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Wednesday 29 February 2012

जी तो चाहता है

भंग की तरंग --------
जी तो चाहता है,
तेरी आखों में कूद जाऊं,
दरिया ऐ मुहब्बत में डूब जाऊं
ग़र तू हाँ न करे तो,
तेरे दर पे ही खुदकशी कर जाऊं
जी तो चाहता है,
टेसू, गुलाब, चंपा, कनेर
गुलशन के सारे फूल तोड़ कर
आब ऐ मुहब्बत मिला के
एक नया नया रंग बनाकर
तेरे तेरे गालों में लगा आऊँ
और फिर जब तू शरमा के
मुह दुपट्टे से छुपा के भाग जाए
तब खुश हो के मै,
ढपली बजा बजा, फागुन के गीत गाऊँ

मुकेश इलाहाबादी

Tuesday 28 February 2012

उसी अदा से ज़ुल्फ़ सजाते हुए

बैठे ठाले की तरंग ---------

उसी अदा से ज़ुल्फ़ सजाते हुए
आज भी दिखे बाज़ार जाते हुए

हम खुस हो गए उन्हें देखकर,पै
वे चल दिए,फिर दिल जलाते हुए

इक बार हमने किया था सलाम
मुह बिचका दिया आँख मटकाते हुए

आज भी हैं हम, उसी दर पे काबिज़
कभी तो दिखेंगे, पलट के आते हुए

आ चलो, फिर चलें, उसी मैखाने में
फिर फिर वही ग़ज़ल गुनगुनाते हुए

मुकेश इलाहाबादी ----------------

नफरत करने के लिए वक़्त ही कंहा है?

बैठे ठाले की तरंग -------------
 
नफरत करने के लिए वक़्त ही कंहा है?
पैगामे मुहब्बत,  इतने लिए फिरता हूँ !  
 
मुकेश इलाहाबादी ------------

Monday 27 February 2012

होली


बैठे ठाले की तरंग

!!!!! होली मुबारक हो !!!!!!
होली,
भाई हमरा बोर्डर पे,
पहरा देवे सारी रात
भौजी खेलें कैसे फाग?
जब कजरा रोवै सारी रात

पहली होली पीहर की,
बहिनी खेलै आयी,
अबहिंन से है बाप दुखी
कईसे करब बिदाई?

सूजी महंगी, मैदा महंगा,
महंग बहुत तरकारी,
चुन्नू-मुन्नू कैसे खेलैं होली ?
महंग बहुत पिचकारी

आँख में होवे आंसू लाख,
हम ते होली खेलब आज,
अब तो पी के भंग का रंग
फगुवा गाउब सारी रात

मुकेश इलाहाबादी  -----------        
 

सफर कि इतनी तैयारी न कर, चल तू

 
 
 
सफ़र के मुताल्लिक पेशेखिदमत है, चंद
पंक्तियाँ ------------

सफर कि इतनी तैयारी न कर, चल तू
धूप सर पे आये इसके पहले, चल तू

कुछ वैर्फस व कोल्ड़िंक भी साथ रख तू
मॉ, प्याज,सत्तू,चबैना अपने घर रख तू

वक्त जरुरत को ही बचाये थे चंद पैसे
सफर मे काम आयगें साथ अपने रख तू

धूप, हवा और पानी कुछ न कर पायेगें
सफर में इरादा बुलंद रख, फिर चल तू

अब उंट, घोड़े, बैलगाडी की न कर बातें
रेल व हवाईजहाज मे सफर कर, चल तू

सफ़र कैसा भी हो तन्हा न काट पायेगंे
कम अज कम एक साथी, साथ रख तू

इतनी भी बेफिक्री ठीक नही कारवां में
सफर मे है, कुछ तो एहतियात रख तू

ये ज़रुरी नही कारवां में ही चल तू
तू सही है तो अकेला ही चला चल तू

मंजिल तक साथ कुछ न साथ जायगा
बस थोडी़ नेकी व इसानियत साथ रख तू

हवा में न उड़ा, कुछ मेरी बात भी सुन तू
रह गुजर था कभी ये सबक साथ रख तू

मुकेश इलाहाबादी

मिजाज़पुर्शी के बाद, चाय पिला देता हूँ

बैठे ठाले की तरंग ---------------

मिजाज़पुर्शी के बाद, चाय पिला देता हूँ
बरसों का याराना है,यारी निभा देता हूँ

उलाहने देता फिरूं,हर वक़्त,आदत नहीं
ग़र बात चली तो हर बात गिना देता हूँ

कोई जादूगर या कोई फरिस्ता नहीं पै,
अक्सर पत्थर पे भी गुल खिला देता हूँ

मुकेश इलाहाबादी -----------------


Sunday 26 February 2012

निकले थे, तफरीहन सफ़र के लिए


बैठे ठाले की तरंग ------------


निकले थे, तफरीहन सफ़र के लिए
आप मिल  गए हमें उम्र भर के लिए

फिरते हैं अखबारनवीस शहर भर में
कोई तो हादिसा होगा, खबर के लिए

तल्ख़ मेरी बातें हैं, इसलिए, की कोई
जगह नहीं इसमें अगर मगर के लिए

वे रोज़ खिल सकें सिर्फ मेरी नज़र में
बिछ गया हूँ फलक सा, कमर के लिए

मै सफरे ज़िन्दगी में जुल्फों की छाँव हूँ
आ, तू ठहर जा ज़रा एक पहर के लिए

मुकेश इलाहाबादी -----------------




Friday 24 February 2012

बेटी का मेल पिता के नाम

(mukesh ilaahabaadee)

