जा इक्ठठा करने के लिये फिर से बादल बन के बरसने और
उडने के लिये, सूरज से ऑखॅ मिचौली करने के लिये।
और इधर मेरा भी मन इन शब्दों को कागज पे उकेर के अपनी बातें तुमसे कह के उहापोह के बादलों से निकल सूरज सा चमकने लगा है।
इसी चमक के बीच घडी की सूई दिन के दूसरे कामो की आवाज लगा रहा है।
लिहाजा तुम्हो अगले पत्र के जवाब तक के लिये कलम को विराम देता हूं। शुभ दिवस ...
तुम्हारा दोस्त
एक बी मित्र कहानी की चौथी कड़ी -------------------
दोस्त,
सच
आपके शब्दों मे जादू होता है। प्यार, स्नेह, दोस्ती की सोंधी सोंधी महक
होती है अपनेपन की गमक होती है। जो एक एक लफज के साथ दिलों दिमाग पे बरसती
रहती हैं। आपके खत पढती हूं तो ऐसा लगता है मानो तपते हुये रेगिस्तान मे
बहुत दिनो बाद बरसती हुयी बारिस की फुहारें हो। सच .... दोस्त तुम जितना
प्यारा लिखते हो चीजों को महसूसते हो उसे पढ के मै ही नही कोई भी नही मान
सकता कि, ये षख्ष कभी पत्थर दिल रहा होगा जो रेजा रेजा बिखर के रेगिस्तान
बन गया है। अगर ये बात कुछ हद तक सच भी होगी ‘जो की नही है’ तो भी इतना
यकीं है इस सहरा मे इस मीलों फैले रेगिस्तान की जमी के भीतर भीतर जल का
मीठा सोता जरुर हरहराता है वरना शब्दों मे बातों मे भावों मे इतनी तरलता
इतनी मिठास न होती दोस्त। ‘माफ करना मैने भी तुम्हे तुम लिख दिया’ दिल नही
माना आप लिखने को’ कारण मुझे पता नही ................
कल तुम्हारा खत
पढ के काफी देर तक रोती रही रोती रही न जाने क्यूं। तुम्हारा खत पढ के लगा
कि हर एक इंसान के दिल मे एक रेगिस्तान फैला होता है। जिसमे नंगे पांव न
जाने किस मंजिल की तलाष मे फिरा करता है और एक दिन अपनी चाहतों की प्यास
लिये दिये उन्ही रेतीली जमीं पे दम तोड देता है।
सच दोस्त तुम इतना डूब के कैसे लिख लेते हो। तुम्हारी कलम को नमन है।
दोस्त
जी तो करता है तुमसे बतियाती रहूं बतियाती रहूं जब तक की सब कुछ कह न दूं,
जब तक कि शब्द साथ न छोड़ दे कुछ कहने को रह न जाये। बस एक स्वप्निल मौन मे
डूब न जाउं, पर जब तुमसे बतियाने के लिये तुमको लिखने की कोषिष करती हूं
तो सारे के सारे बिचार उत्तेजना की लपट मे कपूर की तरह उड जाते हैं और बस
..... आस पास रह जाती हैं तुम्हारे शब्दों की महक गमक जिसमे देर तक महमहाती
रहती हूं। बिना कुछ सोचे बिना कुछ लिखे बिना कुछ करे।
दोस्त यह सच है इन्सान मुहब्बत के बिना नही रह सकता। मुहब्बत ही है जो इन्सान के लिये हवा पानी और भोजन के बाद सबसे जरुरी तत्व है।
इस मामले मे आप की क्या सोच है, ये आप से सुनना अच्छा लगेंगा।
उम्मीद हे आप हमारी इस बात का जवाब देंगे।
बस ... अब आफिस रही हूं अपने दाना दुनके की तलाश मे।
तुम्हारी दोस्त
दोस्त,
तुमने
जिस तरह से मेरी तारीफ लिखी है मुझे नही लगता कि मै इस काबिल हूं। हां ये
जरुर है कि मेरी कोषिष रहती है कि किस तरह से लोगों की भावनाओं को बिना चोट
पहुंचांए सम्बंधो को न सिर्फ बनाये रखा जाये बल्कि मजबूत और मजबूत करते
रहा जाये। खैर ....
