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Friday 29 June 2012

मै जुदा सी एक कहानी लिख जाऊंगा !!!


                                                 मै जुदा सी एक कहानी लिख जाऊंगा !!!
                                                 इकदिन अपनी जिंदगानी लिख जाऊंगा 

                                                 सूरज  से रोशनी  लेकर चमकता है  चाँद!!
                                                 ये बात भी अपनी कहानी में लिख जाऊंगा

                                                 प्यार,मुहब्बत और ज़िन्दगी के उसूल,अब  
                                                 हर  बात  हो  गयी  बेमानी  लिख  जाऊंगा!

                                                  देखना एक दिन जलजला आएगा !!!!!!!!!!
                                                  गजलों में मै बात तूफानी लिख जाऊंगा !!!!

                                                  रात दिन तेरे ही ख्यालों में रहा मशगूल !!!!
                                                  तेरी याद भी है कितनी सुहानी लिख जाऊंगा!

                                                 ऐ हंसी  गर तू  हो जाए जिस किसी की,!!!!!!!!
                                                 सुबो शाम हो जाए उसकी रूमानी लिख जाऊंगा

                                                 रूह  की  कोइ  बातें  नहीं  करता, अब  ! !!!!!!!!
                                                 मुहब्बत हो गयी जिस्मानी लिख जाऊंगा !!!!!!



                                                मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

श्रीमतभगवतगीता। श्रीमुख से निश्रत गीत

                                                      ओम श्री गणेशाय नमः

                                 

श्रीमतभगवतगीता। श्रीमुख से निश्रत गीत   

आदमी जब मस्ती मे होता है। तरंग मे होता है । आनंद में होता है, या कोई खुशी है, जो समाये नही समाती। तो आदमी गीत गाता है।
वही गीत जव श्रीमुख से निश्रत होता है तो गीता कहाती है। हालाकि श्री तो हमेशा अपनी मस्ती मे ही होते हैं। गीत गाते ही रहते है कोयल की कुहुक मे। झीगुर की सू सूं मे। पेडों की सर सर मे। बच्चों की किलकारियों मे। भक्तो के भजन मे, अनंत अनंत तरह सें पर बात यहां समझाने के प्रयोजन से ही कही गयी है। और यहां बात उस गीत की है जो उन्होने र्धम क्षेत्र कुरुक्षेत्र  मे रणभेरी के संगीत मे गाया गया है  जहां युद्ध के लिये शंखनाद हो रहा है जयकारे लगाये जा रहे हैं। ढोल पखावज म्रदंग बजाये जा रहे है वीर रस के गीत गाये जा रहे हैं योद्धा उत्साह से उमंग से कोलाहल कर रहे है ऐसे वातावरण मे जा गाया गया है अर्जुन से, गीत यानी।
ऐसा अनूठा गीत जो न तो आज तक गाया जा सका है और नही गाया जा सकेगा। कम से कम महाभारत के बाद पांच हजार सालों तक मे तो नही ही गाया जा सका है ऐसा गीत। यानी।
गीता। भगवत गीता।
आज जब हम इस महागीत को गाने के लिये गुनगुनाने के लिये, श्रवण के लिये, रसपान के लिये, मस्ती के लिये इक्ठठा हुए हैं तो चर्चा शुरू हो इसके पहले कुछ बाते साफ हो जायें। कुछ बातें समझ ली जायें तो ठीक होगा।
पहली बात तो यह कि इस चर्चा मे उन लोगों से नम्र निवेदन है कि जिन्हे लगता है उन्हे सब कुछ मालुम है वे इस चर्चा मे इस गीत बंदन मे न भाग ले क्यों कि जिन्हे मालूम ही है तो बात खत्म हो गयी। अब क्या जानना क्या जनाना। लिहाजा वे चर्चा मे कुछ जानने कि नियत से न रुकें।
और अगर जिन्हे यह लगता है कि उन्हे यहां कुछ जानने को मिलेगा वे भी न रुकें क्यों कि यहां कुछ ऐसा नही कहा जायेगा जो उनके लिये नया हो अजाना हो।
और उन व्यक्तियों से भी नम्र निवेदन है जो तर्क वितर्क और सास्त्रर्थ करने कि नियत से आये हैं। क्योकि यह कोई पंडितों की सभा नही है जो किसी सिद्धांत का प्रतिपादन करेगी या खण्डन मण्डन करेगी।
यहां तो मस्तों की महफिल जमेगी जो महज मस्ती मे डोलेंगे नाचेंगे हंसेगे गायेंगे। गीत महागीत।
यानी गीता। भगवत गीता।
एक बात और मस्ती मे डूबने के पहले अगर ‘गीता’ शब्द  के अर्थ को ह्रदयंगम कर लिया जाये तो बात और निस्चित होजायेगी। मस्ती थोडी और गाढी हो कर उभरेगी। नशा और शिर चढ कर बोलेगा।
अगर अर्थ की बात करें तो।
श्री अर्थात ईष्वर मत अर्थात वात सिद्धांत अर्थात ईष्वर का सिद्धांत। भग अर्थात जिसमे छह गुण है। ऐष्वर्य. आनंद, नित्यता विद्वमान हैं ।
अर्थात गीता उस परम ए्रष्वर्यषाली ईष्वर का बाद है। सदा और सर्वरुपता सर्वज्ञता को लिये हुए अनंत आनंद युक्त गीत है। 
एक बात और गीता संसार मे सबसे ज्यादा पढी जाने और सबसे कम समझा जाने वाला गंथ है। यह बहुत बडी विडंबना है। यहां समझने का मतलब समझ लेने जैसा है। समझने का मतलब गीता के स्लोकों का अर्थ भर जान लेने से नही है। उसके व्याकरण को जान लेने से नही है। गीता के स्लोंको को रट लेने महज से नही है। यह ग्रथ महज मंचासीन होकर भाषण देने मात्र के लिये नही है। इसे तो प्राणों  की तरह सासों की तरह पीना पडेगा। भोजन की तरह पचाना पडेगा। रक्त मॉस मज्जा मे बसा लेना पडेगा विचार भाव आदि से एक होना पडेगा तभी गीता के अर्थ खुलते हैं स्वतह मोरपंखी की तरह। या बाग मे स्वतह खिलती कली की तरह।

गीता के प्रथम अध्याय की शुरुआत  अर्जुन के विषाद से भर जाने की कथा है। यह सच है हम सब भी विषाद से भरे हैं भ्रम से व्यथित हैं। पर हमारा मोह हमारा सारा  विषाद गुनगुना है जिसमे अर्जुन की तरह उबाल नही है। ताप नही है अन्यथा कोई न कोई क्रष्ण सी चेतना अब तक हमारा विषाद दूर कर ही दी होती।
इतिहास मे आंकडो मे रुचि लेने वालों की बात करें तो महाभारत के युद्ध मे अडतालिस लाख लोगो ने युद्ध किया। और उसमे से महज दस सेनानी बचे थे। सात पाण्डव की तरफ से और तीन कौरव की तरफ से। यह एक आर्स्चय की बात और उस वक्त सारा युद्ध जमीन पे ही हुआ था न कि आज कल की तरह हवा मे और समुद्र मे। लिहाजा एक ही मैदान मे इतने आदमियों का एक साथ लडने के लिये इकत्रित होना फिर लडना। और फिर इतने ही हांथी घोड़े जैसे जानवर उनकी चिंघाड और  इतने सैनिकों के रहने खाने की व्यवस्था करने वाले खानसामा और बेयरे भी गये होंगे। इसके अलावा बाजे गाजे बजाने वाले वीर रस के गीत गाने वाले। युद्ध मे घायल सैनिकों  का इलाज करने वाले। तम्बू कनात साफ सफाई रोशनी आदि का इंतजाम करने वालों की संख्या जोडी जाये तो करोड के उपर बात जाती है। और फिर इतनी बडी संख्या मे जनता का इकठठा होकर लडना।
यह सब सोंच सोंच कर कल्पना करके एक अजीब सी सिहरन और उत्तेजना होती है कि क्या माहौल  रहा होगा। अगर ऐसे मे अर्जुन जैसा योद्धा भी विषाद से भर जाता है तो कोई बडी बात नही है। ऐसे मे बडे से बडा विचारषील आदमी भी घबरा जायेगा सोंच कर के ही और जब कि इस विषाल जन सैलाब और युद्धोन्मत भीड मे ज्यादातर नातेदार रिस्तेदार हो।
अगर आंकडो की बात करें तो पिछली सताब्दी मे लडे गये दोनो विष्वयुद्धों मे महज कुछ दो चार लाख आदमी ही मारे गये हांगे जिसकी भरपायी हम आज इतने सालों बाद भी नही कर पाये हैं ।
तो इतने विसाल युद्ध के मैदान को देख कर कोई भी व्यथित हो सकता है।