बेटी का मेल पिता के नाम

ड़ैड़ी,
इस बार टूर से लौटते वक्त   
भले ही गिफ्ट मत लाना
पर इस मेल को पढ़ कर
यह वादा जरुर करना कि
मेरी इन सभी बातों को पूरा करेंगे
पहली बात
आप मेरा नाम उस स्कूल मे लिखायेंगे
जहां बहुत ज्यादा होम वर्क नही दिया जाता हो
और बहुत ज्यादा मार्क्स लाने के लिये
बच्चों को प्रेस न किया जाता हो
सच पापा ज्यादा ये ज्यादा मार्क्स लाने की टेंसन में
मै स्कूल आवर को ईटरटेन नही कर पाती
और पापा स्कूल घर से ज्यादा दूर भी नहो
क्यों कि जरा सी देर होने पर मम्मी परेशान होने लगती हैं
कि कहीं मेरे साथ कोई हादसा तो नही हो गया।
इसके अलावा ड़ैड़ी
अपना नया मकान उस जगह लेना
जहां  पड़ोस के अंकल
अंकल जैसे ही हों
न कि बात करते करते गाल और पीठ छूने की कोशिश  करते हों
और पापा अगल बगल के भइया लोग भी ऐसे न हों
जो मम्मी को सामने तो आंटी या भाभी जी कहते हों
और पीठ पीछे गंदी गंदी बातें कहते हों
डैडी एक बात और
मेरा स्कूल मे कोई भी ब्वाय फ्रेंड  नही है
मुझे सभी लड़के खराब लगते हैं
वे अभी से सिगरेट और बियर पीते हैं
और गंदी गंदी बातें भी करते हैं
मै तो उन सबसे दूर रहती हूं
मेरा तो बस एक दोस्त है
पर डैडी वह बहुत सीधा है
ज्यादातर चुप ही रहता है
डसके ड़ैडी किसी औरत के साथ घूमते रहते हैं
और उसकी मम्मी नेट पर पता नही किससे किससे
चैट करती रहती है
यह सब उसे अच्छा नही लगता
पर वह छोटा है इसी लिये कुछ नही कह सकता
पर मेरे प्यारे डैडी आपतो ऐसे नही है।
और मम्मी भी ऐसी नही हैं
पर आजकल मम्मी को भी नेट पे चैटिंग का शौक लग रहा है
यह मुझे भी अच्छा नही लगता
पापा आप उन्हे अपनी तरह से समझा दीजियेगा
मै उनकी षिकायत नही कर रही
पर मम्मी को क्या पता कि अक्सर जेंटस लोग ही
फेमनिन नेम से आई डी खोल कर औरतों से
चैट करते रहते हैं
डैडी आपतो बहुत अच्छे हैं और  यह सब जानते भी है।
डै़डी आप नया मकान उस जगह लीजियेगा
जंहां रोज रोज बम न फटते हों
और लोग एक दूसरे से मिलजुल कर रहते हों
और मेरा स्कूल भी घर के पास हो
ताकि देर होने पर मम्मी चिंता न रहे
ड़ैड़ी अब मै चाह कर भी छोटी मिडी नही पहनती
लोग मुझे कम मेरी टांगो को ज्यादा देखते हैं
ड़ैड़ी मुझे नही मालुम आप यह मेल पढ़ कर क्या सोचेंगे
पर मै ये बाते कहूं भी तो किससे?
क्योंकि मेरी तो काई दीदी भी नही है
और दादी भी नही है अगर
मम्मी से कहो तो वह झिडक देती हैं
कहती हैं तुम अपने आपमे सही रहो
दूसरो से मतलब क्यों रखती हो
पर ड़ैड़ी, आदमी अकेले तो सही नही रह सकता
जबतब कि दूसरे भी सही न हों
पापा यह बात मम्मी को आप समझाइयेगा
और मेरी इन सब बातों को पूरा करना भूल मत जाइयेगा
भले ही आप मेरे लिये गिफ्ट  लाना भूल जायें

आपकी अच्छी बेटी


















मुकेष श्रीवास्तव
दिल्ली
2.5.9




हीर की पाजेब तो अब भी खनकती है

बैठे ठाले की तरंग -------------
 


हीर की पाजेब तो अब भी खनकती है
वे  रांझे  ही  न  जाने  कंहा ग़ुम हो गए
 



मुकेश इलाहाबादी ---------------

Thursday 23 February 2012



 आपका ये चरागे हुस्न,
 कब का बुझ गया होता
 जो हमने हथेलियों की,
 कंदील न बनाया होता


मुकेश इलाहाबादी-----------

गो कि, मेरा घर तेरे दर से दूर बहोत है




                                                                                           बैठे ठाले की तरंग -----------

                                                                                 
                                                                             

 
गो कि, मेरा घर तेरे दर से दूर  बहोत है
पै, तेरे  रूह  की  सेंक  इधर आती तो है

गर, ये निगोड़ी हवा, राह  में न भटकती
तेरे आँचल की हवा मुझ तक आती तो है

 

                                                                                     चुप्पियाँ अक्सर फुसफुसाती हैं, शहर  मे 
                                                                                    थोड़ी ही सही मगर,अपनी रुसवाईयाँ तो है

                                                                                                                                       


                                                                                                                        मुकेश इलाहाबादी --

यूँ मुस्करा के, बिन कुछ कहे चले जाना


यूँ मुस्करा के, बिन कुछ कहे चले जाना
ये मुस्कराहट नहीं अंदाज़ है कातिलाना
मुकेश इलाहाबादी --------

