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Sunday, 31 August 2014

किसी को मै कह सकूँ अपना कोई ऐसा न मिला

किसी को मै कह सकूँ अपना कोई ऐसा न मिला
आखों को सफर में कोई मंज़र सुहाना न मिला
ख्वाहिश थी कोई तो मुझको भी टूट कर चाहे तो
उम्र बीत गयी मगर कोई ऐसा दीवाना न मिला
अपने ख्वाबों के गिर्दाब में डूबता- उतराता हूँ
बहुत कोशिशों के बाद भी कोई किनारा न मिला
तुझसे मुलाक़ात के बाद एक उम्मीद जगी थी
लेकिन तुमसे भी हमको कोई सहारा न मिला
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

कोई झील नहीं, कुंआ नहीं, दरिया नहीं

कोई झील नहीं, कुंआ नहीं, दरिया नहीं
मेरी प्यास बुझे ऐसा कोई ज़रिया नहीं
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

लोग बैठे हैं घरों में अपने अपने

लोग बैठे हैं घरों में अपने अपने सूरज उगा के
हम भी बैठे हैं अँधेरे में ख़्वाबों का चाँद उगा के
मुकेश इलाहाबादी --------------------------
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मुहब्बत की नई परिभाषा बना लो

मुहब्बत की नई परिभाषा बना लो
आओ ज़रा हमसे मेल जोल बढ़ा लो

मेरी ग़ज़ल सुनो सुन के मुस्कुरा दो
अपनी हंसी कुछ और हसीं बना लो

तुम्हारे चेहरे पे नमकीन कशिश है
थोड़ा प्यार की सोंधी खुशबू बसा लो

फलक से तोड़ के लाया हूँ मै ये जो
इन सितारों को आँचल में सजा लो

ख़ाके सुपुर्द हो के फूल सा खिल गया
इस फूल को अपने गज़रे में लगा लो

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Saturday, 30 August 2014

कब तक मेरे कूचे से खामोशी से

कब तक मेरे कूचे से खामोशी से गुज़रते रहोगे,मुकेश
देखना एक रोज़ तेरी धड़कने खुद ब खुद आवाज़ देंगी
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------

अपने चाहने वालों की फेहरिस्त में

अपने चाहने वालों की फेहरिस्त में हमारा नाम भी रख लो
मुकेश उम्र के न जाने किस मुकाम पे हमारी ज़रुरत पड़
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------
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चलो अच्छा हुआ दर्दे दिल का बहना हुआ

चलो अच्छा हुआ दर्दे दिल का बहना हुआ
इसी बहाने तुमने हमारा हाल तो पूछा !
मुकेश इलाहाबादी --------------------------

हमारे दर्द की दवा न बन सको

हमारे दर्द की दवा न बन सको तो कोई बात नहीं
कम से कम सूखते ज़ख्मो को तो न कुरेदा होता
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------
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कभी बादल ख़फ़ा तो कभी सूरज

मज़बूरियां मेरी खिलखिलाती रहीं
ज़िंदगी बेहया सी मुस्कुराती रही

कभी बादल ख़फ़ा तो कभी सूरज
यूँ  मेरे घर धूप -छाँह आती रही

दरिया किनारे भी हम प्यासे रहे
लहरें आ - आ के लौट जाती रहीं

रोशनी से कहा था मेरे घर आओ
हर बार इक बहाना बनाती रही

ग़ज़ल अपनी मै किसको सुनाता
शब् भर तो तन्हाई गुनगुनाती रही

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Thursday, 28 August 2014

हमसे तो बहुत दूर रहती है वो

हमसे तो बहुत दूर रहती है वो
रक़ीब के करीब लगती है वो
 
ग़ज़लें मेरी सुन सुन के, एक 
मासूम सी हंसी हंसती है वो 
 
यूँ तो वो बातें बहुत करती है
पर फासला इक रखती है वो
 
दिल हमारा जिसपे आया है
मेरे घर के करीब रहती है वो
 
लब भले खामोश हों उसके
आखों से सबकुछ कहती है वो
 
जब से हुई है उसे मुहब्बत सी
जाने क्यूँ चुप चुप रहती है वो
 
पूछूंगा इक दिन ज़रूर उससे
संजीदा इतनी क्यूँ रहती है वो

मुकेश इलाहाबादी ---------------

इबादतख़ाने में हिन्दू और मुसलमान जाता है



इबादतख़ाने में हिन्दू और मुसलमान जाता है
मैख़ाना वह जगह है जंहाँ सिर्फ इंसान जाता है
मुझको न मतलब है बुतखाने से न मैखाने से
मुकेश जंहा मुहब्बत हो वहां सुबो शाम जाता है