श्लोक प्रथम।
धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेंत्रे समवेता युयुत्सवः
मामका पाण्डवश्रच किमकुर्वंत संजय

र्धम यानी सिद्धांत। कुरु यानी कर्म। कर्म यानी कर्तव्य। कर्म की सारी इमारत र्धम की नीव पे बुलंद होती है। ऐसा कहा जा सकता है। और माना भी जाता है। पर व्यवहार मे ऐसा होता नही है। सिद्धांत कुछ और कहता हे। कर्म कुछ और होता है। और यही सारे द्धंदो का कारण है। अगर र्धम ठीक ठीक समझ मे आ जाये तो धर्म और कर्तव्य मे अंतर नही रह जाता। पर अक्सर कमं करने वाले धर्म को एक तरफ रख कर कहते हैं जो हमने किया वही ठीक वही सिद्धांत। और यही सब कुछ पूरे महाभारत मे हुआ है। पाण्डव जहां सिद्धांत की बात करते नजर आते हैं। अगर पाण्डवों से उनकी मॉ कह देती है तुम सभी पांचों एक ही औरत के साथ पति पत्नी की तरह रहो तो वे किन्तु परन्तु नही करते वे तर्क विर्तक के वितंडा मे नही पडते। उनका धर्म कहता था कि मॉ की आज्ञा माननी चाहिये तो माननी है वह अच्छी है यह बुरी है यह वह जाने। इसी तरह अगर उन्हे जुआं खेलने का न्यौता मिलता है तो वह उस समय के धर्म के अनुसार न नही कह सके बल्कि खेले और औरत को भी दांव पे लगा सके उनके लिये धर्म ही कर्म की कसौटी थी। दूसरी तरफ दुर्योधन कहता है जो हमने किया वह ठीक। जो नही किया वह बेठीक।
मेरे देखे महाभारत की सारी लडाई कर्म और सिद्धांत की लड़ाई है।
कर्म और सिद्धांत दो समानांतर रेखाएं हैं जो कभी मिलती नही। दूर बहुत दूर तक देखने पर मिलती सी नजर तो आती हैं पर मिलती नही हैं। मिल भी नही सकती।
पर दोनो की उपयोगिता बराबर रहती है। अगर सिद्धांत न होतो व्यवहार अराजक हो जायेगा। और अराजकता भयानक होती है। और अगर सिद्धांत को ही आधार बना कर चला जाय तो आदमी लकीर का फकीर बन जायेगा। और अक्सर सिद्धांत की बात व्यवहार मे आके बेमानी हो जाती है। वह दूसरी समस्या, इसी लिये अक्षर सिद्धांतवादी समाज मे असफल हो जाते हे, और व्यवहारी सफल हो जाते हैं।
दूसरी बात ‘मामेकं’ यानी मेरा। ‘पाण्डवं’ यानी दूसरा। ध्रतराष्ट्र की सारी परेशानी मेरे और तेरे की है,और यही परेशानी हमारी  आपकी, और पूरे समाज की है। जब तक हम अपने और पराये की परिभाषा मे सोचते  रहेंगे। तब तक हमारे अंदर धर्मयुद्ध होता रहेगा। यही बात तो सात्र भी कहता है दि अदर इज हेल। दूसरा नर्क है। पत्नी पति के लिये नर्क होती है। पति पत्नी के लिये नर्क होता है। पिता पुत्र के लिये नर्क होता है। पुत्र पिता से नाराज है। बास के लिये मातहत नर्क निर्मित कर रहा है तो मातहत के लिये बास नर्क है। लिहाज हर एक आदमी दूसरे से त्रस्त है। आदमी के इतने सालो का अनुभव कहता है जब तक दूसरा है तब तक उसे सुख नही मिल सकता लिहाजा वह जितना ज्यादा से ज्यादा दूसरे पन को खत्म कर सकता है वह करने की भरसक कोषिष करता है। और यही हमारी लडाई है। यही हमारा महाभारत है।

इसके अलावा एक और बात। भगवत गीता की षुरुआत। ध्रतराष्ट्र के प्रश्न  से होती है। यानी एक अंधे व्यक्ति की जिज्ञासा से षुरु होती है। और अंधे आदमी के पास जिज्ञासा ही होती है। वह सब कुछ जानना चाहता है। उसका न देखपाना ही सब कुछ जानने को प्रेरित करता रहता है। ऑख वाले के पास कोई जिज्ञासा नही होती। वह जानता है कि वह तो देख ही रहा है।
इसीलिये बुद्ध जैसे लोंगों के पास कोई प्रष्न नही होते कोई जिज्ञासाएं नही होती।
अगर देखा जाय तो महाभारत का युद्ध ध्रतराष्ट्र के अंधेपन का की परिणाम है।
और हमारी सारी जिज्ञाासाओं और युद्धों के पीछे भी कहीं न कही हमारा अंधापन ही है। जिस दिन हमे दिव्य चक्षु प्राप्त हो जाता है। सत्य का दर्षन हो जाता है। उस दिन सारा महाभारत थम जाता है। पर अक्षर होता इसके विपरीत है हमारी ऑखे तब कुछ कुछ देख पाती है, जब हम सब कुछ गंवा बैठते हैं। हालांकि एक बात और अगर सब कुछ गंवाने के बाद भी हमारी आखें खुल जाये तो भी वह घाटे का सौदा नही रहेगा। वह तो लाटरी निकलने की तरह होगा। अक्षर सब कुछ गंवाने वाले ही सब कुछ पायें हैं। पर यहां तो हो उल्टा ही है हम सब कुछ गंवा भी देतें हैं और मिलता भी कुछ नही है। न जाने कितने जन्म गंवा चुके और न जाने कितने गंवाने कि तैयारी मे हैं। खैर ...

श्एक बात और, इतनी अदभुत षुरुआत श्रीमुख से ही हो सकती है। अगर हम भगवत गीता का प्रथम अक्षर ‘र्ध’ ले और अंतिम श्लोक  का ‘म’ लें तो शब्द  बनता है ‘र्धम’ अतह यहा यह भाव भी उभरता है कि दुनिया मे जो कुछ भी ज्ञान विज्ञान वेद उपनिषद सत्य अस्त्य है। उस सब का उदगम और विलय इन्ही दो अक्षरों मे निहित है। ये दो अक्षर ठीक ठीक समझ मे आ गये तो पूरी गीता पूरा जीवन पूरा सत्य समझ आ जायेगा और अगर यहीं चूके तो चूक ही गये। तब सारी समझ ना समझी मे ही आजायेगी।
यहां र्धम और र्कम दोनो के साथ क्षेत्र षब्द जुडा है इस षब्द को भी समझ लेना जरुरी है। क्षेत्र के संदर्भ मे  यह
समझ लेना बेहतर होगा कि यहां जो क्षेत्र की बात आयी है उससे अगर कोई जमीनी टुकडे का अर्थ लेता है तो वह पूरी गीता से चूक जायेगा।
गीता के अर्थ की बात तो दूर की है। जीवन मे भी तो यही होता है, आदमी जमीन जाययाद की वजह से र्धम से चूकता आ रहा है। लिहाजा यहां हरियाणा के पास के मैदान कुरुक्षेत्र को केंद्र मे मानना गीता के अर्थ से बहुत दूर चले जाने की बात होगी। यहां लडाई का मैदान तो प्रतीक है बाहय कारक है। कारण बहुत गहरे हैं। भूमि से मानव का आर्कषण अकारण नही है। उसका सबसे बडा कारण ही यह है कि हमारा शरीर भू तत्व की अधिकता से बना है लिहाजा भूमि के प्रति मानव का इतना आकर्षण होना स्वाभाविक ही है महज भूमि ही हमारी सत्ता के बने रहने का सबसे बडा कारण है। अगर हमे किसी तरह से यह पता लग जाये कि सिर्फ भू तत्व के न रहने से भी हमारी सत्ता बनी रहती है ज्यों कि त्यों तो हमारा सारा लगाव भूमि से हट कर र्धम पे आजाये। और यही पूरी की पूरी प्रक्रिया बताने का काम गीता करती है।
हां अगर किसी को जमीन के टुकडे के बारे मे ही जानने पहचानने की ललक है आकाक्षां है तो वह इतिहास के पन्नो मे मगजमारी कर सकता है। किसी पुरातत्व विभाग के चक्कर लगा सकता है। उससे मेरा कोई प्रयोजन नही है। हां अगर तत्व की बात करता है। उन अर्थो की बात की जानी है जिन अर्थों मे गीता उपयोगी हो सकती है तो उसमे मेरी उत्सुकता है। खैर

