एक बोर आदमी का रोजनामचा
Pages
Home
Sunday 31 December 2017
बादलों से रोशनी छन-छन के हमपे आने लगी हैं
बादलों से रोशनी छन-छन के हमपे आने लगी हैं
अब खामोशियाँ आप की हमसे बतियाने लगी हैं
मुकेश हम तो चुपचाप बैठ गए थे दरिया किनारे
अब तो हमसे लहरें रह - रह के बतियाने लगी हैं
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------
Friday 29 December 2017
कंही जाऊँ, कंही भी आऊं जी,कंही नहीं बहलता
कंही जाऊँ, कंही भी आऊं जी,कंही नहीं बहलता
क्या करूँ तेरे सिवाय कंही और जी नहीं लगता
इक तू ही तो है जो जिससे कह लेता हूँ सब कुछ
क्या करूँ कोई और मेरा हाले दिल नहीं समझता
है इक क़तरा आब के लिए रूह प्यासी क्या करूँ
दरिया झील समंदर सूखे सावन भी नहीं बरसता
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------
शूल बन उगने लगे हैं रिश्ते
शूल बन उगने लगे हैं रिश्ते
बदन पे चुभने लगे हैं रिश्ते
अब वो पहले सी गर्मी कँहा
बर्फ सा जमने लगे हैं रिश्ते
वक़्त के हथौड़े की चोट खा
टूटने-बिखरने लगे हैं रिश्ते
दिल से दिल की बात नही
पैसों से नपने लगे हैं रिश्ते
व्हाटस ऐप मोबाइल पे ही
मुकेश निभने लगे हैं रिश्ते
मुकेश इलाहाबादी ----------
Saturday 23 December 2017
इल्म की दुनिया में फूल सा खिलूँगा मै
इल्म की दुनिया में फूल सा खिलूँगा मै
खुशबू हूँ ,ज़माने से कब तक छुपूँगा मै
मिला के हाँथ छुपा के खंज़र मिलूंगा मै
तुम्हारे ही अंदाज़ में तुझसे मिलूंगा मै
चराग़ नहीं हूँ, बुझ जाऊँ हवा के झोंके से
अलाव हूँ मै , बुझते - बुझते ही बुझूंगा मै
अभी रात है , उफ़ुक़ पे जाके डूबा हुआ हूँ
शुबो होते ही आफताफ सा फिर उगूंगा मै
ईश्क़ से ज़्यादा ज़रूरी कई काम हैं मुकेश
ज़िंदगी ने मौका दिया तो फिर मिलूंगा मै
मुकेश इलाहाबादी -------------------------
Friday 22 December 2017
चराग़ नही हूँ बुझ जाऊँ हवा के झोंके
से अलाव हूँ मैँ बुझते - बुझते ही बूझूँगा मै अभी रात है, उफ़ुक़ पे जा के डूबा हुआ हूँ शुबो होते ही आफताब सा फिर उगूँगा मै मुकेश इलाहाबादी -----------------------
सांझ होते बिखर जाता हूँ,
सांझ होते बिखर जाता हूँ,
शुबो ख़ुद ही संवर जाता हूँ
ज़िदंगी जिधर ले जाती है
सिर्फ उधर - उधर जाता हूँ
आवारा हूँ और बंजारा भी
मत पूछ ! किधर जाता हूँ
तू हँसती है खिल्ल - खिल्ल
मै खुशी से मर मर जाता हूँ
चाँद जब ढलने को होता है
रात मुकेश तब घर जाता हूँ
मुकेश इलाहाबादी ---------
Thursday 21 December 2017
हम सो न सके इसके बाद
हम सो न सके इसके बाद
तुमसे दोस्ती होने के बाद
कल, मै बहुत देर खुश रहा
तुझसे हाथ मिलाने के बाद
आँखों - आँखों में कटी रात
मुलाक़ात के वायदे के बाद
सिर से बोझ सा उतर गया
तुझको ग़म बताने के बाद