मुकेश इलाहबादी ---------------------------------

Wednesday, 27 August 2014

जितनी भी जी मज़बूरी लगी

जितनी भी जी मज़बूरी लगी
तेरे बगैर ज़िंदगी अधूरी लगी
पास तेरे रह के महसूस हुआ
इक सांस की दूरी भी दूरी लगी
अब तक तो मौत से खेलते रहे
तुझे पा के ज़िंदगी ज़रूरी लगी
मक़ते में लिख कर  तेरा नाम
मुकेश ग़ज़ल मुझे पूरी लगी

मुकेश इलाहाबादी -------------

मस अला उतना बड़ा हरगिज़ न था

मस अला उतना बड़ा हरगिज़ न था 
जितना हमको रुसवा  किया गया 
हमने तो सिर्फ दिल ही तो माँगा था
और ज़नाब ने तमाशा बना दिया ?

मुकेश इलाहाबादी --------------------

अब तो घर- घर बाज़ार हो गए

अब तो घर- घर बाज़ार हो गए
हम भी बिकने को तैयार हो गए

धर्म और ईमां की बातें मत करो
सब विक्रेता और खरीदार हो गए

जुबां से हलके हो गए तो क्या ??
जेब से तो हम वज़नदार हो गए

सारे चोर, उच्चक्के और बेईमान
आज इज़्ज़त औ रुतबेदार हो गए

झूठ और फरेबियों के बीच मुकेश
सच बोलने के गुनहगार हो गए

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Tuesday, 26 August 2014

लोग बेवज़ह तुमको गुलाब नहीं कहते

लोग बेवज़ह तुमको गुलाब नहीं कहते
तुम्हारे ही दम पे, ये चमन औ खुशबू है
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
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किसी और से हमने गुफ्तगू नहीं की

किसी और से हमने गुफ्तगू नहीं की
तुझसे उस दिन के मुलाक़ात के बाद
इक अरसा हुआ हमने शहर नही देखा
घर से नहीं निकला उस शाम के बाद

मुकेश इलाहाबादी --------------------
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वो अफ़साना निगार

 हम तो तुझे हूँ ब हूँ चाँद बनाने का हुनर रखते हैं दोस्त
 मुकेश इलाहाबादी

Monday, 25 August 2014

कि चलो साँझ हो गयी घर चलें

कि चलो साँझ हो गयी घर चलें
जिनका घर नहीं वो किधर चलें

ज़मीं पर कोई जगह बची  नहीं
चलो घर बसाने चाँद पर चलें ?

मंज़िल दूर और कठिन डगर है
क्यूँ न हम ठहर- ठहर कर चलें

जिन्हे मंज़िल पे जल्दी जाना  है
गुज़ारिश उनसे आठों पहर चलें

जिनके पास घोड़ा- गाड़ी नहीं है
बेहतर है कि वे फुटपाथ पर चलें

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Sunday, 24 August 2014

तेरे आईने जैसे चेहरे के तहरीर हर कोई पढ़नी चाहे है,

तेरे आईने जैसे चेहरे के तहरीर हर कोई पढ़नी चाहे है,
चलो इसी बहाने ज़माना मुहब्बत की रहा पे तो निकला
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------
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भले ही तमाम ठोकरें खाता रहा हूँ मै

भले ही तमाम ठोकरें खाता रहा हूँ मै
कुछ खाशियत ले के जीता रहा हूँ मै
है अंदाज़े फ़क़ीरी रंवा मेरी रग रग में
दुनिया तेरे मिज़ाज़ का बंदा नहीं हूँ मै

मुकेश इलाहाबादी --------------------
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मत पूछ मुझसे

मत पूछ मुझसे मेरी बरबादी का शबब, ऐ मुकेश
बस ये जान ले मैंने मुहब्बत को शिद्दत से जिया है
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