Wednesday 22 February 2012

पत्नी और मै


पत्नी और मै

मुझे पसंद है
सफेद और आसमानी
पत्नी को पसंद है
चटक रंग
जैसे नारंगी
लाल, हरा व पीला भी
सिर्फ रंग ही नही
दूसरी भी बहुत सी आदतें अगल हैं
जैसे मुझे पसंद है
आराम कुर्सी मे बैठ
पीना चाय कॉफी
या ऐसा ही कुछ
और उड़ाना सिगरेट के छल्ले
मुह  को गोल गोल करके
पर पत्नी को पसंद है
चिड़िया सा उड़ना फुर्र फुर्र
और गाना कोयल सा कुहू कुहू
या फिर बतियाना आस पड़ोस मे
चाहे आया ही क्यों न हो
मुझे पसंद नही, छुटटी के दिन
जाना बाजार और लौटना
थैला भर सब्जी के साथ
पर पत्नी को पसंद है
चुनना एक एक आलू
मटर, टमाटर हरा व ताजा
और रखना सहेज कर
पर इन अलग अलग आदतों
व विचारों के बावजूद
हम रहते हैं साथ साथ
आराम से
जिसे आप घर कह सकते हैं।


मुकेश इलाहाबादी

अब्बू...


अब्बू...

एक

अब्बू खूंटी थे
दीवाल के कोने से लगी
जिसमे हम टांग देते
अपनी छोटी बड़ी समसयाएं
इच्छाएं
मसलन कापी, किताब, पेन, पेंसिल
टॉफी, बैट बाल आदि आदि
और मम्मी टांग देतीं
छोटी बड़ी जरुरतें
मसलन
धनिया,मिर्ची, सब्जी
आटा, दाल आदि आदि
और अब्बू खूंटी मे
टंगे न जाने किस जादू के झोले से
निकाल लाते
एक एक चीजे
सच्ची मुच्ची की
सब के मर्जी की
व जरुरियात की

दो

अब्बू
अलार्म घड़ी थे
हर वक्त टिक टिक करती
न चाबी देने की दिक
न बैटरी भरने की जरुरत
पर हर वक्त
आगाह करती
कि
पढाई का वक्त हो गया है
पढ लो
सोने का वक्त का हो गया है
सोलो
या कि अमुक काम का वक्त हो गया है
न करोगे तो पछताओगे
आदि आदि

तीन

अब्बू घर की दीवार थे
बाहर सहती धूप पानी
और तूफान
अंदर साफ चिकनी रंगी पुती दीवार
जिसके सहन मे
हम भाई बहन व
मॉ रहते
निस्फिकर और निस्चिंत
अब्बू न जाने किस मिटटी के बने थे

चार

खूंटी, दीवार और घड़ी तो
अब भी है
पर अब
खूंटी से हमारी जरुरतें नही
निकलती, सेंटा क्लाज की तरह
और नाही
घड़ी अर्लाम बजाती है
जरुरत के वक्त
और दीवारों के बिना
हम खड़े हैं
रेगिस्तान मे अपने तम्बू
और कनात के साथ

अब्बू घर की
खुटी थे
घड़ी थे
दीवार थे
अब्बू पूरा घर थे


मुकेश  श्रीवास्तव

इतनी नहीं पी कि

बैठे ठाले की तरंग ---------
 
इतनी नहीं पी कि रुसवा ऐ ज़माना किया जाए
गुज़रे थे   मैक़दे से, सोचा थोड़ी चख लिया जाए


मुकेश इलाहाबादी -----------

आवारा फितरत को लगाम दे दूं

बैठे ठाले की तरंग ---------------

आवारा फितरत को लगाम दे दूं
तुम्हारे जिम्मे ये काम दे दूं

बहुत उड़ चुका खलाओं में अब तक
जिस्म को थोडा आराम दे दूं

फैसला कब तक मुल्तवी रखूँ ?
आ इसे मुहब्बत नाम दे दूं

बहुत तीश्नालब है मुसाफिर, कहो तो
तुम्हारे लबों से एक जाम दे दूं

बेला के फूल चुनने आयी हो तुम, कहो तो 
ये बाग़ तुम्हे ईनाम दे दूं 

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Tuesday 21 February 2012

यूँ ही नहीं लाल है आँगन मेरा

बैठे ठाले की तरंग ------------
 
 
यूँ  ही  नहीं  लाल है आँगन मेरा
 

रात बादलों से बरसा है लहू मेरा
 




 मुकेश इलाहाबादी -----------

चाँद ने खुद ब खुद,

बैठे ठाले की तरंग -------
 

चाँद  ने  खुद  ब  खुद,
दोस्ती का हाथ बढ़ाया है
ये आसमां झुक गया या,
मेरा क़द बढ़ गया है ?
 



मुकेश इलाहाबादी -------

राख में महफूज़ हैं चिंगारियां

बैठे ठाले की तरंग -----------
 
राख में महफूज़ हैं चिंगारियां
मत कुरेदो बुझते हुए अलाव को
 
मुकेश इलाहाबादी --------------

अपनी साँसे सहेज के रख लूं,

बैठे ठाले की तरंग -------------

अपनी  साँसे  सहेज के रख लूं, कि
उन्हें कुछ देर से आने की आदत है


मुकेश इलाहाबादी ------------

डूबती आख्नों में सवाल ज़िन्दगी का


बैठे थाले की तरंग ------------------------

डूबती  आख्नों  में  सवाल ज़िन्दगी का
मिला नहीं माकूल जवाब ज़िन्दगी का

तमाम हसरतों का होना था यही हश्र
मिलना फिर बिछड़ना अंजाम ज़िन्दगी का


मुकेश इलाहाबादी -----------------------------



मेरी तन्हाई पे हंसता हुआ शोर


Add caption
बैठे ठाले की तरंग ----------






मेरी तन्हाई पे हंसता हुआ शोर
तेरी  पाजेब  की  झंकार  लगे है






मुकेश इलाहाबादी------------- 

Monday 20 February 2012

समर के साथ दरख़्त भी कट जाएगा

बैठे ठाले की तरंग ----------- 


समर के साथ दरख़्त भी कट जाएगा
तब ये परिंदों का शहर, कंहा जाएगा ?