क्षेत्र का एक अर्थ षरीर से भी होता है। अगर हम इस अर्थ को ग्रहण करते हैं तो भी इस सूत्र का अर्थ होता है कि हमारे सारे कर्म और धर्म का क्षेत्र यह शरीर ही है। और इस शरीर से ही हम इन दोनो को साधते है। और इसी साधने की प्रक्रिया को हम महाभारत कह सकते हैं। और जिस दिन हम इस युद्ध को जीत लिये उस दिन ही हमने गीता को जान लिया। सारा महाभारत देख लिया।

क्रमशः -----------



लकीरें ----------


लकीरें ----------

लकीरें
कहीं भी खिंची हों
किसी भी तरह
देती हैं प्रभाव अपनी तरह



लकीरें
पानी में खिंचती हैं
न दिखने की तरह
पत्थर पे खिंच जाती हैं
न मिटने की तरह
हांथों में खिच आती हैं
कर्म और भाग्य की तरह

लकीरें
आदमियत को बांट देती हैं
देश व परिवार की
सीमा रेखा की तरह

लकीरें
खिंच कर आईने में
बांट देती हैं अक्श को
न जुड़ने की तरह


क्या बता सकते हैं आप
जहों कोई लकीर न हो
अनंत आकाश की तरह


मुकेश इलाहाबादी



बेबसी-----------------------


                                                
                                               कितनी बेबस होती हूं मैं
                                               देख कर अपने बूढ़े बाप को
                                               किश्त दर किश्त भरते हुये
                                               उस कर्ज को
                                               जो लिया था अपनी ग्रेचुटी
                                               और पी एफ खर्च करने के बाद भी
                                               खरीदना था जिससे
                                               चुटकी भर सिंदूर
                                               मेरी मांग की खातिर
                                               उफ भी नही कर सकती
                                               चुटकी भर सिंदूर के लिए
                                               अपना शरीर अपना मन व आत्मा
                                               भी सौंप देने के बाद
                                               जिस सिंदूर को फेलना चाहिये था
                                               लाल गुलाब सितारों की तरह
                                               चमकता है मेरे बालों में
                                               लाल अंगार की मानिंद
                                               क्या कभी तुम सोच सकोगे
                                              कि तुम्हारा चुटकी भर सिंदूर
                                               कितना कीमती है


                                              मुकेश इलाहाबादी

Thursday 28 June 2012

तुम तो न करोगी हमसे इशरार की बातें


बैठे ठाले की तरंग ---------------------

तुम तो न करोगी हमसे इशरार की बातें
आओ चलो फिर करलें तकरार की बातें
मय है, महफ़िल है, मौका  है  माहौल भी
ऐसे में अच्छी नहीं लगती इंकार की बातें
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Wednesday 27 June 2012

सूरत अपनी देख कर मन उदास है


बैठे ठाले की तरंग -----------

सूरत  अपनी  देख कर मन उदास है
चेहरा बदल गया या आईना खराब है                                          

हर सिम्त अभी तक फ़ैली है तीरगी
ये घिर आये बादल या लम्बी रात है

पूछता हूँ हाल  तो  कुछ  बोलते  नहीं
हमसे खफा हैं, या कोइ और बात है ?

चला था मंदिर को पहूचता हूँ  मैक़दे
रिंद बन गया हूँ या मौसम की बात है ?

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Tuesday 26 June 2012

रेत में न पाओगे, मेरे पैरों के निशाँ


बैठे ठाले की तरंग ------------------



रेत में न पाओगे, मेरे पैरों के निशाँ
पत्थरों में ढूंढ लो मेरे हाथो के निशाँ



कलियों सा दिल तुमने तोड़ तो दिया
खुशबू में पाओगे मेरे ज़ख्मो के निशाँ






ख़त मेरे दरिया में बहा तो आये हो,तुम   
अब लहरों में देखना मेरी यादों के निशाँ


चेहरे की झुर्रियों में पढ़ लेना एक दिन
हर शिकन में पाओगे मेरी बातों के निशाँ

मासूम था दिल मेरा, तुमने चीर तो दिया
पाओगे फिर भी तुम , मेरी दुआओं के निशाँ



मुकेश इलाहाबादी ---------------------------





दिन में ही करो हमसे होश की बात


बैठे ठाले की तरंग ------------------

दिन में ही करो हमसे होश की बात
होश में ना आऊँगा मै, शाम के बाद
अभी तो भूले हो हमें कोई बात नहीं
याद बहुत आऊँगा,मर जाने के बाद
मुकेश इलाहाबादी -------------------

Monday 25 June 2012

धुप निखर आयेगी


बैठे ठाले की तरंग ------

धुप निखर आयेगी
रात गुज़र जायेगी

शराब ज़हर बन के
सीने में उतर जायेगी

खुशबू गुलशन छोड़
फिर किधर जायेगी

सामने हो हुश्न बेपनाह
नज़र सिर्फ उधर जायेगी

महफ़िल में आयेगी तो
चांदनी बिखर जायेगी

मुकेश इलाहाबादी -------



Sunday 24 June 2012

चाँद मुस्कुराता है,, खामोश दरिया बुलाता है ,,,




चाँद मुस्कुराता है,,
खामोश दरिया बुलाता है ,,,
मै .... अपने ज़ख्मो को देखता हूँ
फिर --
न जाने क्या सोच,
लंगडाते हुए
दरिया में डूब जाता हूँ
दरिया कुनमुना कर
एक बार फिर चुप हो जाता है
उधर,,,,,,,,,, चांदनी भी .........
धीरे ------ धीरे ---------
बादलों की ओट में डूब जाती  है
अब चांदनी  और मै दोनों
डूब चुके हैं
खामोश दरिया में
खामोशी के साथ
उधर ---------
सितारे भी ,
टिमटिमाकर
छुप गए हैं
न जाने किस
अँधेरे जंगल में
और ---------
अब ,,,,,,,,,
चारों तरफ
भयावह सन्नाटे के साथ
सनसनाता हुआ
कायनात बच रहा है
बस ---------------

मुकेश इलाहाबादी

नींद से जगाकर -ख्वाब सारे सो गए


बैठे ठाले की तरंग -------------------

नींद से जागकर -ख्वाब सारे सो गए
एक बार फिर हम  तीरगी में खो गए
नीमबाज़ आखो से देख लिया आपने
दुनिया ज़हान छोड़,आपके हम हो गए
मुस्कराहट से हम समझे कुछ और
सुनायी जो दास्ताँ आपने हम रो गए  
मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Thursday 21 June 2012

गर आँचल से वक़्त की गर्द पोंछ दी होती


बैठे ठाले की तरंग ----------------------

गर आँचल से वक़्त की गर्द पोंछ दी होती
तस्वीर हमारी फिर से  निखर  गयी होती

यूँ वक़्त से पहले चरागे मुहब्बत न बुझता
गर आँचल से ज़माने को यूँ हवा न दी होती

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

जो तुम्हे, धुंधला नज़र आता है



बैठे ठाले की तरंग ----------------

जो तुम्हे,
धुंधला नज़र आता है
चेहरा हमारा
वो कुछ और नहीं
वक़्त की गर्द जम गयी है
बस --
हौले से एक बार
अपने आँचल से पोंछ दो
आईना ऐ दिल को
देखना
फिर से साफ़ नज़र आयेगा
चेहरा हमारा