चलो, तुम अपना नाम "कंवल' रख लो

चलो,
तुम अपना नाम
"कंवल' रख लो
और मै बन जाऊं
'हवा का झोंका'
बस फिर तुम
मेरी बाहों में
हौले हौले डोलना

मुकेश इलाहाबादी ---

नाम सूरज शहर अँधेरा देखा

नाम सूरज शहर अँधेरा देखा
हमसे मत पूछो क्या क्या देखा

काले धंधे काली करतूतें जिनकी
पैरहन उनका हमने उजला देखा

दुनिया लाख क़सीदे पढ़ती हो पै
चाँद का मुँह भी हमने टेढ़ा देखा

ज़मीं की मुहब्बत में उफ़ुक़ पर
हमने आसमान को झुकता देखा

मुकेश दिन भर हँसता रहता है
पर हर साँझ उसे संजीदा देखा

मुकेश इलाहाबादी ---------------

Saturday, 23 August 2014

दरवाज़े पे जा के देख आये हैं

दरवाज़े पे जा के देख आये हैं
हर आहट पे लगे वो आये हैं
हर बार उनको न पाकर के
मायूस हो कर लौट आये हैं

तो समझो मुहब्बत हो गयी है

जब भी उनका ज़िक्र आये है
लबों पे मुस्कराहट फ़ैल जाए है
ज़िक्र किसी और का होता हो
बात मेहबूब की निकल जाए है

तो समझो मुहब्बत हो गयी है

रात- रत भर नींद न आये है
दिन बेख्याली में गुज़र जाए है
जहाँ में रूसवाइयां होने लगे, तेरा
नाम उसके नाम से जुड़ जाए है

तो समझ लो मुहब्बत हो गयी है
 
मुकेश इलाहाबादी -----------

Thursday, 21 August 2014

आ तू मिल जा मुझसे इसके पहले -पहले

आ तू मिल जा  मुझसे इसके पहले -पहले
चाहतों का दरिया सूख जाने के पहले - पहले
शामो सहर खिला रहूंगा, महकता रहूंगा 
तोड़ ले  गुले इश्क़ मुरझाने के पहले पहले
ज़माने की नज़र तुझको भी लग सकती है
तज़र्बा मुहब्बत का ले ले इसके पहले -पहले
लोग हीर-रांझा को भूल गए अब हमें भी भूलें
दास्ताने मुहब्बत लिख दें इसके पहले -पहले
तेरा हुस्न भी ढल जाएगा और मेरी जवानी
गले लग जा क़यामत आने के पहले -पहले
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

Monday, 18 August 2014

दिल भी उनका, धड़कन भी उनकी, बेचैनी भी उनकी

दिल भी उनका, धड़कन भी उनकी, बेचैनी भी उनकी
जो पूछता हूँ हाल दिल तो कहंते हैं 'हमें कुछ मालूम नहीं'
बिछड़ते वक़्त हमने जो पूछा 'अब कब मुलाक़ात होगी ?
चल दिए हंस के कहते हुए 'मुकेश,हमें कुछ मालूम नहीं '
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------------

चलो अच्छा हुआ कुछ दिन गर्दिश में कटे,,,

चलो अच्छा हुआ कुछ दिन गर्दिश में कटे,,,
वर्ना इक तज़ुर्बे से मरहूम रहते मियाँ मुकेश
मुकेश इलाहाबादी --------------------------

छत पे कब तक टंगी रहती धूप

छत पे कब तक टंगी रहती धूप
साँझ होते ही उतरने लगी धूप

बदन तरबतर पसीने से उसका
ज़िंदगी हो गयी दोपहर की धूप

गोरी छत पे गीले गेसू सुखा रही
उसके मुखड़े पे मुस्कुरा रही धूप

जाड़े के मौसम में नरम लिहाफ
तपते मौसम में बेहया सी धूप

काली स्याह रात के बाद ज़मी पे
उजली चादर सी बिछ गयी धूप

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Sunday, 17 August 2014

लख -लख जनम दिन मनाते रहिये कान्हा जी



लख -लख जनम दिन मनाते रहिये कान्हा जी
थोड़ी भक्तों पर भी दया बनाये रखिये कान्हा जी