पर   नहीं   परिंदे   का   हौसला  देखना
जंहा  आसमां  की  हद  है वंहा जाएगा 

परिंदा है,  फलक  में  कब तलक रहेगा
फलक मेंआज़ादी है ज़रूर वंहा जाएगा
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

ख्वाब हैं की जिद किये बैठे हैं

बैठे ठाले की तरंग,-----------------

ख्वाब  हैं की जिद किये बैठे  हैं 
जाने किस फिक्र को लिए बैठे हैं 

चाँद  जब उगेगा,  तब  हम  उगेंगे
सितारे भी अजब जिद किये बैठे हैं  

कभी  तो  कोंई  तो  मनाने  आएगा
वे  इसी  बात  को  लिए  दिए बैठे हैं  

नाराजगी  है  उन्हें  ज़माने  भर  से
न  जाने  क्यूँ   खफा हमसे  बैठे हैं  

कभी  तो  दरिया  इधर से  गुजरेगा 
सहरा में अबतक ये जिद लिए बैठे हैं 

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Saturday 18 February 2012

बेअनुपात लोग -----------


कुछ लोगों  के कान      
इतने बडे होते हैं कि
सुन लेते हैं दूर से ही
क्या कुछ कहा जा रहा है
उनके खिलाफ

अक्सर उनके कान
छोटे हो जाते हैं
इतने छोटे कि  
वे सुन पाते हैं
र्सिफ अपनो की बात

कुछ लोगों की आंख
इतनी बडी होती है कि
देख लेते हैं दूर से ही
अपने मतलब की चीजें
पर अक्सर कर लेते हैं
अपनी आंख इतनी छोटी कि
नही देख पाते
चीजें दूसरों के मतलब की


कुछ लोगों के हाथ
इतने बडे होते हैं कि
कानून से भी लम्बे हो जाते हैं
और बांटते वक्त
इतने छोटे हो  जाते है कि
सिर्फ उनके अपनो तक
पहुंच पाते हैं वे हाथ


कुछ लोगों के पैर
इतने बडे होते हैं कि
अपनी मंजिल पे पहुंच
मुड जाते हैं घुटनो से
अपने पेट की तरफ

 कुछ लोगों की नाक
इतनी बडी होती है कि
सूंघ लेते हैं दूर से ही
पक रहा है कंहा कच्चा मॉस
या कि कंहा पक रही है खिचडी

 पर, चलो अच्छा है
हमारे,कान, आँख व नाक सभी
अपने पूरे अनुपात व आकार मे तो हैं

मुकेश इलाहाबादी




Friday 17 February 2012

दरिया ए मुहब्बत में

बैठे ठाले की तरंग ------------

दरिया  ए  मुहब्बत  में बहता  रहा बदन
इश्क की आग में जल  कुंदन हुआ बदन

हिज्र  के इज़्तिराब  में  तपता  रहा बदन
कि, रात मेरा यार आया कुंदन हुआ बदन

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

ईद का मेला

दोस्तों इक्कीसवीं सदी की बेवफा, बेमुरव्वत हवा का असर सब पर इतना ज़बरदस्त है कि मासूम बच्चों के लिए बाज़ार हाट में मिलने वाले भोली-भाली भाव भंगिमाओं से जड़े,खिलौनों में भी सियासती नेता, आतंकी नायक उतर आए हैं. इतना ही नहीं इस पीढ़ी के बच्चे भी खिलौनों में नेता, बन्दूक, तोप और लादेन खोजते हैं लेकिन फिर भी इन विपरीत हवाओं के झोंको में कोई हामिद अपनी बूढ़ी दादी के लिए मेले जब में
चीमटा ढूँढता दिख जाता है, तो धरती पर संवेदनाओं के बचे रहने का एहसास होता है.

ईद का मेला

ईद के मेले में
खिलौनों की दुकान तो थी
पर इस बार मिट्टी का सिपाही
अपनी बन्दूक के साथ गायब था
और मिट्टी का भिश्ती भी
अपनी मशक के साथ वहाँ नहीं था
लिहाजा दुकानदार
प्लास्टिक के नेता, बन्दूक और तोप
लेकर हाज़िर था
हामिद के एक दोस्त ने बन्दूक खरीदी
वह लादेन बनना चाहता था
और दूसरे ने नेता का पुतला खरीदा
वह प्रधानमंत्री बनना चाहता था
पर हामिद अभी तक
लोहे का चीमटा ढूंढ रहा था
ताकि उसकी बूढ़ी दादी की
कांपती उंगलियाँ आग में न जलें

मुकेश इलाहाबादी


तुम हंसती हो तो,


बैठे ठाले की तरंग ------------

तुम हंसती हो तो,
भूल जाता हूँ
पेड़, पहाड़, पर्वत और ---
ढेर सारा दुःख

तुम हंसती हो तो,
बहता हैं झरना
और गलती हैं बर्फ
जंहा तक देख पाती हो तुम
ढेर सारा रेगिस्तान