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Wednesday 20 June 2012

हथेली पे जान रखना


बैठे ठाले की तरंग --------------

हथेली पे जान रखना
बातों की शान रखना
पैरों की छाप से अपने
पत्थर पे नीशान रखना 
सियासत ही करना है तो
अपने हाथो कमान रखना
इतने भोले मत बनो तुम
अपने मुह में जबान रखना
हवन ही यदि कर रहे हो तो
दामन न जले ध्यान रखना
मुंसिफ बिक चुका है, मुकेश
ज़रा सम्हाल के बयान रखना
मुकेश इलाहाबादी -----------

Tuesday 19 June 2012

पत्थर की हवेली है

बैठे ठाले की तरंग -------------
पत्थर  की  हवेली है
अन्दर  से  अकेली है
जबान मुह में रख के
अब  तक  न बोली है
मासूम  सी  आखों से
लगती भोली भोली है
खुशबू  उसके बदन की
महके तो चंपा चमेली है 
यूँ तो मेले में हैं हँसी कई
पर वह तो अलबेली है
खिलखिला के हँसे तो
लगे परियों की सहेली है

मुकेश इलाहाबादी --------

ये अलग बात कि हम हथेली पे सूरज उगाये बैठे हैं




ये अलग बात कि हम हथेली पे सूरज उगाये बैठे हैं
मगर आपके लिए तो जुल्फों की छांह सजाये बैठे हैं
औरत हो  के तो हमेसा जलना हमारा मुक़द्दर ठहरा
पर हर बार हमी  आपके  लिए  पलकें बिछाए बैठे हैं







मुकेश इलाहाबादी --------------------------------------- 

Monday 18 June 2012

एक शब्द चित्र ----------------


 एक शब्द चित्र ----------------

(पूने जम्मूतवी एक्सप्रेस ट्रेन )
सामने की बर्थ,
जिसपे यह आदमी सोया है
अभी अभी
रात सोयी थी एक सुन्दर लडकी
मासूम और खूबसूरत सी
खरगोश सा रंग
चूहे सी चंचल आखें
व भूरे बालों वाली वह लडकी
नीली जींस व आसमानी टॉप में
बिना किसी मेकप के भी
खूबसूरत लग रही थी
जो अपनी माँ से नाराज़ थी
वह मोबाइल से गाना सुनना चाह रही थी
पर माँ नहीं दे रही थी, शायद उसे
डर था वह अपने बॉयफ्रेंड से बात करेगी
थोड़ी देर रूठने मनाने के बाद
वह इसी बर्थ पे सो गयी थी
रूठ कर अपनी माँ से ---
सुबह लडकी भोपाल के स्टेशन पर
उतर चुकी है --
अपनी माँ के साथ
खिड़की के अन्दर से
मैंने उसे देखा था
पर उसने मुझे नहीं देखा
मै उसे और उसकी
खूबसूरत मासूम आखों में
रात का गुस्सा पढ़ रहा था ---
और ----
रेलगाड़ी रेंग चुकी थी
कुछ देर बाद मेरे ज़ेहन से
यह बात खो जायेगी
जिस तरह वह लडकी
स्टेशन के प्लेटफार्म की भीड़ में
खो गयी है
अभी अभी

मुकेश इलाहाबादी ---------------




Sunday 17 June 2012

ख़त तुम्हारे गंगा में बहा डाले हैं




ख़त तुम्हारे गंगा में बहा डाले हैं
ख्वाब  हमने  सारे जला डाले  हैं

सब के सब पेड़ शहर के कट गए 
सभी परिंदे गुम्बदों में डेरा डाले हैं 

बोलने  बतियाने  की  आज़ादी रहे
इस लिए  अपने  शर  कटा  डाले हैं


तुम  होते  तो  और बेहतर गुज़रती
तुम बिनभी दिन अच्छे बिता डाले हैं

उसने अपने दामन के फूल दिखाए
हमने भी अपने ज़ख्म गिना डाले हैं

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Friday 15 June 2012

पहले चश्मे की तरह दश्ते तीरगी में बहा करते थे

पहले चश्मे की तरह दश्ते तीरगी में बहा करते थे
अब आखों के समंदर में मौजों के संग रन्वा रहते हैं

तू अपने हाथो से मेरी प्यास बुझाए


बैठे ठाले की तरंग -----------------

तू अपने हाथो से मेरी प्यास बुझाए
मै अपने हाथो से तुझे जाम पिलाऊ
क्या  अजब शमा  होगा  मैखाने का
जब शाकी और दोनों को नशा होगा

मुकेश इलाहाबादी ------------------

अब कोई पत्ता हरा नहीं होगा


बैठे ठाले की तरंग -------------
अब  कोई  पत्ता  हरा  नहीं  होगा
सूख चुका है पानी इन ज़मीनों का
तीर  तलवार  बेशक  छूट  चुके हैं
तहजीब नहीं बदला इन कबीलों का 
ज़रा  सी  हवा  का  रुख  क्या बदला
नकाब  हट  गया  इन  मह्जीबों का
गर तूफाँ का जोर बढ़ता ही रहा,तो
सोच लो अंजाम क्या होगा सफीनो का
मुकेश इलाहाबादी --------------------

Thursday 14 June 2012

तेरा चेहरा किताब है


बैठे ठाले की तरंग ------

तेरा चेहरा
किताब है
कविता है
शब्द है --
पढ़ लूं
हर्फ़ दर हर्फ़



तेरा चेहरा
गुलाब है
सुर्ख है
नर्म है
सूंघ लूं
सांस दर सांस

मुकेश इलाहाबादी ------

खामोशी स्याह और लम्बी रात के बाद - टूटेगी


बैठे ठाले की तरंग -----
 
खामोशी
स्याह और लम्बी
 रात के बाद - टूटेगी
इस उम्मीद के साथ सोया था
किन्तु, वह
सुबह की धुप के साथ फैलती गयी
और अब
तपती दोपहर में
और गाढ़ी होकर
मौत की खामोशी के साथ
छितरा गयी है
दरवाजे, खिड़की, देहरी
मन, देह व देह के पार भी
यंहा तक कि सूख गए हैं
आंसू भी
लान में पीली पड़ती डूब की तरह ---

मुकेश इलाहाबादी -------------------- 

दिल हमारा जिनपे आसना हुआ


बैठे ठाले की तरंग ----------------

दिल  हमारा जिनपे आसना  हुआ
उनसे कभी न आमना सामना हुआ

चिलमन से ही हम उन्हे देखा किये
ख़तोकिताबत का ही दोस्ताना हुआ

अब तो चेहरे के नुकूष भी याद नही
कि उनको दखे हुए इक जमाना हुआ

ऐ मुकेष राहे ज़िंदगी मे थी बड़ी तपिश
साथ चले वे तो सफर कुछ सुहाना हुआ

मुकेश इलाहाबादी ----------------------



Wednesday 13 June 2012

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मुद्दत  हो  गयी  यायावरी  करते करते
ज़िन्दगी हो गयी अपनी एक बंजारे जैसे
मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Tuesday 12 June 2012

