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Saturday 31 October 2020

कान,

 कान, 

सिर्फ बाहर की ही नहीं 

अन्दर की भी ध्वनियाँ सुनते हैं 

तभी तो,

कानों ने सुना 

वेद की ऋचाएँ 

पुराणों की कथाएँ 

उपनिषदों के मन्त्र 

गीता के श्लोक 

जातक कथाएँ 

अवेस्ता की गाथाएं 

और ,,

बेहद अंतर्तम में 

गूंजती 

सोऽहं की ध्वनि 


और,

बाहर की ध्वनियों में सुना 

बादल का राग 

कोयल की कूक 

गिलहरी की चुक -चुक 

हिरन की कुलाँचे 

हाथी की चिंघाड़ 

शेर की दहाड़ 

झींगुर की - झुन - झुन 

पायल की रुनझुन 

बच्चों की किलकारी 

पेड़ों की सरसराहट 

और सन्नाटे की आवाज 


यही नहीं,

कानों ने सुना 

और भी बहुत कुछ 

और भी बहुत कुछ 

पर कान धीरे - धीरे इन ध्वनियों को छोड़ 

अभ्यस्त हो गए 

सुनने को 

तेज़ दौड़ते वाहनों की चिल्लपों 

मशीनों की धड़- धड़ 

नेताओं / टी वी एंकरों की करकस आवाज़े 

कट्टरपंथियों और जेहादियों की भीड़ से उठते 

वीभत्स नारे 

और फिर धीरे धीरे इन ध्वनियों को छोड़ 

कान सुनने लगे सिर्फ और सिर्फ 

अपने मतलब की बात 

और कान खोने लगे 

अपनी सुनने की क्षमता 

वे कान जो सुना है कभी 

हाथी के कानो से लम्बे होते थे 

छोटे होते होते 

महज तीन या चार अंगुल के बाकी रह गए 

वे भी शायद 

एक दिन आदि मानव की पूछ की तरह 

गायब  जाएँ

और जब किसी दिन 

हम चश्मा की डंडी कानो पे चढ़ा रहे हों 

और वो खिसक के गिर - गिर जाए 

और हम कानो को हाथ लगाने पर 

अपनी जगह नहीं पाएं 

हम हड़बड़ा में आईने में देखें 

या किसी की आँखों में 

और हम ये सोचें कि 

शायद हमारे कान चूहे कुतर गएँ हैं -- रात 

या फिर कोइ सियाना कौवा कान ले उड़ा होगा 

तो ये हमारी  बहुत बड़ी 

गलतफहमी होगी - मेरे दोस्त 


मुकेश इलाहाबादी -----------------------------






Wednesday 28 October 2020

औपचारिक रूप से

 एक 

---


हम 

कभी औपचारिक रूप से 

किसी के द्वारा मिलवाये नहीं गए 

बस हम 

सभा सोसाइटी में 

तो कभी राह चलते 

गाहे - बगाहे 

मिलते - मिलाते रहे 

एक दूसरे  को जानते समझते रहे 

और महसूसने लगे 

शिद्दत से 

एक दूजे को 

बिना कुछ कहे 

बिना कुछ सुने 

बहुत दिनों तक ,,,,,,,


दो 

---


हमारी 

गाहे - बगाहे की 

औपचारिक मुलाकातें भी 

कभी सामाजिकता 

तो कभी व्यस्तता 

तो कभी संकोच वश 

कमतर होती गईं थी 

और इतनी कम कि 

हम एक दूजे को भूले भी नहीं 

जी भर मिले भी नहीं 



तीन 

---


हमारी 

गाहे बगाहे की 

कम होती 

औपचारिक या कहो अनौपचारिक 

सी मुलाकातों के बीच 

एक दिन तुम्हे पता लगा होगा 

मैंने शहर छोड़ दिया है 

और ,,,, बहुत अर्से बाद मैंने भी सुना 

तुमने भी शहर छोड़ दिया (शादी के बाद )

और इस तरह हमारी अनौपचारिक रूप 

से मुलाकातों का अंत हुआ 



चार 

----


शायद

हम औपचारिक रूप से 

बिदा नहीं हुए 

अन्यथा 

हम भी एक दूजे से 

आख़िरी बार मिले होते 

किसी झुटपुटी सांझ 

छत पे 

या किसी पार्क के कोने में 

अमलतास की झरती पीली पत्तियों के बीच 

या किसी कैफ़े डे की कोने वाली सीट पे 

और तब 

हम  दुसरे की हथेली को पकडे हुए 

महसूसते देर तक 

आँखों ही आँखों में 

कहा होता बहुत कुछ 

औपचारिक सा 

अनौपचारिक सा 

और छूट जाता तुम्हारी प्लेट में 

अधखाया डोसा 

और मेरे कप में 

थोड़ी सी कॉफी 

और फिर हम 

बिदा हो लिए होते 

औपचारिक रूप से 

फिर कभी न मिलने के लिए 


(और टूटता हुआ देखते एक सितारा बहुत दूर )


