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Tuesday 23 July 2019

हुआ यूँ कि


हुआ
उस यूँ  कि 
कि, मेरी उँगलियाँ
मोबाइल के की पैड पे
तेज़ी से चल रहीं हैं
और लिख रहीं थी
एक प्रेम कविता, तुम्हारे नाम की
तभी,
कमरे मे चुपके चुपके
से तुम आ के
अपनी हथेलियों से
बंद कर लेती हो मेरे आँखे
मै तुम्हें
तुम्हारी खुश्बू और नाज़ुक स्पर्श से पहचान लेता हूँ
और मै तुम्हे
तुम्हारी कलाइयों को
पकड़ के अपनी गोद में गिरा लेता हूँ
तुम खिलखिला देती हो
मै मुस्कुरा देता हूँ
मोबाइल हाथ से गिर के छिटक चूका है 
और अब
कविता की पैड पे उँगलियाँ नहीं
मेरे होठ तुम्हारे नाज़ुक गालों पे लिख रहे होते हैं
तुम्हारे चेहरे पे एक मादक मुस्कान है
और मै खुश हूँ
बेहद - बेहद बेहद

क्यों सुमी ?
क्या ये सपना सच नहीं हो सकता कभी ?
बोलो न सुमी, प्लीज् बोलो

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Monday 22 July 2019

चमकीले ख्वाबों

मैंने
अपने चमकीले ख्वाबों को
अलविदा कह दिया था

रोज़ रोज़ दाढ़ी बनाना
नए कपड़े सिल्वाना
जूते चमकाना
और इत्र लगाना छोड़ दिया था

क्यूँ कि मेरी ज़िंदगी में
कोई भी खुशी न थी
न आने की उम्मीद थी

और चमत्कारों पे मुझे कोई यकीन न था

फिर तुम मुझे
जादू की तरह मिले
और
अब मुझे

हवाएँ बहती हुई नहीं ठूनकती हुई लगती हैं
फूल कुछ और
खूबसूरत लगते हैं
चाँद और
चमकीला लगता है

सुन रही हो न?

ओ! मेरी सुमी
ओ! मेरी जादू
ओ! मेरी ज़िंदगी का चमत्कार

मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,

Friday 19 July 2019

कमरे में एक छोटी सी खिड़की है

मेरे
कमरे में एक छोटी सी खिड़की है
जिससे मै देखता हूँ
छोटा सा आसमान
छोटी सी चिडि़या
छोटा सा बादल
छोटी सी दुनिया
और मै, खुश हो कर
अपनी छोटी सी
हथेली उस छोटी सी खिड़की के बाहर निकाल कर अपनी मुट्ठी में
कर लेना चाहता हूँ
छोटा सा आसमान
छोटा सा बादल
छोटी सी चिड़िया
लेकिन मैं नहीं कर पाता ऐसा, तब मै निराश हो कर अपनी हथेली वापस खींच कर
छोटे से कमरे की बड़ी सी दुनिया में लौट आता हूँ
जिसका हिस्सा मै हूँ भी
और नहीं भी
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,

मै देखूँगा

अब
मै देखूँगा
तुम्हारे बिन
इठलाते हुए फागुन को
भीगते हुए सावन को
रूठी हुई सर्दियों को
और रोती हुई गर्म रातों को
अब मै देखूँगा तुम्हारे बिन
खुद को रोते हुए
और बहुत कुछ
और भी बहुत कुछ
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

मैंने परिंदों से कहा

एक
दिन मैंने परिंदों से कहा
'क्या तुम मेरा ख़त
चाँद तक पहुंचा दोगे?'
परिंदों ने कहा " हमारी उड़ान असमान में कुछ ऊँचाई तक ही हैं
बाद उसके हमे भी नीचे उतराना पड़ता है
तुम्हारा चाँद हमसे काफ़ी ऊँचाई पे है - इसलिए सॉरी दो्‍सत हम तुम्हारा ख़त चांद तक नही पहुंचा पाएंगे"
तब मैंने हवा से कहा
क्या तुम मेरा ख़त चाँद तक पहुंचा दोगी?
हवा ने भी असमर्थता ज़ाहिर की
बोली 'मित्र - मै बहुत असमान में सिर्फ दो चार किलोमीटर तक हूँ
बाद उसके शून्य ही शून्य है, और तुम्हारा चाँद बहुत दूर
लिहाज़ा मै ये काम न कर पाऊँगी'
फिर मैंने ही एकांत में
पूरे मन से चाँद से
मन ही मन कहा
चाँद! मेरे हाथ
बहुत छोटे हैं जो
तुम तक नहीं पहुंच सकते हैं
और न ही कोई डाकिया
धरती से तुम्हारे लोक तक जाता है
और न ही तुम
असमान से आ पाते हो
तो बताओ मै अपने मन की बात तुम तक कैसे पहुचाऊं?
तब चांद ने मुस्कुरा कर कहा
और मै उसके कहने से
रोज़ रात होते ही
एक नीली शांत झील में
तब्दील हो जाता हूँ
और
चाँद अपना हौले से उसमें उतर आता है
फिर हम दोनों देर रात तक झील में हंसते खेलते हैं, सुबह होते ही चांद फिर आकाश मे टंग जाता है
और मै दुनिया के आकाश में
और इस तरह हम और चांद बरसों से दोस्ती निभाते आ रहे हैं
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,