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Thursday 16 February 2012

घर की तलाश --------------


घर की तलाश --------------

वह आदमी
सुबह से अपना घर तलाश  रहा था
एक एक गली, सड़क और नुक्कड़ तक झांक आने के बाद भी
उसे अपना घर नही मिला
चलते चलते
शहर के आखिरी छोर से जा लगा,
 जहां से गाँव  की चौहददी शुरू  होती थी
आदमी ने वहां भी जाकर घर तलाशना चाहा
पर गांव के भीतर भी एक नया नया शहर  उग आया था
जिसकी गलियों, खलिहानों और हाटों में भी
उसे अपना घर नदारद मिला
अब वह आदमी गांव के सीवान से जा लगा
जबकि, सूरज भी थक कर
अपनी मॉद में छुपने को आतुर था
जबकि आदमी जंगल के मुहाने पे खडा था
घर की तलाश में
आदमी जंगल के अंदर ही अंदर खोता गया
जहां पहाडों की शिराओं से रिश रिश  कर
एक कोटर में बनी झील थी
झील का पानी स्वच्छ और उज्जवल था
जिसकी निस्तरंगता सुनहरी मछलियों से ही टुटती और बनती थीं
झील में चांदी सा एक चॉद भी लहराता था
आदमी प्यासा था उसने अंजुरी भर ओक से पानी पीना चाहा
कि, चॉद उछल कर आकाश  से जा लगा
और मछलियां तडप के फलक पे सितारे बन चिपक गयीं
और झील का पानी सरसरा कर
पहाडों की शिराओं में खो गया
सुबह वह आदमी जिसे घर की तलाश  थी
सूखी झील के किनारे मरा पाया गया।

मुकेश इलाहाबादी







रात के सीने में फैला हुआ जंगल












बैठे ठाले की तरंग ----------------

रात के सीने में फैला हुआ जंगल
देखा  हर सिम्त फैला हुआ जंगल

दूर से अक्सर लुभाता हुआ जंगल
पास जाओ तो डराता हुआ जंगल

हर बार ज़मीं सिसकती नज़र आयी
जब भी मैंने देखा कटता हुआ जंगल

तुम क्या जानो कितना तन्हा तन्हा है
ये   हरा  भरा औ  हंसता  हुआ जंगल

तू  रात, ख़्वाबों के फलक पे खिल जा
मै भी तो देखूं  ज़रा हंसता हुआ जंगल   

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

बेलिया के फूलों की पत्तियां


दोस्त,

जानती हो  बोगन बेलिया के फूलों की पत्तियां बेहद पतली व मुलायम तो होती ही हैं पर उसमे कोई सुगंध नही होती। जैसे मुझमें। शायद   इसीलिये मैने अपने घर के चारों तरफ बोगन बेलिया की कई कई रंगो की कतारें सजा रक्खी हैं। जो सुर्ख, सुफेद और पर्पल रंगों में एक जादुई तिलिस्म का अहसास देती हैं। जब कभी इनकी  मासूम, मुलायम पत्तियां हवा के झोंके से या कि आफताब की तपिश  से झर झर कर जमीन पे कालीन सा बिछ जाती हैं, तब उसी मखमली कालीन पर हौले से बैठ कर या कि कभी लेट कर, सलोनी के ख़यालों, ख्वाबों में डूब जाता हूं। तब बोगन बेलिया की एक एक पत्ती उसके चेहरे के एक एक रग व रेषे की मुलायम खबर देती है। तब मै ख्वाबों के न जाने किस राजमहल में पहुचं जाता हूं। जहां सिर्फ सलोनी होती है और सिर्फ सलोनी होती है। और होता हूं मै।  ऐसा ही एक अजीब ख्वाब उस दिन दिखा था। अजीब इस वजह से कि वह एक साथ भयावह व खुशनुमा  था। 
दोस्त, तुम  जानती हो ?   उस ख्वाब में मैने देखा ?
कि मुहब्बत की रेशमी  ड़ोरी और रातरानी की मदहोश  खुषबू से लबरेज़ झूले मे सलोनी झूल रही है। किसी परी की तरह और मै उसे झूलते हुये देख रहा हूं। जब झूला उपर की ओर जाता है, तो उसके नितम्बचुम्बी आबनूषी केश  जमीन तक लहरा जाते। जैसे कोई काली बदरिया आसमान से उतर कर जमीं पे मचल रही हो। 
लेकिन, ये बादल मचल ही रहे थे कुछ और परवान चढ ही रहे थे कि..... 
अचानक कहीं से एक बगूला उठा जो एक तूफान में तब्दील होता गया। और वह  तूफान से ड़र कर वह मेरी तरफ दौड़ पडी़।
और ... मै उसे अपने आगोश  में ले पाता कि वह तूफन उसे उठा ले गया।
और मै उसे औ वह मुझे पुकारती ही रह गयीं।
और तभी मै अपने ख्वाब महल से जो रेत के ढे़र में तब्दील हो गया था, बाहर आ गिरा या। 
और उस वक्त मेरी मुठठी में महज बोगन बेलिया की कुछ मसली व मुरझाई पत्तियां ही रह गयी थी।
और ... एक वह दिन कि आज का दिन मैने खुली ऑखों से कोई ख्वाब नही देखा। 
अगर देखना भी होता है तो, बंद ऑखों से देखता हूं।
जिनके बारे में कम से कम यह तो मालूम रहता ही है कि यह ख्वाब हैं जिन्हे सिर्फ नींद के बाद टूटना ही होता है। 
खैर दोस्त  मै भी कहां की बातें करने लगा। 

कल सारा दिन विजली व पानी के इंतजामात में बीता। शाम  को बिजली तो आयी पर पानी अभी भी नही आया। 
रात आपसे बात करके आराम से सोया। 
अभी अभी आके नेट पे बैठा हूं।