मुकेश इलाहाबादी --------------------------












Tuesday 27 October 2020

मछलियाँ

 अपने

गुलाबी
और कभी रंग बिरंगे डैनो से
तैरते और गलफड़ों से
पानी के बुलबुले छोड़ते हुए
मछलियाँ
आराम से तैरती रहती हैं
जल में
बिना ये सोचे वो
समंदर के अथाह जल में
तैर रही है या
उस नदी में जो
हिमालय से लेकर
गंगा सागर तक फ़ैली है
या किसी रेगिस्तान में सूख जाने
वाली बरसाती नदी या नाले में
या कि
छोटी और छोटी होती नदी में
जो छोटी होती है
इतनी छोटी कि
उस नदी के तट
काँच के एक्वैरियम की
दीवारों में सिमट जाती है
हालाकि
मछली ये भी जानती है
कि उसे तो एक न एक दिन
किसी मछुवारे के जाल में फंसना ही है
या किसी मगरमच्छ का
ग्रास बनना ही है
या फिर किसी तूफ़ान में
नदी से छिटक
रेत् में तड़फ - तड़फ
दम तोडना है
मुकेश इलाहाबादी --------------

गुलाबी जाड़े में जब तुम हँसती हो

 गुलाबी

जाड़े में
जब तुम हँसती हो
तो तुम्हारे
दूध से सफ़ेद गाल
ऐसे लगते हैं जैसे
दो खरगोश
किसी भी
वक़्त कुलाँचे
मारते हुए
दौड़ लगा देंगे
मुकेश इलाहाबादी -----

प्यार में पडी लड़कियों की ख्वाहिशें भी अजीब होती हैं

 प्यार 

में पडी लड़कियों की 

ख्वाहिशें भी अजीब होती हैं 


कभी तो वो चाहती हैं 

जैसे कोइ जौहरी 

हीरे जवाहरात से जड़ी अँगूठी 

रखता है 

बड़े जतन और प्यार से 

मखमल की डिबिया में 

ठीक वैसे ही 

उनकी मुहब्बत उन्हें 

क़ैद कर ले अपनी आंखो में 


और फिर 

मुहब्बत करते वक़्त 

उसकी सख्त उँगलियाँ 

तब्दील हो जाएँ 

मोर पंखी में 

जिससे वो सहलाए उनके 

मखमली गालों को 

और उसकी बाहें 

बदल जाएँ रूई के फाहे में 

जिसमे उठा के वो 

उनके कान के लबों पे रख दे 

अपने होंठ और फिर वे 

तरबतर हो जाएँ 

एक रूहानी खुशबू में 

और कभी तो चाहती हैं 

वो कैद हो जाएँ 

अपने प्रेमी के पहाड़ से सीने में 

और फौलाद सी बाँहों में 

जिसमे वो दब के 

कह उठें "उफ्फ "

और फिर कभी तो 

इत्ती मुहब्बत से रूठ के चली जाना 

चाहें 

अपने प्रेमी से 

दूर 

और बहुत दूर 


मुकेश इलाहाबादी ------------


Sunday 25 October 2020

बहुत पहले मै पहाड़ में तब्दील हो गया था

 बहुत 

पहले मै 

पहाड़ में तब्दील हो गया था 

जिसपे 

ख़ामोशी की 

मोटी बर्फ जम गयी थी 

फिर ,

एक दिन 

तुम्हारे नाम का सूरज उगा 

और 

फिर तुम्हारे गालों की 

सुर्ख धूप से बर्फ पिघलने लगी 

और मै धीरे - धीरे 

झरने में तब्दील हो गया हूँ 

किसी सांझ तुम भी 

चाँद बन 

उतर आओ 

और हम करें 

केलि 


मुकेश इलाहाबादी -----


Saturday 24 October 2020

फुटकर नोट्स,,,

 फुटकर नोट्स,,,

एक,,,
हर
रोज तुम्हारी
यादों के सिक्के
गिनता हूं
और फिर उन्हें
दिल के उदास गुल्लक मे
रख कर सो जाता हूँ
दो,,
जीवन
के सारे रंग
उड़ चुके हैं
जो बचे हैं वे भी
धूसर हो गए हैं
और ये सब हुआ
तुम्हारे जाने के बाद
तीन,,,
तुम्हारी
चकमक- चकमक
सी आँखे
रौशन रखती थीं
जीवन की स्याह रातें
अब कोई चाँद सितारा या
रोशनी नहीं है मेरे पास
चार,,
जब भी
उदासी के बादल
बरसते हैं
तुम्हारे नाम की
नीली छतरी तान लेता हूँ
पांच ,,,
तुम्हारे नाम की
खूंटी पे
आज भी टंगी हैं
मेरी तमाम
उम्मीदें
मुकेश इलाहाबादी,,,,