ख़त मेरे महबूब ------------------

ख़त मेरे महबूब ------------------
मेरे महबूब,
यह ख़त नही, गुफ़तगूं है।
जो की गयी है,
बोगनबेलिया, कचनार और गुलाब की कतारों से।
अषोक, देवदार और युकलिप्टस के उंचे उंचे लहराते पेडों से।
तुम्हारी यादों से
ये वो बातें हैं, जो गुपचुप गुपचुप की गयी हैं।
खामोषी की उन गहराइयों से।
जो इस पहाड़ की अतल गहराइयों से
प्रतिघ्वनित हुयी है।
वेद की ऋचाओं सी या कुरान की पाकीजां आयतों सी।
यह वह पवित्र एहसास  है।
जो  महसूस गया है।
इन पेड पहाड़ पगड़ंड़ी घास फूस
कोैवे गिलहरी सांप गोजर और ग्रामवासियों
के बीच फ़ैली रहने वाली अनवरत खामोशी के साथ।
जिसे कभी
कोई झींगूर की सूं सूं या दूर चलती पनचक्की की पुक पुक
या किसी बैलवाले की र्हड़ र्हड़ ही तोड़ पाती है।
उसी खामोषी को कैद करने की कोषिष की है।
लिहाजा .... मेरी जानू
मेरी अच्छी जानू ....
कई दिनो की जददो जहद के बाद तुम्हे खत लिखने का साहस कर पाया हूं। यह जददो जहद किसी और से नही अपने आप से थी। यह जददोजहद अपने विचारों से अपने सिद्धांतों से थी। इन दो तीन दिनो मे न जाने कितने विचारों के बवंडर आये और चले गये। कलम उठायी और फिर रख दी। दो चार लाइने लिखी और फिर काट दी। कभी कोई बात बनती कोई विचार आकार लेता पर फिर थोडी देर बाद ही रेत की लकीरों सा न जाने किस बवंडर मे मिट जाता।
पर पता नही कौन सी ऐसी कशिश थी। या कि रुहानी ताकत। या कि तुम्हारी मुहब्बत। जिसने मुझ जैसे आलसी और काहिल आदमी को भी यह खत लिखने के लिये मजबूर कर ही दिया।
हालाकि एक बात और। मै नही जानता इस वक्त तुम कहां हो। कैसी हो और क्या कर रही हो। मुझे याद करती हो भी की नही।
और याद करती भी होगी तो किस रुप मे, कह नही सकता।
पर इतना जरुर जानता हूं कि यह यह खत जो मै तुम्हे इतने प्रेम से लिख रहा हूं कभी नही भेजूंगा कभी भी नही। इसके सारे राज सीने मे दफन ही  रहेंगे। या कि जिंदगी की किताब मे किसी मुरझाये फूल सा दब के रह जायेगे।
खैर छोडो इन सब बातो को ----
हां बात शुरू हो ही गयी है तो मै भी हर लिखने वालों की तरह या नये मिलने वालों की तरह अपनी बात मौसम के तष्करे से करना चाहूंगा।
कल्पना करो।
चारों ओर पहाड़ है। जो गर्मी मे नंगे खड़े रहते है। शीशे से चमकते । और वही पहाड़ बरसात मे हरी घास और पदों से लदे फंदे मदमस्त हाथी से खडे़ हो जाते है। जैसे आज खड़े हैं।
कल्पना को आगे बढ़ाओगी तो देखोगी। 
इन्ही पहाड़ों के बीच मे बड़ी सी टेबल लैंड़ है,  इसी टेबल लैड़ मे कुछ मकान है। आस पास गांव है। थोड़े से रहवइया है। हमारी तरह।
समझ लो एैसा लगता है। मानो एक हरे भरे बड़े से  कटोरे के तली मे कुछ बौने रह रहे हों, और ये बौने उछल उछल कर अक्सर इस कटोरे की दीवार को फांदना चाहते है पर फांद नही पाते। अपनी कम उंचाई और छोटे छोटे हाथो से। उन्ही बौनों  मे से एक बौना मुझे भी समझो। जो अक्सर इन पहाड़ की दीवारों मे कैद तुम्हारी यादों के सहारे सिसकता रहता है जीता रहता है। इस उम्मीद से कि कभी तो वक्त आयेगा। जब तुम मुझे ढूंढ़ती ढूंढती यहां आ जाओगी या तो मै ही कभी इन पहाड़ों के पार आ सकूंगा और मिल सकूंगा अपनी स्नोव्हाइट से।
तो, मेरी स्नो व्हाइट।
तुम सोंच रही होगी । यह कैसा चाहने वाला है जो प्यार मुहब्बत की कसमे वादे  छोड़ न जाने किस खब्तपना की बाते करने बैठ गया।
क्या करुं। मेरी सोणी। मेरी महिवाल।
यहां रहते रहते। इन वादियों मे इन खामोशियों मे। इस जंगल मे। इन कौवे, गिलहरी सांप गोजर खरगोश  के बीच अपने आप को इन्ही की तरह ढ़ाल लिया है अब तो यही हमारे मित्र है दोस्त हैं सखा सहोदर हैं नातेदार, रिश्तेदार है।
जब कभी अपने आपको उदास पाता हूं तो किसी भी आम अमरुद चीड़ या देवदार के तने से लिपट रो लेता हूं । लड़ना झगड़ना भी रहता है तो इन अपढ़ निपट ग्रामवासियो से लड़झगड़ लेता हूं। गाली गलौज कर लेता हूं।
या कि कभी ज्यादा अकेलापन महसूसने लगता है। तो गांव की उतरी कच्ची चढ़ा लेता हूं और फिर मस्त मगन हो नाचता गाता और उछलता कूदता इन्ही वादियो मे ढे़र हो जाता हूं। सुबह होने तक के लिये।
हो सकता है तुम्हे यह बात पसंद न आये।
पर मुझे मालुम है तुम मेरी बहुत सारी गुस्ताखियों की तरह इसे भी बरदास्त कर लोगी।
मेरी अच्छी जानू।
जहां मै रहता हूं वह जगह देखने और रहने के लिये बहुत ही मुफीद है। हो सकता है दुनिया से दूर इस जगह को तुम न पसंद करो। पर एक बात जान लो आज दुनिया मे कहीं कुछ भी ऐसा नही हो रहा है जिसको न जानने से आदमी की खुशी मे कोई कमी रह जाती है।
हो सकता है तुम मेरी बात से इत्तफाक न करो पर। जब कभी उजेले पाख की गहन नीरव रातो को । इस मैदान मे। तनहाइयों के साथ इन झींगुरो का झन झन संगीत सुनता हू। या इन अनंत चमकते तारों को देखता हूं तो न जाने क्यों इस सब को बनाने वाले उस कुशल  चितेरे की सूझ बूझ और सौंदर्य परकता पे मन रीझ रीझ जाता है। शिर सजदा करने के लिये अपने आप ही झुक जाता है। सोचता हूं तो यह कहना ही पडता है जिसकी रचना इतनी सुंदर वह कितना सुंदर होगा। सच तारों से भरी रात हो या अमावस की काली कजरारी रात, सभी कुछ तो मनभावन होता है। मगर शर्त  है यह सब तुम्हे मेरी आखों से देखना होगा।
यहां की अंधेरी और सूनी रात जब चुपके चुपके बतियाती है तो बहुत बतियाती है। हां। यह जरुर है उसका बतियाना षब्दों मे नही होता। वह होता है पेड़ों की सूं सूं मे भौरों  की भन भन मे। पपीहे की टेर मे। या कि एक गहन मौन संगीत की तरह। जिसे कोई योगी या साधक ध्यान मे सुन पाता है। सोहम की तरह। या कोई भक्त तुकाराम के अभंग की तरह। या कोई मीरा कान्हा की बांसुरी की तरह।
मेरी बुलबुल। ऐसा हरगिज नही, कि इन वादियों की बेपनाह खूबसूरती मे डूब मै तुम्हारे गुलाबी होंठ, गाल और मदमस्त अदाओं को भूल गया हूं। मुझे तुम्हारी हर बात हर अदा तुम्हारे साथ बिताये एक एक पल जेहन के किसी कोने मे मौजूद रहते है। जो हर सांस के साथ। अपनी मौजूदगी बनाये रखते है।
सच तुम्हारी यादें ही तो है। जो सतत जिंदगी के अलाव को जलाये रखती है। धीमे धीमे। सोंधी सोंधी उपले की महक के साथ। जानती हो अलाव की राख आसानी से नही बुझती और नही कम होती है। वह अंदर ही अंदर सुलगती रहती है बड़ी देर तक। उसी तरह तुम्हारे साथ की यादें दिल की राख मे कैद है।
जानती हो सोनम। यहां बरसात मे बादल बहुत नीचे तक आ जाते है। यहां तक की इतने नीचे कि कभी कभी तो पहाड़ की फुनगी से उतर कमरे और विस्तरे तक आ जाते है। लगता है जैसे हम उड़ रहे हों। चल रहे हों बादलो के बीच। बस एक उड़न खटोले की दरकार रहती है।
काश हमारे पास एक उड़न खटोला होता तो तो कितना अच्छा होता। तुम जब चाहे नदी नाले और इन पहाडों को पार कर मेरे पास आजती और इन वादियों के अलमस्त मौसम मे हम दोनों रहगुजर होते। या कि मै खुद तुम्हारे पास आ आ कर तुम्हारी द्यनी अलकावलियों से हौले हौले छेड छाड कर चुपके से चला आता।