तुम तो खाते हरदम  दूध, मलाई, मक्खन मिश्री
हमको भी तो थोड़ी छांछ पिलाते रहिये कान्हा जी

पूतना कंस बकासुर तुमने मारे बहुत हैं दवापर में 
कलयुग के भी असुरों का तो वध करिये कान्हा जी

पोटली भर तंदुल तुमको दे कर राजा भयो सुदामा
हम भी लाये पत्रं पुष्पम,कुछ तो दीजिये कान्हा जी

तुम तो सखियों के संग बैकुंठ में बैठे हो रास रचाते
हमको भी इक दो सखियों से मिलवाइये कान्हा जी

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------

दिल में हुक सी उठती है,

दिल में हुक सी उठती है, तेरी तस्वीर देख कर
फिर शुकूं भी मिलता है, तेरी तस्वीर देख कर
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

न कोई कुण्डी न कोई दरवाज़ा पाओगे

न कोई कुण्डी न कोई दरवाज़ा पाओगे
जब भी आओगे मेरा दर खुला पाओगे
आखों में छलकते हुए ग़म के प्याले
दूर तक लहराता समंदर काला पाओगे
सुना है वक़्त हर घाव भर देता है पर
मेरा हर ज़ख्म आज भी हरा पाओगे
भले ही बाहर से दीवारे दरक चुकी हों
मगर घर अंदर से वैसे का वैसा पाओगे
यूँ तो कोई वज़ह नहीं है मुस्कुराने की
फिर भी तुम मुझे हँसता हुआ पाओगे
 

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Saturday, 16 August 2014

दिन का चैन रातों की नींद चुराने वाले

दिन का चैन रातों की नींद चुराने वाले
दर्दे दिल क्या जानेंगे दिल दुखाने वाले
 

हंसने मुस्कुराने की बात कौन करता है
बज़्म में बैठे हैं सभी रोने - रुलाने वाले
 

है बादशाहियत रंवा हमारी रग -रग में
हम वो आशिक़ नहीं,नखरे उठाने वाले  
 

यूँ तो महफ़िल में होंगे बहुत सुख़नवर
न होंगे वहाँ कोई हम जैसा सुनाने वाले
 

मुकेश रहा आया है अब - तक शान से
कब  के मर-खप गए हमें झुकाने वाले

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Friday, 15 August 2014

ये चैन की नींद सोन वाले क्या जानेंगे

ये चैन की नींद सोन वाले क्या जानेंगे
हैं फलक मे कितने सितारे क्या जानेंगे

जिसने कभी गम की स्याही नही देखी
होती है काली कितनी रातें क्या जानेंगे

पक्के महल-दूमहले मे रहने वाले लोग
ये टूटी छप्पर की बरसातें क्या जानेंगे

होती हैं जिनके पाँव के नीचे ज़न्नत
ये होते हैं पाँव के छाले क्या जानेंगे

बहता हो चश्मे हयात पहलू मे जिनके
मुकेश होते हैं ग़म के प्याले क्या जानेंगे

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Wednesday, 13 August 2014

अपनी बेचैनियों को वे तबीयते नासाज़ समझते हैं

अपनी बेचैनियों को वे तबीयते नासाज़ समझते हैं
मुकेश उन्हें क्या पता इसी को तो मुहब्बत कहते हैं
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------------