ले आओ कुदाल खोदो और निकालो मुझे

ले
आओ कुदाल
खोदो
और निकालो मुझे
पहले
बहुत पहले दब चुका हूँ
उदासी, तन्हाई और बेचैनी की ठंडी बर्फ के तले
चूँकि बर्फ़ एक बहुत अच्छा प्रिसर्वर है
इसी लिए अभी तक, 'मै'
गला नहीं
सड़ा नही
मरा नही
अभी भी मेरे जिस्म की त्वचा मुलायम है
मेरी धड़कने बंद ज़रूर हैं
पर थोड़ी भी तपन पा के
फिर से धड़कनें के लिए व्याकुल हैं
इसलिए तुम
खोदो और खोदो
अंटार्टिका सी मेरे वज़ूद पे जमी बर्फ को
क्यूँ कि
एक बार फिर मै जीना चाहता हूँ
ताकि प्यार कर सकूँ पूरी त्वरा के साथ
पेड़ को
पहाड़ को
झरनों को
बुलबुल को
और तुम्हें
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,

Tuesday 9 July 2019

मुहब्बत के पंख लगाऊंगा,

मुहब्बत
के पंख लगाऊंगा,
उड़ जाऊँगा
देखना एक दिन,अपने चाँद से मिल आऊँगा
मेरे पास
लतीफों का खज़ाना है
उसे सुना कर
खूब हंसाऊँगा
और जब वो
खिलखिलाऎगी
फिर मै उसे
खुश देख कर मुस्कुराऊंगा
देखना एक दिन
सच्ची मुहब्बत के दम पे उसे अपना बनाऊंगा
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,

सुमी, मै जानता हूँ

सुमी,
मै जानता हूँ
तुम्हें बारिश बहुत अच्छी लगती है, लेकिन तुम
बारिश मे भीगना नहीं,
तुम्हें ठंड जल्दी लगती है
बहुत मन होगा तो
बाल्कनी से
बस थोड़ी देर हल्की हल्की फुहार मे भीग लेना
मूसलाधार बारिश में तो
बिल्कुल भी मत निकलना
अगर भीगने का मन ही होगा तो मुझे बता देना
मै तुम्हें अपनी बाहों का रेनकोट पहना दूँगा
फिर तुम बारिश में छत पे
भीगना झम झमाझम
और नाचना
ता था थैया करके
और फिर मै बनाऊँगा
एक गरमा गरम कॉफी तुम्हारे लिए
और मै देखूँगा
बारिश में नहा के
ठिठुरते हुए अपने खूबसूरत चाँद को
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,

चमकीला भविष्य

अल्ल सुबह
एक, कप चाय
या फिर एक कप
बोर्नवीटा वाले दूध के साथ
एक ब्रेड का टुकड़ा निगल के
बच्चा
घोंसले जैसे घर से
अपनी पीठ पे किताबों का बोझ लादे हुए
सबसे पहले निकलता है
भागता हुआ स्कूल बस को पकड़ता है
और हांफता हुआ अपनी सीट पे बैठ जाता है
ये देख माँ बाप आश्वस्त हो जाते हैं
और बच्चे की मुट्ठी में
चमकता हुआ भविष्य देखते हैं

बाद उसके
बच्चे की माँ
हड़बड़ाती हुई सुबह का नाश्ता निगलती है
और पति व परिवार के लोगों का नाश्ता मेज़ पे सजा कर
अपने कार्यालय हड़बड़ाती हुई अपने कंधे पे टंगे बड़े से बैग में
दोपहर के टिफिन के साथ अपना भविष्य और वर्तमान
सहजने की नाकाम सी कोशिश करती हुई
भागती है ऑफिस ये सोचती हुई है
आज कहीं फिर ऑफिस को  न लेट हो जाए 

बाद उसके
घोंसले का चिड़ा निकलता है
और कभी मेट्रो तो कभी सिटी बस में धक्के खाते हुए
के अपनी खाली हथेली करियाया भूत
रिश्ता हुआ वर्तमान देखता है
फिर वो घबड़ा के अपनी हथेली और ज़ोर से बंद कर लेता है
कि कंही रहा सहा चमकीला भविष्य तो न फिसल जाए उसकी
पीली हथेली से
और फिर हड़बड़ा के उतर पड़ता है
ऑफिस के बस स्टॉप पे

सांझ होते होते
तीनो - फिर अपने घोंसले में आते हैं

शायद किसी दिन उनकी हथेली में भी चमकता हुआ वर्तमान होगा

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------







Tuesday 2 July 2019

कहो तो रख दूँ, अपने होठ

कहो
तो रख दूँ, अपने होठ
तुम्हारी भीगी पलकों पे
और सोख लूँ
सारी की सारी
दुख की नदी
जो बह रही है
तुम्हारे अंतस मे
न जाने कब से
मुकेश इलाहाबादी,,

हम दृढ़ प्रतिज्ञ हैं

हम
दृढ़ प्रतिज्ञ हैं
"विकास " लाने के लिए
भले ही हमें उसके लिए
कितने ही ऐतिहासिक तथ्य तोड़ने मरोड़ने पड़ें
कितने ही बेगुनाहों को मौत के घाट उतरना पड़े
कितने ही प्रपंच करने पड़ें

क्यूँ कि,
जब तक "विकास" नाम की चिड़िया
हमारे देश की फुनगी में नहीं कुहकेगी
तब तक पता कैसे चलेगा हम सभ्य हो चुकी प्रजाति के लोग हैं
हम सुखी और  समृद्ध  हैं

चूँकि
"विकास" नाम की ये चिड़िया
प्रेम ,सौहार्द, संतोष नाम की सूखी डालियों पे नहीं
बल्कि
बड़ी बड़ी इमारतों , कारखानों , मॉल और ऑफिसों की डालियों पे ही फुदकती है

इस लिए
भले
ही हमें कितने भी
जंगल काटने पड़ें
कितने ही पहाड़ तोड़ने पड़ें
कितनी ही नदियों को सुखाना पड़े


मुकेश इलाहाबादी -----------