पत्र मे तुमने ‘प्रेम’ के सम्बंध के सम्बंध मे मेरी
राय जाननी चाही है। इस सम्बंध मे सिर्फ इतना ही कहूंगा कि ‘प्रेम’ तत्व को
कौन जान सका है। जिसने प्रेम को जान लिया उसने खुदा को जान लिया। वैसे भी
जानने वालों ने कहा है ‘मुहब्बत’ खुदा का दूसरा नाम है। और खुदा को कौन जान
सका है।
दोस्त फिर मेरे जैसा अदना इंसान क्या कुछ जान पायेगा।
इतना
तो तुम भी जानती होगी कि आज तक ‘प्रेम’ को ले कर जितना कहा और लिखा जा
चुका है उतना कोई और दूसरा विषय संसार मे कोई नही है। फिर भी यह ‘प्रेम’
तत्व आज तक अपरिभाषेय ही रहा आया है।
मेरे देखे भी तो प्रेम सिर्फ जिया
जा सकता है। प्रेम मे सिर्फ हुआ जा सकता है। प्रेम के संदर्भ मे कुछ इशारे
जरुर किये जा सकते हैं पर इसे पूरा का पूरा बयां नही किया जा सकता।
क्योेकि एक बात और जान लो जब षब्द मौन हो जाते हैं तब प्रेम मुखरित होता
है। लिहाजा तुम भी इसे सिर्फ गूंगे के गुड सा स्वाद तो लो पर बखान मत करो,
वैसे तो कर भी नही पाओगी। और, अगर कोषिष किया भी तो कोई खाश नतीजा नही आने
वाला।
चुकि तुमने इस संदर्भ मे मुझसे कुछ कहने को कहा है तो मैने आज
तक जो कुछ भी ‘प्रेम’ के बारे मे सुना है, पढा है अनुभव किया है उसे तुम्हे
पूरी ईमानदारी से बताने की कोषिष करुंगा।
तो दोस्त सुनो ...........
सबसे पहले इस प्रेम तत्व को समझने के लिये हम भारतीय वांगमय के सबसे पुराने
दर्षन पे जाते हैं और देखते हैं येह इस संदर्भ मे क्या कहता है।
सांख्य
की माने तो आदि तत्व ‘महतत्व’ दो तत्वों का योग है। महायोग। जो दो होकर भी
एक हैं और एक होकर भी दो हैं। यानी ‘अद्वैत’। वही अनादि तत्व प्रक्रिति और
पुरुष जब कभी परासत्ता की क्री इक्षावशात या यूं ही लीलावषात किसी
विक्षोभ यानी रज; यानी क्रिया करती है तभी यह प्रक्रति और पुरुष अलग अलग
भाषते हैं अलग अलग जन्मते और मरते हैं। अलग अलग जातियों में अलग अलग रुपों
में। लेकिन ये दोनो अनादि तत्व एक बार फिर से एक ही होने की अनुभूति के
लिये भटकते रहते हैं। उसी रज; यानी क्रिया के कारण जो किसी इड़ा की तरह
श्रद्धा यानी प्रक्रिति को पुरुष यानी मनु से मिलने नही देती। कारण रज;यानी
क्रिया का भी अपना आर्कषण है अपना प्रभाव है। इसलिये कहा जा सकता है जबतक
क्रिया का आर्कषण कायम रहेगा तबतक श्रद्धा व मनु एकाकार नही हो पाते बार
बार मिलने के बावजूद।
इसी बात को तंत्र इस तरह कहता है। आत्म तत्व
जब परमात्म तत्व से अलग हुआ ‘अहं’ के रुप में तो उसी वक्त उसका प्रतिद्वंदी
‘इदं’ तत्व भी अलग हुआ था। पहला पुरुष प्रधान दूसरा स्त्री प्रधान । दोनो
ही तत्व दो रुप एक ही सत्ता के अलग अलग दिषाओं में जन्म लेने लगे अलग अलग
रुपों में फिर से एक बार मिल जाने की ख्वाहिष में।
जब कभी दोनो खण्ड एक