पसीना उसकी करियाई पीठ पे ग़ज़ल लिखती है

 पसीना उसकी करियाई पीठ पे ग़ज़ल लिखती है 

ज़िंदगी फावड़ा गैंती बसूली से ग़ज़ल लिखती है 


गिद्ध ऐ सी ऑफिस और ऐ सी गाड़ी में बैठते हैं 

झूठ और मक्कारी उनके लिए ग़ज़ल लिखती है 


जिनकी आँखे झील चेहरा महताब सांसे चन्दन 

ऐसे नाज़नीनों की हर अदाएं ग़ज़ल लिखती हैं 


सूर कबीर तुलसी मीरा रसखान पैदा होते हैं तो 

ऊनकी  भक्ति ग्यान और बातें ग़ज़ल लिखती हैं 


हर दिल आबाद नहीं होता कुछ खंडहर भी होते हैं 

वहां उधड़े पलस्तर टूटी दीवारें ग़ज़ल लिखती हैं 



मुकेश इलाहाबादी ----------------------------




Thursday 22 October 2020

तेरी यादों के गुलदस्ते हैं

 तेरी यादों के गुलदस्ते हैं

ये हरदम महके रहते हैं
तेरे साथ होता हूँ तो हम
ग़म में भी हँसते रहते हैं
हर ख्वाहिश इक परिंदा
तुझसे ही चहके रहते हैं
साँसे भी कुछ कहती हैं
गले लिपट कर सुनते हैं
आ जाओ गोरी अब तो
नौका विहार पे चलते हैं
मुकेश इलाहाबादी -----

थोडा सा गुस्सा थोड़ा सा प्यार

 थोडा

सा गुस्सा
थोड़ा सा प्यार
थोड़ा नखरा
थोड़ी सी हया है
गोरी! तेरी इन
आँखों कि पिटारी में
बता
और क्या क्या है ?
न भाँग
न धतूरा
न शराब
फिर भी
चढ़ जाए तो
फिर न उतरे
बता तेरी
बातों में
नशा कौन सा
घुला है ???
तू
न हाँ कहती है
न "ना " कहती है
फिर क्यूँ इत्ती बातें करती है
मुझको
कुछ तो बता
तेरे मन में
क्या है ????
मुकेश इलाहाबादी -----

चाँद का खिलना सितारों का टिमटिमाना और बात

 चाँद का खिलना सितारों का टिमटिमाना और बात

तुम्हारा यूँ रह रह के हँसना खिलखिलाना और बात
तुम ख्वाबों में आती हो तो मेरी रात हंसी हो जाती है
पर तुझसे रू ब बरू मिलना और बतियाना और बात
यूँ तो तुम्हारी हर अदा सब से जुदा सबसे निराली है
तेरा बात बात पे रूठ जाना फिर मान जाना और बात
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

मै इक आइना चटका हुआ हूँ

 मै इक आइना चटका हुआ हूँ

या पत्ता डाल से टूटा हुआ हूँ
कोई तो हो समेट ले मुझको
रेज़ा- रेज़ा मै बिखरा हुआ हूँ
जिस्म मेरा ग़म का मकबरा
फ़िलहाल वहीं ठहरा हुआ हूँ
यूँ तो नशे की कोई लत नहीं
तेरे ही इश्क़ में बहका हुआ हूँ
कोई तो मेरे घर का पता बता
इक मुसाफिर भटका हुआ हूँ
मुकेश इलाहाबादी ----------

प्लास्टिक के फूलों में वो ताज़गी ढूंढता है

 प्लास्टिक के फूलों में वो ताज़गी ढूंढता है

कागज़ पे चराग़ लिख के रोशनी ढूंढता है
इसी सहरा में कहीं ग़ुम हो गया था दरिया
तभी रेत में अपनी खोई हुई नदी ढूंढता है
उसे मालूम नहीं शायद लौट के आती नहीं
सज संवर के अपनी खोई जवानी ढूंढता है
लहराती थी छलछलाती थी बल खाती थी
बर्फ हो गयी ज़िंदगानी में रवानी ढूंढता है
सांझ होते ही मुकेश चला आता है छत पे
फलक पे टकटकी लगा के चाँदनी ढूंढता है
मुकेश इलाहाबादी -------------------