दोपहर में आपसे बात करुंगा।

मुकेश  इलाहाबादी 

mukesh allahabadi baithe thale ka tarang 1

Udas nagmo ka deewan diye jaata hoon


mukesh allahabadi baithe thale ka tarang 2

तुमने कभी रेगिस्तान देखा है।

दोस्त,

तुमने कभी रेगिस्तान देखा है। रेत ही रेत। रेत के सिवा कुछ भी नही। रेत, समझती हो न। पत्थर, जो कभी चटटान की तरह खडा रहता है सदियों सदियों तक, पर धीरे धीरे आफताब की तपिश  और बारिश  व तूफान से टूट टूट कर रेजा रेजा होकर बिखर जाता है। तब वही पत्थर रेत का ढेर कहलाता है। और जब पूरा का पूरा पहाड़ रेजा रेजा बिखर जाता है, तो वह रेगिस्तान कहलाता है।

उसी रेगिस्तान को कभी गौर से देखा है। जो दिन में आग सा दहकता और रात में बर्फ सा ठंड़ा होता है। जिसके सीने पर मीलों तक सन्नाटा पसरा रहता है, मौत सा गहरा सन्नाटा। जिसमें साथ देने के लिये पहाड़ों कि तरह चीड़ व चिनार के दरख्त नही होते। खूबसूरत लहलहाते फूल के गुच्छे नही होते। दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाले ठंडे़ पानी के चष्में नही होते। झील व कलकल करती नदियां नही होती।
वहां जंगल में नाचने वाले मोर और कूकने वाली कोयल भी नही होती। शेर  व चीता जैसे चिंघाड़ने वाले जानवर भी नही होते। यहां तक कि मासूस शावक  व फुदकती हुयी गिलहरी भी नही होती। और न ही होती है मीलों तक एक के पीछे एक कतार से चलने वाली चींटियां।

ऐसा ही एक रेगिस्तान मेरे अंदर भी फैला है। जिसमें हरियाली के नाम पर छोटी छोटी अपने आप उग आने वाली कंटीली झाड़ियां है या फिर अक्सर और दूर दूर पर दो दो चार चार की संख्या में खुरदुरे तने वाले ताड़ या कहो खजूर के पेड़ होते है। जिनकी जड़ों में पानी देने के लिये कोई नहर या झरना नही बहता। खाद व पानी देने के लिये कोई इंसान नही होता। फिर भी ये षान से और पूरी अलमस्ती से खड़े रहते है। बिना किसी शिकवा शिकायत के अपने उपर नुकीली पत्तियों का छाता सा लगाये।
तुम जानती हो। एसे बीराने मरुस्थल में ये दरख्त कैसे जिंदा रहते हैं।
तो सुनो
जब कभी कोई बदरिया अपने ऑचल के सारे जल को किसी पहाड़ या तराई पे बरसा के या कहो लुटा के फिर से सागर की ओर जा रही होती है। और उसका रहा सहा जलकण सूरज भी सूख चुका होता है। उसी छूंछे बादलों से ये पेड़ सूरज की रोषनी से ही कुछ जल चुरा लेते हैं। और फिर शान से जिंदा ही नही रहते बल्कि अपने अंदर भी मीठा मीठा जीवन रस पैदा करते और संजोते रहते हैं।
यही रस रात भर ऑसू की तरह बहते रहते हैं, चुपके चुपके धीरे धीरे ताकि किसी को एहसास न ही उनकी बीरानी का उनकी तंहाई का। लेकिन जमाने वाले उसे भी हंड़िया में बूंद बूंद भर लेते हैं। और  सुबह पीते हैं जिसे ताड़ी कहते हैं। और जानती हो उस ताड़ी में हल्का हल्का मीठा मीठा सा नशा  होता है। जो धूप चढ़ने के साथ साथ और भी ज्यादा बढ़ता जाता है। इसके अलावा ये दरख्त उसी जल कणों से खजूर जैसे मीठे फल भी उगा लेते हैं। ये सीधे पर थोडे़ से तिरछे खड़े होकर किसी थके व तपे मुसाफिर को घनी छांह भले न दे पाते हों पर वे ताड़ी जैसा नशीला पेय और खजूर सा मीठा अम्रततुल्य फल जरुर देते हैं जो इस रेगिस्तान के मुसाफिरों के लिये वरदान है।
बस इसी तरह मै भी अपनी महबूबा और चाहने वालों से दूर चाहे कितनी दूर रहूं। पर उनकी यादों और फोन कॉलों से प्रेमरस खींचता रहता हूं और जिंदा रहता हूं।
लिहाजा मेरी बातों को ताड़ी और कविताओं को खजूर जानो।
बाकी तो एक पहाड़ हूं जो टूट टूट कर रेजा रेजा बिखर चुका है किसी रेगिस्तान की तरह।

मुकेश इलाहाबादी





तुमने कभी रेगिस्तान देखा है।

दोस्त,

तुमने कभी रेगिस्तान देखा है। रेत ही रेत। रेत के सिवा कुछ भी नही। रेत, समझती हो न। पत्थर, जो कभी चटटान की तरह खडा रहता है सदियों सदियों तक, पर धीरे धीरे आफताब की तपिश  और बारिश  व तूफान से टूट टूट कर रेजा रेजा होकर बिखर जाता है। तब वही पत्थर रेत का ढेर कहलाता है। और जब पूरा का पूरा पहाड़ रेजा रेजा बिखर जाता है, तो वह रेगिस्तान कहलाता है।