दूसरे से फिर से एक बार मिल लेते है। तब एक अदभुत घटना घटती है। उसे ही
कहते हैं राधा व कान्हा का मिलन। राम व सीता का मिलना। या फिर हीर का रांझा
से मिलना या कि किसी सोहनी का महिवाल से मिलना।
तो मेरे हिसाब से
‘आत्म खण्ड’ के इन हिस्सों ‘इदं’ और ‘अहम’ के आपस मे दुबारा मिलने की जो
तडप होती है और जो उसके लिये प्रयास किये जाते हैं उसी का नाम ही ‘प्रेम’
है।
इसको अब इस तरह से भी समझो।
‘प्रेम’ षब्द में हम यदि ‘प’ से
प्रक्रति और ‘र’ से रवण यानी क्रिया व ‘म’ से पुरुष का बोध लें तो यह बात
बनती है कि जब प्रक्रिति, पुरुष के साथ रवण या क्रिया करती है तो जीवन की
जडों में एक धारा प्रवाहित होती है। जिसे ‘प्रेम’ की संज्ञा दी जा सकती है।
यह प्रेम धारा ही उस जीवन को पुष्पित व पल्लवित करती रहती है साथ ही पुर्ण
सत्य के खिलने और सुवासित होने देने का अवसर प्रदान करती है। यह धारा जीवन
के तीनो तलों षरीर, मन और आत्मा के स्तरों पर बराबर प्रवाहित होती रहनी
चाहिये। यदि यह धारा किन्ही कारणों से किसी भी स्तर पर बाधित होती है तो
जीवन पुष्प या तो पूरी तरह से खिलता नही है और खिलता है तो षीघ्र ही
मुरझाने लगता है।
यही रस धार यदि प्रथम तल तल पर रुक जाती है तो उसे
वासना कहते है। यदि यह मन पर पहुचती है तो उसे ही लोक भाषा में या सामान्य
अथों में ‘प्रेम’ कहते हैं। और फिर जब यह रसधार आगे अपने की यात्रा पर
आत्मा तक पहुंचती है तब उसे ही ‘सच्चा प्रेम’ या आध्यात्मिक प्रेम कहते
हैं। और उसके आगे जब ये रसधार गंगासागर में पंहुचती है तो वह ही ब्रम्ह से
लीन होकर ईष्वर स्वरुप हो जाती है।
प्रेम जब प्रथम तल पे होती है
तो वह कामवासना के रुप मे फलित होती है। जब वह सूक्ष्म षरीर की तरफ बढ़ती है
तो प्रेम का रुप ले लेती है और जब यही प्रेम की धारा शरीर के तीसरे कारण
शरीर को छूती है तब वह भक्ति बन जाती है।
तभी तो रामक्रष्ण परमहंस अपनी पत्नी को मॉ के रुप मे ही देख पाये और वे दुनियावी तौर पे कभी पति पत्नी की तरह नही रहे।
और इसी तरह मीरा का भी पेम क्रष्ण से कारण षरीर तक पहुंचा हुआ प्रेम है।
लिहाजा
प्रेम को समझने के लिये हमे अपने षरीर के तीनो तलों तक की यात्रा करनी
होगी तभी हम कुछ समझ पायेंगे उसके पहले तो सब कुछ वितंडामात्र है बातीं का
खाली लिफाफा है। जिससे कुछ हासिल नही होने वाला है।
प्रेम जब पहले तल
पे होता है तो सिर्फ प्रेमी के शरीर से मतलब होता है। वह उसे सुन्दर से
सुन्दर देखना चाहता है। उसे भोगना चाहता है।
दूसरे तल पे वह सिर्फ देना चाहता है। इस तल पे प्रेमी शांति को उपलब्ध होते हैं और तीसरे तल पे आनंद को उपलब्ध होते हैं।
दोस्त हम इस इस संदर्भ मे आगे चर्चा करेंगे फिलहाल इतना ही।
तुम्हारा दोस्त ...............