यूँ कुछ इस तरह हम भीग जाते हैं

 यूँ कुछ इस तरह हम भीग जाते हैं 

ग़म के बादल आते हैं बरस जाते हैं 


हम तो रिन्द हैं हमें पीने से गरज़ 

जहाँ दिखी मधुशाला ठहर जाते हैं 


कई बार सोचता हूँ मै रात ढलते ही 

ये चाँद और सितारे किधर जाते हैं 


हम फकीरों को दौलत से क्या गरज

जिधर देखी मुहब्बत उधर जाते हैं 


मुकेश हैरत होती है देख कर कैसे 

वायदा कर के लोग मुकर जाते हैं 


मुकेश इलाहाबादी ---------------




Monday 5 October 2020

इधर तू पानी में पाँव पखारती है

इधर 

तू पानी में पाँव पखारती है 

उधर 

मेरी आँखों में मछलियाँ तैरती है 


उधर तू

अपने दरीचे खोलती है 

इधर मेरे घर

चाँदनी उतरती है 


हवाऐं 

जो तेरे दर से आती हैं 

उन्ही से तो 

मेरी साँसे महकती है 


ये और बात 

तुझसे ही मेरी धड़कन है 

पर तू है की 

मुझको भूली रखती है 


मुकेश इलाहाबादी --------


न साफ हवा है न धूप है न पानी है

 न साफ हवा है न धूप है न पानी है

हम जी रहे हैं खुदा की मेहरबानी है
न हौसला है न शौक है न जुनून है
क्या कहूं बड़ी बेशर्म सी जवानी है
किसी को बताऊँ भी तो बताऊँ क्या
उदास मौसम हैं उदास ज़िंदगानी है
ऐसा नहीं दर्दों ग़म सिर्फ मेरे पास हो
बेचैनियाँ अब घर -घर की कहानी है
कौन कहता है रगों में खून बहता है
रवाँ खुदगर्जी है चोरी है बेईमानी है
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

आज भी घर अपना सजाये हुए हैं

 आज भी घर अपना सजाये हुए हैं

तेरी तस्वीर दिल से लगाये हुए हैं
शब भर महके है मेरा घर आँगन
यादों की रातरानी खिलाये हुए हैं
हिचकियाँ नही आती ये और बात
ऐसा भी नहीं तुझको भुलाये हुए हैं
तेरे नाम की तहरीर पढ़ न ले कोई
मुहब्बत तेरी सबसे छुपाये हुए हैं
तूने आज शायद हाँ कह दिया है
मुक्कू इसी बात पे इतराये हुए हैं
मुकेश इलाहाबादी ----------------
Ranjana Shukla, Preety Sriwastawa and 47 others
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एक ही नदी साझा हो के बह रही थी

 एक

ही नदी
साझा हो के
बह रही थी
हमारे दरम्याँ
जिसे
हम दोनों ने
उलीचा एक दूसरे पे
खुश हुए
उछलती हुई
लहरों को देख
फिर हम बहुत देर उलीचते रहे
एक दुसरे के सुख को / दुःख को
और
भीगते - भिगोते रहे
एक दूजे को
बहुत देर तक
मुकेश इलाहाबादी -----

तुमने कहा "मुझे ब्लैक कॉफी पसंद है "

तुमने
कहा "मुझे ब्लैक कॉफी पसंद है "
फिर
हमने पी - कई बार
ब्लैक कॉफी
तुमने कहा हमें पसंद है
दरिया किनारे - कनारे टहलना
हम टहले कई - कई बार
दूर तक
तुमने कहा
हमें पसंद है लॉन्ग ड्राइव
पे जाना और रास्ते भर सुनना
पसंदीदा ग़ज़लें व गाने
हम गए लॉन्ग ड्राइव पे
सुने गाने
फिर लौटते वक़्त
तुम्हे अचानक याद आया
तुम्हे लौटना जरूरी है
और तुम लौट गए (न लौटने के लिए )
जरूरी काम से
बिना
मुझसे पूछे
मुझे क्या पसंद है
(खैर ! अब लौट भी आते हो तो मत पूछना
मुझे क्या पसंद है।
क्यूँ कि अब तक - मै खुद भी भूल चुका हूँ
मुझे क्या पसंद है )
मुकेश इलाहाबादी -----------

तुझे देखूँ तुझे सोचूँ तुझे चाहूँ तुझे मह्सूसूँ

 तुझे देखूँ तुझे सोचूँ तुझे चाहूँ तुझे मह्सूसूँ 

फिर उँगलियों के पोरों से हौले - हौले छू लूँ 


किसी सावन की घटा से कम नहीं तेरे गेसू 

तू अपनी भीगी ज़ुल्फ़ें झटके और मै भीगूँ 


हकीकत में तो न आओगे मालूम है हमको 

ख्वाब में ही आने का वादा करो तो मै सोऊँ 

 

ईश्क़ के समंदर किनारे ये जो चांदी के रेत है 

आ जाओ तुम्हारे संग ख्वाबों के घरौंदे रूधूँ 


मुकेश बड़ा जी उदास उदास सा रहे है मेरा 

बैठ पास मेरे तेरे काँधे पे सर रख कर रो लूँ 


मुकेश इलाहाबादी -------------------------