चलो छोडो, जो हो नही सकता उसकी क्या बाते करना।
जानती हो। सावन मे जब मेघ अपनी पूरी मस्ती मे उफान मे उछल कूद करते बरसते है। एक दूसरे से टकरा टकरा कर हरहराते हैं, तो इन पहाड़ो की चोटियों से एक एक कर बावन झरने झर झर बरसते है। उनमे से एक तो रिवर्ष वाटरफाल है। उसकी बौछारें हवा के झोंको से ऊपर की ओर उछल कर फिर नीचे की ओर जाती है। कितना खूबसूरत और लुभावना समॉ होता है। मानो कोई नवेली नहा के जुल्फें झटक रही हो। और जिसे किसी कैमरे कविता कहानी कहीं भी कैद नही किया जा सकता। उसे तो सिर्फ देखा और महसूसा जा सकता है। जिया जा सकता है। सांस सांस नशे मे उतारा जा सकता है। सच ऐसे मे तुम होती तो कितना अच्छा होता। कितना सोणा होता।
जानम। तुमको याद हो कि न याद हो। पर याद करोगी तो याद भी आजायेगी। उस दिन की जब हम दोनो। किसी गरम दिन की चिपचिवे मौसम मे। बरामदे मे बैठ बतिया रहे थे और मै तुमसे कह रहा था। कि मै चाहता हूं। कि मेरे पास सिर्फ एक कमरा हो। झोपडी नुमा। जिसमे मात्र जरुरत भर की चीजें ही तो भी चलेगा। बस जहां यह झोपडी हो वहा का वातावरण सुहाना और षांत हो। जहां मै एकांत मे रह सकू ओैर पढ सकूं। अपने पसंदीदा लेखको को और सोच विचार कर सकूं अपने तरीके से।
और जानती हो। वह सपना उम्र के इस मुकाम पे इस तरह आके पूरा होगा। मालुम भी न था।
यहां मेरे पास रहने के लिये दो कमरे का एक मकान है । जिसकी छत स्लोप लिये है जो बाहर से झोपडी की ही तरह लगता है। कमरे मे मेरे पास समान के नाम पे भी ज्यादा कुछ नही है और मुझे ख्वाहिष भी नही है। बस समझ लो कि एक साधरण सा पलंग। एक मोटा गददा। एक लिखने पढने की मेज। एक टी वी जो कभी कदात ही खुलती है। कुछ जरुरत भर के बरतन वा कपडे। बस यही मेरी ग्रहस्थी है। बिना ग्रहिणी के ?
मेरी चुनमुन।
जानती हो, अगर यहां के लोगों की माने तो, जहां मै रहता हूं। उन्ही पहाड़ोके ऊपर से रावण सीता को अपने उडन खटोले पे उठा ले जा रहा था। तभी सीता जी का कोई एक गहना गिरा था। वह जगह मेर रहने के जगह के आस पास की बतायी जाती है।
एक बात और जो मैने सुना है कि यह जगह शापित जगह है
तुम इन बातो को सुनकर क्या प्रतिक्रिया करोगी मुझे नही मालुम। पर इन बातों को सुनकर अच्छा जरुर लगता है। थोड़ी  देर को रोमांच भर आता है।
जबसे मैने सुना है तब से अक्षर अकेले ही इन पहाडों पे टहल टुहल आता हू। यह सोंचते हुए कि इन अनादि पहाडो पे न जाने कितने जानवरो। आदमियों के कदम पडे हांगे। न जाने कितनी बरसाते और धूप झेली होंगी इन चटटानों ने। न जाने कितने गांव दिहात बसे और उजडे होंगे। न जाने कितने काले कलूटे व गठीले आदिवासी तीर कमान से इन्ही जंगलों पहाड़ों के चप्पे चप्पे को छाना होगा शिकार किया होगा फिर थक,आग जला कर अपने षिकार से पेट भरा होगा महुआ की उतारी शराब पी के रात रात भर नाचा होगा। फिर इन्ही पेड़ों के झुरमुट के पीछे या झोपड़ी मे गुत्थम गुत्था हो के तन मन की आदिम भूख से निजात पायी होगी। सच दृ
मेरी छोनी छोनी सोणी। इन हरे भरे जंगलों व पहाड़ों के बीच मे एक ड़ैम भी है जिसका नीला गहरा पानी दूर तक शांत रहता है। इस गहरे नीले पन मे भी एक गजब का आर्कषण है जादू है जो देर तक व दूर तक बांधे रहता है। रोज तो नही अक्सर इस ड़ैम के किनारे किनारे न जाने कहां तक चलता चला जाता हूं। कभी कभी तो सूरज के उगे रहने पर ही चलना शुरु करता हूं और चांद के उग आने तक चलता ही रहता हूं। पर इस मौन  ड़ैम का छोर नही आता । फिर मै चांद की चांदनी से भीगता तारों से बतियाता । अपने ही आप मे मगन कब वापस आता हूं पता ही नही चलता।
कभी कभी लगता है यह ड़ैम भी मुझसे कुछ कहना चाहता है। जिसे मै सुन नही पा रहा हूं। इसी तरह कई बार मुझे ये पहाड़ भी कुछ कहते से नजर आते है। एक बार तो इन पहाड़ों से बड़ी देर तक बतियाता भी रहा।  हो सकता है तुम इन बातों और अहसासों को न समझ पाओ पर सच कहता हूं। क़ायनात का ज़र्रा ज़र्रा आपसे बतियाने को आतुर रहता है बस जरुरत है आपके हां करने की। आपके कानों को उनकी आवाज सुनने देने की। आपके दिलों को उनके दिलों के धड़कनो से मिल जाने देने की। खैर .....
सजनी। अगर मै तुम्हे बताने लगूं। तो इतनी बाते बताने के लिये है। इतनी बातें कि रात भर मे भी खत्म न हो। तो इस खत मे क्या होंगी।
आजकल। बारिसों का मौसम है। लोगों ने धान लगा रखें है। अब धान की पौध को एक जगह से उखाड दूसरी जगह रोपने का काम हो रहा है। हरे भरे पानी भरे खेतों मे पाति के पांत औरतो आदमियों को बोरे या बांस की बरसाती सा ओढे काम करते और गाते देखना बहुत अच्छा लगता है।
मेरी ड़ाल। क्या कभी तुमने आसमान पे उडते उए पक्षियों की पांतो को देखा है। एक के पीछे एक। कभी ये के आकार मे तो कभी हिंदी के सही के आकर मे। जानती हो जब ये चलते हैं तो एक क्रम से एक नियम से। पता नही इन्हे कौन सिखाता है। हो सकता हो इनके अंदर यह सब ज्ञान नैसर्गिक रुप से जन्म से ही प्राप्त होता हो। उसी तरह जैसे उडने के लिए पंख।
अक्षर मै भी तो उडता रहता हू। विचारों मे सपनो मे।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं। उडने का सपना देखना अति महत्वाकांक्षा का प्रतीक है।
पर मुझे तो नही लगता कि मै कोई अति महत्वाकार्क्षी आदमी होंऊ।
हां ज्यादा से ज्यादा पढ लेना और जान लेने की ख्वाहिष जरुर है। यह ख्वाहिष अगर महत्चाकांक्षा की जद मे आती है तो मुझे अपने आपको महत्वाकाक्षीं कहाने मे कोई गुरेज नही है।
वैसे देखा जाय तो मै अपने आप को एक साधारण इच्क्षा व चेतना का आदमी मानता हू।
पर छोडो इन सब बातों को।
मेरी अच्छी अच्छी प्यारी प्यारी मुहब्बत क्या तुम्हे पता है। मुहब्बत ही वह बूटी है वह खाद पानी है जो इंसान को ज़िदा और जीवंत बनाये रखती है। वही तुम मेरे लिये हो मेरी जीवन की बीर बहूटी। तो मेरी बीर बहूटी तुम्हारी खनखनाती हंसी व तुम्हारे आंखों का शरबती पानी ही तो है जिसे इतनी दूर से भी महज यादों के सहारे पी पी के जी रहा हूं।
सच मुहब्बत ही है जो दुनिया को देखने का अंदाज बदल देती है। क्या कभी तुमने उन लोगों को देखा है जिनके जीवन मे मुहब्बत नही होती । कभी देखना। वह कितने क्रूर और भयावह लगते हैं। इसके अलावा ...
सुना। तुम जानती हो किसी से मुहब्बत होने के पांच कारण बताये गये हैं।
पहला नैर्सगिक प्रेम।
यह प्रेम होने का पहला उपादान माना गया है। इस प्रकार के प्रेम पूर्व जन्म के संबंध कारण होते है।
दूसरा सुंदरता से प्रेम। तीसरा गुण से प्रेम। चौथा व्यवहार से प्रेम। पांचवां साहर्चय से प्रेम।
पर जहंा तक मै समझता हूं। तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम मे पांचों कारण उपादान बनते है। षायद यही कारण है मै तुम्हारे प्रति इतना ज्यादा आर्कषण महासूस करता हूं।
सच मेरी रुह तुमने मुझे जितना मासूम और उजला उजला नेह और प्रेम दिया उसकी गमक आज भी मेरे जेहन मे महमह करती है।
तुम्हारा यह नेह ही तो है जिसने बिछडने के इतने दिनो बाद भी न भूलने दिया।