की जिसने बेवफाई, खासदार निकला

की जिसने बेवफाई, खासदार निकला
जेब से दोस्त के खंज़र धारदार निकला

महफ़िल में पैरहन सबने उजले पहने थे 
दामन मगर हरएक का दागदार निकला

ले गए जिसको अपनी गवााही के वास्ते
वही शख्श दुश्मन का तरफदार निकला

हम जिसे अब तक मासूम समझते रहे,,
ईश्क के मामले में वो बरखुदार निकला 

ज़माना नातजुर्बेकार माना गया मगर 
मुकेश आदमी बड़ा समझदार निकला 

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

हैं निशार हम उनकी उन्ही अदाओं पे  
जिन अदाओं ने हमारी जाँ तक ले ली

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Tuesday, 12 August 2014

हार से वह अपनी बिफर गया

हार से वह अपनी  बिफर गया
ताश के पत्तों सा बिखर गया

अभी - अभी इस सड़क से वो
इक  अजनबी सा  गुज़र गया

आज भी ढूंढता हूँ भीड़ में वह
मासूम सा चेहरा किधर गया

रास्ते तो थे तमाम फिर भी,
वह इधर गया न उधर गया

वो इक निगाह प्यार की तेरी
मुकेश फिर से निखार गया

मुकेश इलाहाबादी -------------

कोई तुमसा मिला होता तो ये बात सच भी हो सकती थी

कोई तुमसा मिला होता तो ये बात सच भी हो सकती थी
तेरी सादगी के सिवाय मेरी जान और कोई ले नहीं सकता
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------------

ये तो कहो तीरगी ऐ हिज़्र में तेरी यादें जुगनू बन के चमकती हैं,,,

ये तो कहो तीरगी ऐ हिज़्र में तेरी यादें जुगनू बन के चमकती हैं,,,
वर्ना हम तो अब तक खो गए होते मुकेश ग़म की अंधेरी रिदा में

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------------------

Monday, 11 August 2014

तू मिल जाए तो पूरी है

तू मिल जाए तो पूरी है
ज़िंदगी वरना अधूरी है

दिल मिले तो ठीक,वर्ना
नज़दीकी भी इक दूरी है

आँखें व धड़कन बोले है
लब बोलें ये भी ज़रूरी है

कह तो दूँ दिल की बात
संकोच बड़ी मज़बूरी है

तेरे मेरे सावन के बीच
दो टकियां दी नौकरी है

मुकेश इलाहाबादी ----

बस तू ही और तेरे दीदार के आगे - पीछे

          बस तू ही और तेरे दीदार के आगे - पीछे              
          हम कंहा फिरते हैं दो चार के आगे - पीछे

          आसमाँ छू लूँगी इक रोज़ है ये यकीं मुझे
          हौसला है मेरी रफ़्तार के आगे - पीछे

         तेरा इज़हारे मुहब्बत हो यही सोच के मैंने
          फिर रही हूँ तेरे इक़रार के आगे - पीछे

         ज़िंदगी मौत से मिल जाएगी रफ़्ता - रफ़्ता
         तेरा ग़म है तेरी बीमार के आगे - पीछे

         दोस्तों को ही थे मालूम मेरे राज़ सभी
         हाथ किस का है मेरी हार के आगे- पीछे

         हसरतें हो गयी बेताब न जाने कितनी ?
         मेरी पाज़ेब की झंकार के आगे - पीछे

       राज़ को राज़ ही रहने दो बताओ न ख़ुमार
       किस का ग़म है दिले बीमार के आगे - पीछे

      रईसा ख़ुमार --------------------------------

Friday, 8 August 2014

इक किताब लिखूं, सिर्फ तेरा नाम लिखूं

इक किताब लिखूं, सिर्फ तेरा नाम लिखूं
तेरी हंसी सुबह औ ज़ुल्फ़ को शाम लिखूं

ये जो खिलता हुआ लाल गुलाब है, और
महकता हुआ चमन मै तेरे नाम लिखूं

इस फ़क़ीर के पास कोई जागीर तो नहीं
दिले दौलत औ सब कुछ तेरे नाम लिखूं

जानता हूँ तेरा जवाब हरगिज़ न आएगा
अपनी तसल्ली के लिए रोज़ पैगाम लिखूं

कंही मेरे नाम से तेरी रुसवाई न हो जाए
मुकेश तेरे नाम की ग़ज़ल गुमनाम लिखूं

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Thursday, 7 August 2014

हम ये सोच कर खुश रहते हैं,

हम ये सोच कर खुश रहते हैं,
उन्हें हमारे ज़ख्मो का पता न लगे
और वो है कि हमें ज़ख्म दे कर मुस्कुराते हैं

उनकी आखों की हल्की सी भी नमी
हम सोख लेते हैं अपने लबों से
वो सोचते हैं, चलो इसी बहाने
हमने किसी की तिश्नगी दूर की