चला जाऊंगा महफ़िल से ही
बस ये ग़ज़ल सुनाने के बाद
लौट के कौन आता है यंहा
इक बार मौत आने के बाद
मुकेश इलाहाबादी -----------
ख़ाक में मिलेंगे, फूल बन के खिलेंगे
ख़ाक में मिलेंगे, फूल बन के खिलेंगे
खशबू बन कर तुझसे से ही लिपटेंगे
सूरज से कहेंगे आब सा हमें सोख ले
बादल बनेंगे और तेरे दर पे ही बरसेंगे
ग़र, ख़ुदा जो मिल जाये किसी दिन
कुछ और नहीं उससे, तुझे ही माँगेंगे
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
Tuesday 19 December 2017
सोचता हूँ ये गुनाह कर लूँ मै भी
सोचता हूँ ये गुनाह कर लूँ मै भी
शराब ईश्क़ से जाम भर लूँ मै भी
रह जाए क्यूँ कोई अरमाँ दिल में
खुल के तुमसे ईश्क़ कर लूँ मै भी
सारी दुनिया फ़िदा है तुझपे, फिर
क्यूँ न तेरी सूरत पे मर लूँ मै भी
मुकेश इलाहाबादी ---------------
Monday 18 December 2017
तुमसे मिलना होगा न मिलाना होगा
तुमसे मिलना होगा न मिलाना होगा
मेरा अब कभी भी न मुस्कुराना होगा
न मेरा ख़त पढोगे न मेरी कही सुनोगे
मुझे अपनी बातें ग़ज़ल में कहना होगा
न जुगनू, न चाँद न, पास कोई चराग़
सफर मुझे अँधेरे में तय करना होगा
मेरा चाँद अभी बादलों की ओट में है
दीदार के लिए कुछ देर ठहरना होगा
ईश्क़ का मज़ा जो चाहते हो देर तक
कुछ पल के लिए सही बिछड़ना होगा
मुकेश इलाहाबादी --------------------
Sunday 17 December 2017
किसी रोज़ तेरी हँसी चुरा लूँगा
किसी रोज़ तेरी हँसी चुरा लूँगा
अकेले में बैठ फिर फिर सुनूँगा
भौंरों से कलियों से तितली से
तू है सबसे जुदा सबसे कहूँगा
सारी दौलत लुटा दूंगा, मुकेश,
इक तेरी यादें किसी को न दूँगा
मुकेश इलाहाबादी ------------
तेरे ख्वाबों की गलियों से गुज़रते हैं रोज़
तेरे ख्वाबों की गलियों से गुज़रते हैं रोज़
कि दरिया ऐ ईश्क़ में हम उतरते हैं रोज़
तमाम बेरुखी के बाद भी, न जाने क्यूँ ?
बड़ी शिद्दत से तेरा इंतज़ार करते हैं रोज़
ईश्क़ के बाग़ में टहल रहे हैं हम औ तुम
बस इक तुम्हारा ही ख्वाब देखते हैं रोज़
इनकार कर दे तो या कि इक़रार कर ले
कह दूँ ,दिल की बात यही सोचते हैं रोज़
पत्थर के बुत से है, तुमने दिल लगाया
हमसे ये बात ज़माने वाले कहते हैं रोज़
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
Monday 11 December 2017
इतना सारा दर्द ले कर कहाँ जाऊँ
इतना सारा दर्द ले कर कहाँ जाऊँ
तुमको न बताऊँ,तो किसे बताऊँ
जिस्म के हर हिस्से पे तो घाव हैं
किसको छुपाऊँ किसको दिखाऊँ
शुबो से शाम तक मसरूफियत है
तूही बता तुझसे मिलने कब आऊँ
तुम पूछते हो किसने दग़ा किया
एक शख्श हो तो नाम गिनाऊँ
तू ही मेरी नज़्म तू ही मेरी ग़ज़ल
आ तुझे तेरे नाम की ग़ज़ल सुनाऊँ
मुकेश इलाहाबादी ----------------
Newer Posts
Older Posts
Home
Subscribe to:
Posts (Atom)