मरी स्नो, तुम्हे तो मालुम ही है। मैने जिंदगी से कभी भी ज्यादा की ख्वाहिष नही की। पेट भर भोजन तन भर कपडे और तुम। हां इन सबके अलावा अगर कुछ और चाहा था तो वह बस अपनी पसंद की किताबें पढना और धयान करना।
और शांत बैठ प्रक्रिति को निहारना और निहारना। बस।
यहां सभी कुछ है। सिवाय तुम्हारे।
सोणी। सिवाय तुम्हारे जिंदगी महज इकतारा है। जिसे अकेले ही इन वादियों मे वर्षों से बजाता आ रहा हूं। तुन्नक तूना। तुन्नक तूना। जिसमे न कोई सुर है न कोई राग। न कोई रागनी। क्योकि मेरी रागनी तो तुम ही हो। तुम ही हो मेरा संगीत।
हालाकि संगीत का क ख ग भी नही जानता पर इतना जानता हूं कि तुम ही मेरा संगीत हो तुम ही मेरी ज़िंदगी हो तुम ही सब कुछ हो सब कुछ यंहा तक कि जीवन भी मृत्यु भी।
हालाकि संगीत की तरह मै यह भी नही जानता कि मुहब्बत क्या है। पर इतना पता है कि तुम मेरे अंदर सांस सांस में समायी हो। जिसकी रगों में तुम्हारी याद ही लहू बन के दौड़ रहा है।
मेरी जाना।
किसी ने कहा है कि मुहब्बत वह चाह है जिसमे रुह और जिस्म मिलने की ख्वाहिष रखते हैं . 
लिहाजा कभी यह मत सोंचना कि मै तुम्हे अपने गले लगाने की चाहत महज जिस्मानी हवस मिटाने के लिये है। नही यह तो वह आदिम चाह है जिसके पूरा हुए बिना मुहब्बत सिर्फ एक ख्वाब बन के रह जाती है।
वही ख्वाब एक दिन न खत्म होने वाले रेगिस्तान में तब्दील हो जाता है और जिसमे आदमी तड़प के अपने आप को खत्म कर लेता है।
खैर ....
इस वक्त रात बहुत गहरा चुकी है। पर नींद कोशो  दूर।
ऐसा ही होता है। अक्सर जब तुम्हारी याद आने लगती है। घंटो सोंचता रह जाता हूं तुम्हारे बारे मे। पर अक्सर ऐसा भी होता है कि बिना किसी कारण के भी नींद नही आती।
ऐसा क्यों होता है। यह तो पता नही पर ऐसा होता जरुर है मेरे साथ।
तब मै होता हूं और मेरी तन्हाई और सिगरेट। जिसकी तबल इस वक्त काफी महसूस कर रहा हूँ ।
सिगरेट सुलगाना। धीरे धीरे उठते धुएं को देखना। फिर लच्छे लच्छे बना छोड़ना। और अंत मे ठुठके को मसल के तो कभी छिटक कर फेंक देना और फिर होंठों को गोल कर सीटी सी आवाज निकलते हुए किसी उलजलूल काम मे लग जाना। आदत रही है।
हालाकि इस वक्त सिगरेट पीने के बाद क्या करुंगा। कह नही सकता। हो सकता है लिहाफ ओढ कर सों जाऊ। हो सकता है अंधेरे मे यू ही उल्लुओं सा बैठा रहूं। काफी देर। हो सकता है चाय या कॉफी बना धीरे धीरे चुस्कियां लेता रहू। और फिर नयी सिगरेट के स्वाद की कल्पना करता रहूंगा। हो सकता है किसी पढी या अनपढी किताब के पन्नो को उलटता पलटता रहूंगा। काफी देर तक। नींद न आने तक।
मेरी जॉन। तुम मेरी इन आदतो से यह न समझ लेना की मै एक बीमार और खब्ती आदमी हू। हालाकि यह तय जरुर है कि मै इस उम्र मे इस मुकाम पे आके एक खब्ती और बीमार आदमी ही बन गया हूँ ।
खैर पर छोडो मेरी इन बेवकूफियाना हरकतो को। हालाकि इन बेवकूफियों और बेहूदा हरकतो को मैने सूफियाना अंदाज देने की कोषिष की है।
वैसे एक बात बताऊं तुम्हे। मुझे न जाने क्यो सूफी दरवेश  पीर पैगम्बर औलिया लोग आकर्षित करते रहते रहे हैं।
खास कर सूफी लोगो की मस्ती दिल तक उतर जाती है।
पता नही क्यों मुझे सूफियों का लिबास और उनकी वेषभूषा आकर्षित करती है। हो सकता है किसी दिन तुम मुझे भी इसी रुप मे टहलते घुमते देखो। भले ही वह घूमना फिरना घर के ही अंदर हो।
वैसे भी मै कोई फकीर बन जाऊं, साधू बन जाऊं या पागल दिवालिया कुछ भी हो जाऊं। उससे तुम्हे क्या फर्क पडने वाला है तुम तो अपनी दुनिया मे खुश हो और रहोगी। हालाकि अब मेरी भी यही चाहत है। तुम जहां भी रहो खुश रहो।
मै अच्छी तरह महसूस कर रहा हूं। जो तुम महसूस करोगी इस ख़त को पढ़ते हुए।
तुम सोच रही होगी कि आज इस बुढ़ापे मे। इतनी संजीदगी। इतनी इष्काना बाते कर रहा हू। जो उस वक्त कहनी चाहिये थी जब वक्त था। या कि जब हम जवान थे। तो मेरी जानू। क्या करुं चाहा तो बहुत था यह सब उस समय भी कहना पर पता नही क्यों तुम्हारे सामने आते ही मेरे सारे शब्द खो से जाते थे। सारी हिम्मत जवाब दे जाती थी।
वैसे अगर यह बात आज भी लिखने की जगह कहना पडे तो शायद मै न कह पाऊं।
अब इसे तुम मेरी कमजोरी समझो या मजबूरी।
तुम सोंच रही होगी कि एक तो इतने सालों कोई खोज खबर नही कोई बात चीत नही पर अब जब बात शुरू की तो खत्म ही नही होने पे आरही। तो क्या करुं, जाना मेरे अंदर भी पता नही क्यों अजीब अजीब आदतें आती जा रही हैं। जिनके बारे मे मैने अपने हालिया खतम किये उपन्यास मे विस्तार से लिखा है। जानती हो उस उपन्यास को क्या नाम दिया है ‘एक बोर आदमी का रोजनामचा’। मै जानता हूं तुम यह नाम पढ कर हंस रही होगी कि। जो बात सबको मालुम है उसे लिखने की क्या जरुरत थी।
मेरी किलयोपेट्रा, आदमी को अगर समाज मे रहना हो तो समाज के नियम और कानून भी मानने होंगे। चाहे मजबूरी हो या खुषी। लिहाजा मै भी इधर कई महीनों से ऑफिस व परिवार की झंझटों मे फंसा था। लिहाजा चाह कर भी तुमसे नही बतिया पा रहा था। भले ही यह बतियाना आज की तारीख मे आत्मालाप के सिवा कछ भी नही है। पर फिर भी वह भी नही कर पा रहा था।
मैंने सोचा है अब से रोज तुम्हे खत लिखूंगा भले ही एक लाइन लिखूं या एक शब्द । अपने वायदे पे कहां तक टिक पाता हूं यह तो वक्त ही तय करेगा। पर पता नही क्यों जब तुमसे दो दो बातें हो लेती हैं। तो एकषुकून सा जेहन मे उतर आता है।
अच्छा एक बात बताओ कहीं ऐसा तो नही कि तुम मेरी बातों से बोर हो रही हा। पर क्या करुं आदत से लाचार हूं। जैसा की मैने बताया ही है। कि मै एक बीमार और बोर आदमी हूं।
और जब तुमने एक बोर और बीमार आदमी से दिल लगाया है तो उसको सहो।
सखी, क्या तुम्हे याद है वह पहला दिन जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था। बॉब कट बाल। बालों मे कलरफुल स्कार्फ । फूले फूले सेब से गाल। गालों मे पडता गढढा, और गहरे रंग की कलरफुल फ्राक। पैरों मे जूते मोजे से लैस। हल्के और गहराते जाडे की धुंधलकी शाम मे तुम घर के सामने वाले मैदान मे अपनी हमउम्र सहेली के साथ खेल और गा रही थी। दूर मै खडा तुमको एक टक देख रहा था। पर तुम इन सब से बेखबर अपने मे मस्त मगन खेल और गा रही थी। धीरे धीरे सांझ का झुटपुटा बढता गया और अचानक घर से तुम्हे पुकारने की आवाज सुन कर तुम अपनी सहेली के साथ उछलती कूदती अपने घर को चली गयी। और मै वहीं ठगा खडा रह गया था।
तुम्हारी वही मासूमियत तो है जिसकी याद मे मै आज भी ठगा सा खडा हूं।
इन पहाड़ो और घाटियों मे। और अब तो न जाने कितनी घाटियां मेरे सीने मे दफन हैं। अपनी तमाम ऊँचाइयों को लेकर। ठीक उसी तरह जैसे समुद्र की तलहटी मे न जाने कितने पर्वत आज भी समाधिस्थ हैं।
सुमी। हो सकता है तुम्हे मालुम हो कि न हो। पर यह भौगोलिक सत्य है कि हिमालय भी कभी समुद्र की गहराइयों मे खोया था। जो आज अपनी उतुगं चोटियों को फहराते शान से खडा है। खैर ...