उसी रेगिस्तान को कभी गौर से देखा है। जो दिन में आग सा दहकता और रात में बर्फ सा ठंड़ा होता है। जिसके सीने पर मीलों तक सन्नाटा पसरा रहता है, मौत सा गहरा सन्नाटा। जिसमें साथ देने के लिये पहाड़ों कि तरह चीड़ व चिनार के दरख्त नही होते। खूबसूरत लहलहाते फूल के गुच्छे नही होते। दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाले ठंडे़ पानी के चष्में नही होते। झील व कलकल करती नदियां नही होती।
वहां जंगल में नाचने वाले मोर और कूकने वाली कोयल भी नही होती। शेर  व चीता जैसे चिंघाड़ने वाले जानवर भी नही होते। यहां तक कि मासूस शावक  व फुदकती हुयी गिलहरी भी नही होती। और न ही होती है मीलों तक एक के पीछे एक कतार से चलने वाली चींटियां।

ऐसा ही एक रेगिस्तान मेरे अंदर भी फैला है। जिसमें हरियाली के नाम पर छोटी छोटी अपने आप उग आने वाली कंटीली झाड़ियां है या फिर अक्सर और दूर दूर पर दो दो चार चार की संख्या में खुरदुरे तने वाले ताड़ या कहो खजूर के पेड़ होते है। जिनकी जड़ों में पानी देने के लिये कोई नहर या झरना नही बहता। खाद व पानी देने के लिये कोई इंसान नही होता। फिर भी ये षान से और पूरी अलमस्ती से खड़े रहते है। बिना किसी शिकवा शिकायत के अपने उपर नुकीली पत्तियों का छाता सा लगाये।
तुम जानती हो। एसे बीराने मरुस्थल में ये दरख्त कैसे जिंदा रहते हैं।
तो सुनो
जब कभी कोई बदरिया अपने ऑचल के सारे जल को किसी पहाड़ या तराई पे बरसा के या कहो लुटा के फिर से सागर की ओर जा रही होती है। और उसका रहा सहा जलकण सूरज भी सूख चुका होता है। उसी छूंछे बादलों से ये पेड़ सूरज की रोषनी से ही कुछ जल चुरा लेते हैं। और फिर शान से जिंदा ही नही रहते बल्कि अपने अंदर भी मीठा मीठा जीवन रस पैदा करते और संजोते रहते हैं।
यही रस रात भर ऑसू की तरह बहते रहते हैं, चुपके चुपके धीरे धीरे ताकि किसी को एहसास न ही उनकी बीरानी का उनकी तंहाई का। लेकिन जमाने वाले उसे भी हंड़िया में बूंद बूंद भर लेते हैं। और  सुबह पीते हैं जिसे ताड़ी कहते हैं। और जानती हो उस ताड़ी में हल्का हल्का मीठा मीठा सा नशा  होता है। जो धूप चढ़ने के साथ साथ और भी ज्यादा बढ़ता जाता है। इसके अलावा ये दरख्त उसी जल कणों से खजूर जैसे मीठे फल भी उगा लेते हैं। ये सीधे पर थोडे़ से तिरछे खड़े होकर किसी थके व तपे मुसाफिर को घनी छांह भले न दे पाते हों पर वे ताड़ी जैसा नशीला पेय और खजूर सा मीठा अम्रततुल्य फल जरुर देते हैं जो इस रेगिस्तान के मुसाफिरों के लिये वरदान है।
बस इसी तरह मै भी अपनी महबूबा और चाहने वालों से दूर चाहे कितनी दूर रहूं। पर उनकी यादों और फोन कॉलों से प्रेमरस खींचता रहता हूं और जिंदा रहता हूं।
लिहाजा मेरी बातों को ताड़ी और कविताओं को खजूर जानो।
बाकी तो एक पहाड़ हूं जो टूट टूट कर रेजा रेजा बिखर चुका है किसी रेगिस्तान की तरह।

मुकेश इलाहाबादी





Wednesday 15 February 2012

तेरे हुस्न का शिकार हूँ मै


तेरे हुस्न का शिकार हूँ मै
जज़्बएइश्क का बीमार हूँ मै

वैसे तो इंसान बहुत काम का
फिर भी मुद्दतों से बेकार हूँ मै

हर बार मैंने ही मात खाई है
समझता हूँ, कि हुशियार हूँ मै

प्रेम से रहोगे तो शिर झुकाऊँगा
वरना तबियत का खुद्दार हूँ मै

मुकेश इलाहाबादी ---------------

आकाश मेरी छत














बैठे ठाले की तरंग -------------
आकाश मेरी छत, धरती मेरा कमरा
और कोइ घर मुझे अच्छा नहीं लगता
मुकेश इलाहाबादी --------------------

Tuesday 14 February 2012

उम्र गुज़र गई सलीका न आया

बैठे ठाले की तरंग -----------

 

उम्र  गुज़र  गई  सलीका  न  आया

इज़हारे मुहब्बत का तरीका  न आया

 

हजारहां  बार आया गया मयखाने में

इक हम हैं पीने का सलीका न आया

 

जब जब  मिले तब तब  कसा ताना

कसना मुझे एक भी फिकरा न आया

 

चेहरा  आइना, हर  बात  बता देता

गम  को छुपा सकूं, तरीका न आया

 

मुकेश इलाहाबादी

कविता का चेहरा

दोस्तों,

आओ कल्पना करें
कैसा होगा
नए युग की कविता
का चेहरा
हो जायेगी कविता पुनः
छंद बद्ध- लय बद्ध
या रहेगी अतुकांत
इसी तरह
या फिर हो जायेगा
कविता का चेहरा
आज की दुनिया जैसा
भाव शून्य, संवेदना शून्य
या,
होगी कविता
कम्प्यूटर की भाषा
कोबोल और पश्कल की तरह
लय, छंद, भाव, ताल
सभी कुछ फीड होंगे जिसमे
बिट और बाईट की तरह

