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Friday, 14 March 2014

खड़ी बदनशीबी रास्ता रोक कर

खड़ी बदनशीबी रास्ता रोक कर
नजूमी कह गया लकीरें देख कर

हम दर्द बना फिरता था अब तक
चला गया आज वह भी मुड़ कर

चाहता तो ज़वाब दे सकता था
मग़र चुप रह गया कुछ सोच कर

काली घनेरी रात के आलम में
बैठा हूँ देर से खामोशी ओढ़ कर 

नहीं लौटेगा इस बेदर्द शहर में
मुकेश गया हमसे यह बोल कर

मुकेश इलाहाबादी ----------------
 

Thursday, 13 March 2014

ऐ दोस्त, लब से न सही आखों से


ऐ दोस्त, लब से न सही आखों से ही इशारा कर दिया होता
एहसासे  दिल बयाँ करने का ये तरीका भी तो हो सकता था
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------------------

Tuesday, 11 March 2014

रखता हूँ मशरूफ़ ख़ुद को किसी न किसी बहाने से

रखता हूँ मशरूफ़ ख़ुद को किसी न किसी बहाने से
कोशिश है अपनी उनको भूल जाऊं इसी बहाने से
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------

एक सवाल --

एक सवाल --
मुहब्बत मौत से किसी तर कमतर नहीं
फिर क्यूँ लोग इश्क़ में ज़िन्द्गी ढूंढते हैं
मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Monday, 10 March 2014

आग की तासीर देखा

आग की तासीर देखा
खुदको जला कर देखा

कलंदरी होती है क्या
सबकुछ लुटाकर देखा

टूट जाने की हद तक
खुद को झुककर देखा

वह अपनी ज़िद पे था
बहुत तो मनाकर देखा

मुकेश ने सभी को तो
दर्दे दिल सूनाकर देखा

मुकेश इलाहाबादी ----

अक्सरहां लोग ख़फ़ा हो जाते हैं

बन के बादल बरसना नहीं आया
फूलों सा हमें खिलना नहीं आया

अक्सरहां लोग ख़फ़ा हो जाते हैं
बात मुंह देखी कहना नहीं आया

हमने ता उम्र आग ही आग देखी
कि आब सा रंवा होना नहीं आया

ठहरी हुई झील की मानिंद रहा
दरिया सा हमें बहना नहीं आया

टूट जाना ही बेहतर लगा हमको
आगे तूफाँ के झुकना नहीं आया

मुकेश इलाहाबादी -----------------


जो इक ज़माने से था उदास दिल बहल गया

जो इक ज़माने से था उदास दिल बहल गया
चाँद की अठखेलियाँ ऐसी समंदर मचल गया

सारे दरो दीवार दरीचे दिल के मुद्दतों से बंद थे
हल्की सी तेरे हाथो की थाप भर से खुल गया

ज़िंदा इक ज़रा सी उम्मीद के सहारे ही तो था
पाके तेरी मरमरी बाहों का सहारा संभल गया

मुट्ठी - मुट्ठी रेत मिली इक प्यारा सा घर बना
समंदर घरौंदा नहीं घर बहा कर निकल गया

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------

ज़रा सी शरारत और तारीफ में तो शरमा जाते हैं वो

ज़रा सी शरारत और तारीफ में तो शरमा जाते हैं वो
जाने अंजामे अदा क्या होगी जब वस्ल की रात होगी
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------

इश्क़ की बेचैनियाँ देखी

इश्क़ की
बेचैनियाँ देखी
ज़माने की
तल्खियां देखी
मौसमे खिज़र में
शाख से टूटती
ज़र्द पत्तियां देखी
गुलाब को भी
मात कर दे
रुखसार की ऐसी
सुर्खियाँ देखी
वक़्त से पहले बुढ़ाती
तमाम जवानियाँ देखी
भीड़ के चेहरे पे चस्पा
चुप्पियाँ देखी
किसी भी साज़ से न टूटे
हमने ऐसी खामोशियाँ देखी
नज़्म में मुकेश की
ढेरों खूबियां देखी

मुकेश इलाहाबादी --------

Sunday, 9 March 2014

माना कि ये सच है मै उसकी जुबां पे नही

माना कि ये सच है मै उसकी जुबां पे नही
मगर ये सच है भी मै उसके तसव्वुर मे हूँ
मुकेश इलाहाबादी --------------------------

ज़िंदगी हर रोज़ सरकती जा रही

ज़िंदगी हर रोज़ सरकती जा रही
मुट्ठी की रेत से फिसलती जा रही

चहचहा के परिंदे नीड़ पे लौट गए
धूप  सायबान से उतरती जा रही

कुछ उम्र कुछ ज़िंदगी की थकन
है चेहरे पे  शिकन बढ़ती जा रही

हर तरफ लड़ाई दंगा आतंकवाद
इंसानियत हर रोज़ मरती जा रही

इश्को मुहब्बत की क्या बात करे
उम्र मुकेश की भी ढलती जा रही

मुकेश इलाहाबादी -------------------

मुकेश बन के बादल न बरसता तो क्या करता ?

मुकेश बन के बादल न बरसता तो क्या करता ?
तमाशाई, बहुत थे कोई आग बुझाने वाला न था
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------

गौर से

गौर से
बिना फल
बिना पत्तियों के
सूखे पेड़ देखता हूँ
शायद इनमे
अपना प्रतिबिम्ब देखता हूँ

मुकेश इलाहाबादी -----------a

Saturday, 8 March 2014

अपने रुखसार की

अपने
रुखसार की
एक चुटकी सुर्खी
मल दो मेरे चेहरे पे
ताकि मै भी हो जाऊं
लाल गुलाल

अपने गीले गेसुओं को
झटक दो मेरे चेहरे पे
ताकि चांदी सी महमाती हुई
इन चांदी सी बूंदों से
महमा उट्ठे मेरा भी वज़ूद

अपने
सूने उपवन के
पट खोल दिए हैं मैंने
ताकि तुम आकर
डाल सको
एक फागुनी नज़र
और हरिया जाए
मेरा भी तन मन

मुकेश इलाहाबादी -----