मुकेश इलाहाबादी --------------

Wednesday, 6 August 2014

जाने किस बात की सज़ा पा रहा हूँ

जाने किस बात की सज़ा पा रहा हूँ
राह ऐ  ज़िदंगी में तनहा जा रहा हूँ

निकले थे तेरे घर की ज़ानिब मगर
ऎ दोस्त ! ये कंहा से कंहा जा रहा हूँ

दिले जज़्बात का दरिया लिए हुए
रौ में मै अपनी ही बहा जा रहा हूँ

तुम तक मेरी आवाज़ न पहुंचेगी
फिर भी तुम्हे पुकारे जा रहा हूँ

हर शख्श अपनी  धुन में मस्त है
और  मै अपनी ग़ज़ल गा रहा हूँ

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Tuesday, 5 August 2014

सिर्फ दुआ सलाम का राब्ता रक्खा

सिर्फ दुआ सलाम का राब्ता रक्खा
रिश्तों में हमेशा इक फासला रक्खा

तमाम बेरुखी सहने के बावजूद भी
चारग उम्मीद का हमने जला रक्खा

ऐसा नहीं ख़ल्वत में मुलाकात न हुई
दरम्यान अपने हया का परदा रक्खा

पहलू में अपने समंदर लिए फिरते थे
फिर भी हमें उम्र - भर पप्यासा रक्खा

गर आज मुलाक़ाात हो गयी मुकेश तो
दूसरी मुलाक़ात में इक वक्फ़ा रक्खा

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

ख़ल्वत - एकांत / राब्ता - सम्बन्ध / वक़्फ़ा - अंतराल

Monday, 4 August 2014

मुहब्बत के फूल खिलाओ प्यारे

मुहब्बत के फूल खिलाओ प्यारे
दिले चमन को महकाओ प्यारे

है रात अंधेरी और सफर लम्बा
मसाल ऐ हौसला जलाओ प्यारे

नफरत पत्थर की लकीर नहीं है 
मिल कर रंजिशें मिटाओ प्यारे

कुछ सिरफिरे भाई भटके गए हैं,
उन्हें भी राहे इश्क़ दिखाओ प्यारे 

बहुत दिनों बाद तो मिले हो तुम
ज़िदंगी कैसी कटी बताओ प्यारे

यूँ गुमसुम से तो न बैठो मुकेश 
कोई इक ग़ज़ल सुनाओ प्यारे

मुकेश इलाहाबादी -------------

मशाल बन के हम जला करते हैं

मशाल बन के हम जला करते हैं
तीरगी में जुगनू सा फिरा करते हैं
मुकेश इलाहाबादी ------------------

Sunday, 3 August 2014

भीगी - भीगी रात थी

भीगी - भीगी रात थी
यादों की बरसात थी
तुम नौ में पढ़ती थी
पहली मुलाक़ात थी
यूँ तो तमाम लोग थे
तुम्हारी अलग बात थी
गुलाब की ताज़ी कली
सबसे बड़ी सौगात थी
तुम्हारे जाने के बाद
ज़ीस्त अंधेरी रात थी

मुकेश इलाहाबादी ---

ऐ मुकेश वजहें ओर भी हैं ग़मज़दगी के

ऐ मुकेश वजहें ओर भी हैं ग़मज़दगी के
इश्क़ तो बेवज़ह बदनाम हुआ करता है
मुकेश इलाहाबादी ------------------------- 

Friday, 1 August 2014

सुबह औ शाम नकली है


सुबह औ शाम नकली है
सभी मुस्कान नकली है

अब खेतों में जो उगता है
वो गेहूं और धान नकली है

सिर्फ पैकेजिंग चमकती है
अंदर का सामान नकली है

तुम जो बैठक में सजाये हो 
वो गुलो-गुलदान नकली है

तुम जिसे असली समझते हो
मुकेश वही इंसान नकली हैं

मुकेश इलाहाबादी ----------------

बुनियाद में नमी बैठी है

बुनियाद में नमी बैठी है
दीवार  सीली दिखती है

चहचहाटें उड़ गईं यहाँ से
तन्हाई गुटरगूं करती है

जिस्म नहीं खाली मकां है
जाँ गैर के दिल में रहती है

दरियाए ईश्क सूख चुका
अब रेत की नदी बहती है

तुम्हारी ग़म ज़दा आखें
आज भी कुछ कहती हैं

मुकेश इलाहाबादी  ----