मुकेश इलाहाबादी

साहिल के रेत की हर शिकन बताती है

बैठे ठाले की तरंग ----------------------
साहिल के रेत की हर शिकन बताती है
हर शिकन की अपनी अलग कहानी है

ये उजड़ी हुई हुई बस्ती, ये टूटे हुए मकां
शहर किस कदर लुटा इसकी निशानी है
   

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

वो तो उनके नाजो नखरे उठाए हुए हूँ ,



बैठे ठाले की तरंग ----------------------
वो  तो  उनके  नाजो  नखरे  उठाए हुए हूँ ,
वर्ना  मेरी चाल में कोइ ख़म नहीं है, दोस्त 
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Monday 13 February 2012

जब भी फुर्सत मिले, तब तुम आना




बैठे ठाले की तरंग -------------

जब भी फुर्सत मिले, तब तुम आना
मै यंही बैठा  हूँ, तुम  यंही  आना
मेरे पास सिवा इंतज़ार के कुछ भी नहीं
जब फुर्सत मिले तब तुम आना

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Sunday 12 February 2012

आप अपने गिरहबान में तो झांकते नहीं बस

बैठे ठाले की तरंग ------------------
 

 

आप अपने गिरहबान में तो झांकते नहीं
बस, मुझसे ही शिकायत किये जाते हो




मुकेश इलाहाबादी ------------------

आये हो तो कुछ पल ठहर भी जाओ

बैठे ठाले की तरंग ------------------
आये हो तो कुछ पल ठहर भी जाओ
ये मेरा घर है,  कोई  दफ्तर  तो नहीं
गैरों से भी मिलते हैं,हंस कर हम फिर  
तुम  तो अपने हो,  कोई  गैर  तो  नहीं
जो  भी  उतरा  है, उबर  नहीं  पाया  
तेरी  आखों  में  कोई समंदर  तो  नहीं ?
यूँ ज़माने  में  मेरी हस्ती  कुछ  भी नहीं
गर चाहूं  तो  किसी से कमतर तो  नहीं
 ------------------------- मुकेश इलाहाबादी











Saturday 11 February 2012

ज़रूरी था फिजां में कुछ तबदीली की जाए


बैठे ठाले की तरंग -----------------------


ज़रूरी था फिजां में कुछ तबदीली की जाए 
हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद  तो न था 




मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Friday 10 February 2012

घर तो भर लिया खिलौनों से

कि,कोई बात समझता ही नहीं
दिल है कि कहीं लगता ही नहीं

घर तो भर लिया खिलौनों से
दिल  है  कि बहलता  ही नहीं

चाँद सी सूरत देख कर भी अब
अब मेरा दिल मचलता ही नहीं

तेरी जुल्फों के सिवा, कमबख्त
दिल मेरा कही उलझता ही नहीं

बहुत बार तो समझाता है मुकेश 
तू उसकी बात समझता ही नहीं ?


मुकेश इलाहाबादी -----------

Thursday 9 February 2012

जाने किस बदहवासी में

बैठे ठाले की तरंग ----------------------
जाने किस बदहवासी में जिए जाता हूँ
सुबो  ऑ  शाम  बेहिसाब पिए जाता हूँ
जानता  हूँ तू न आयेगी  मुझसे मिलने
फिर  क्यूँ  तेरा  इंतज़ार  किये जाता हूँ
 
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Monday 6 February 2012

इश्क में कुछ तो जुनून होता होगा

बैठे ठाले की तरंग ----------------------
इश्क  में  कुछ  तो  जुनून होता होगा
वर्ना पतिंगे शमा पे इस तरह न मरते
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Dil Hamara Jin Pe Aasna Hua


Sunday 5 February 2012

महताब हैं वो




बैठे ठाले की तरंग -----------------------
झूठ  कहते हैं  लोग महताब हैं वो 
हमने छु के देखा है आफताब हैं वो 
गुल  पसंद   लोग  कहते  हैं  की 
चमन का बेहतरीन गुलाब है  वो
उनकी महफ़िल का  हर रिंद बोला 
मैखाने की बेहतरीन शराब है  वो 
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

दिल हमारा जिनपे आसना हुआ

बैठे ठाले -----------------------------

दिल  हमारा  जिनपे  आसना हुआ
उनसे  कभी  न  रूबरू  सामना हुआ
चिलमन से  हम  देखा  किये,  बस
खतोकिताबत का हे दोस्ताना हुआ

अब तो चेहरे के नुकूश भी याद नहीं
कि उनको देखे हुए इक ज़माना हुआ

मुकेश राहे ज़िन्दगी में थी तपिश बहुत
साथ चले वे तो सफ़र कुछ सुहाना हुआ

---------------------मुकेश इलाहाबादी

Friday 3 February 2012

उँगलियों के ज़ख्म बताते हैं




उंगलियों के ज़ख्म बताते हैं
हमने पत्थर पे बुत तराशे हैं

अपने आंसू पलकों में छुपाकर
कुछ लोग दूसरों को  हंसाते  हैं

दश्ते तीरगी में भी रह कर, हम
दूसरों के दर  पे  दिए जलाते हैं

जिनके घुनघुने में दाने  हैं कम 
वे ही अक्शर बहुत शोर मचाते हैं

ये हुनर तू भी सीख ले ऐ मुकेश,  
कैसे हर शेर मोती सा सजाते हैं

                     मुकेश इलाहाबादी