मेरी मुहब्बत का हिमालय कब अपनी ध्वजा फहरायेगा। यह तो पता नही पर कई बरसों से यहीं समाधिस्थ हूं। तुम्हारी ही याद के सहारे।
और आगे न जाने कितने बरसों के लिये। शायद युगों युगों के लिये।

तुम्हारा।

चुप्पा

बैठे ठाले की तरंग ---------

चुप्पा
सामान्यतह
उसके चेहरे पर कोई भाव नही होते
‘चुप्पा’ ज्यादातर चुप ही रहता है
सारे भाव विभाव, हंसी खुशी, और
यहां तक कि सहमति और असहमति को भी
शून्य मे टांग दिया हो
शायद शून्य मे कोई खूंटी हो
या, हो सकता है उसके सभी
भाव और विभाव
इस चुप्पी के साथ
हवा मे घुल मिल कर शून्य मे
विलीन हो गये हों
बुजुर्गों का कहना है, वह
जन्म से ‘चुप्पा’ न था
अनुभव व उम्र ने
चुप्पा बना दिया है
पर, कुछ लोगों का विष्वास है
किसी बड़े हादसे ने, उसे
चुप्पा बना दिया है
बहरहाल कुछ भी हो
उसे ‘चुप्पा’ कहे जाने से
कोई एतराज नही है

मुकेश इलाहाबादी --------------

तिलचटटा

बैठे ठाले की तरंग ----------

तिलचटटा
अपनी नाक पर उगी
तलवार सी मूंछो को लेकर
किसी सेनापति से बहुत खुश  था
और नाली की जाली में
अलमस्त घूमता फिरता
या बिलबिलाता था
पर एक दिन उसे
न जाने क्या सूझी
शायाद उसे अपने तिलचटटेपन के कारण
यह बात सूझी होगी
और वह ब्रम्हांड़ नापने चल दिया
अपने कमजोर पैरों और
तलवार सी मूंछो के साथ
वह बहुत खुश था नाली के आगे
चिकने लम्बे फर्श को देखकर
वह उसपे रपटने और दौड़ने लगा
अचानक चिकने फर्श के मालिक ने देखा
इस साफ सुथरे फर्श पर
तिलचटटा !!!
झट उसने ‘हिट मी’ के बटन को दबाया
और कुछ गैस निकल कर
तिलचटटे को दर का दर खत्म कर गयी
जिस तरह कुछ लाख नाजियों को
गैस चैम्बर मे खत्म कर दिया गया था
कुछ सिरफिरों के दवारा
तिलचटटा,
अब फिर नाली मे था
अपनी मूछों के साथ
पर अब वह मर चुका था।

मुकेश इलाहाबादी ---------------------


















अक्सर, एक शरारत मीठी सी


बैठे ठाले की तरंग ----
अक्सर,
एक शरारत मीठी सी
तुम्हारे
चेहरे पे खिलती
जिसे तुम मेरी तरफ
उछल कर,
चल देतीं मुड़कर
चाय, काफी या ऐसा ही कुछ लाने
सच
तब तुम
मुझे बहुत अच्छी लगती
सच बहुत अच्छी लगतीं तुम - तब

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Monday 11 June 2012

आप से हमारी मुलाक़ात हो गयी


बैठे ठाले की तरंग ---------------
आप से हमारी मुलाक़ात हो गयी
तपती ज़िन्दगी, बरसात हो गयी
कांटो की बेतरतीब झाड ज़िन्दगी
आपसे मिल के गेंदा गुलाब हो गयी
साजे दिल पे आपने  हाथ रख दिया
ज़िन्दगी  हमारी  सितार  हो  गयी
आपकी मुहब्बत के पैमाने में ढलके
ज़िन्दगी  आब  थी  शराब  हो  गयी 
 

मुकेश इलाहाबादी -------------------

गम उदासी और तनहा रात लाई है

बैठे ठाले की तरंग -----------

गम उदासी और तनहा रात लाई है
जिंदगी मेरे लिए क्या क्या सौगात लाई है

समझे थे की, इश्क में गुजरेगी मौज से
पै मुहब्बत मेरे लिए हादसात लाई है

सोचा था अब तो शब् घर सोयेंगे चैन से
रात मेरे लिए आंसुओ की बरसात लाई है

ज़िन्दगी तेरे बिना मुहाल हो गयी
तेरी याद ही है जो मेरे लिए हयात लाई है

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

Friday 8 June 2012

अपनी कविता के बारे में --------



अपनी कविता के बारे में --------

मित्रों,
मै,
कवि नही
कवि मना हूं
भावों से बना हूं
जीवन भर उन्मुक्त बहा हूं

न मानूं बंधन को
न जानू कविता के
छंदो बंदों के तटबंधों को
हरदम भावों में ही बहा हूं

जब भाव बहा करते हैं
उसमें खूब नहाता हूं फिर कुछ भावों कों
शब्दों की अंजुरी में भर भर लाता हूं
उसको ही अपनी कविता कहता हूं

मालूम है मुझको
मेरी कविताएं,
कविता के मीटर के बाहर रह जाती है
सारे नियमों को तोड़ बहा करती है

पर यह भी मालूम है मित्रों
आप न देते इस पर ध्यान
इन कमियों को मुझे बता कर
इन भावों को देते पूरा मान

मुकेश इलाहाबादी -------------------

बहेलिये तेरे जाल में न आयेंगे परिंदे

बैठे ठाले की तरंग ----------

बहेलिये तेरे जाल में न आयेंगे परिंदे
नई शदी के हैं बेख़ौफ़ बेबाक से परिंदे

ऊंची से ऊंची उड़ान को तैयार हैं सभी
ये अब तेरी हर चाल हैं समझते परिंदे

रह रह  के हवा का रुख परखते हैं, औ 
हरबार अपने जंवा पर तोलते हैं परिंदे

ज़मी से  अपना जाल  समेत  बहेलिये
ये ऊंचे से ऊंचे  मचानों पे बैठते हैं परिंदे

अब कुछ न कुछ तबदीली हो के रहेगी  
हर  रोज़ नई नई उड़ान भरते हैं ये परिंदे

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

ब ज़िद हैं हम,कि हर बार करेंगे

बैठे ठाले की तरंग -------------
ब ज़िद हैं हम,कि हर बार करेंगे
गुनाह-ऐ-मुहब्बत सौ बार करेंगे

कितनी ही बेवफाई कर लो मुझसे
हम तो  तुम्ही  पे  ऐतबार  करेंगे

जब तक आने का वादा न करोगी
मिन्नतें हम तुमसे बार बार करेंगे

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Wednesday 6 June 2012

फिजाओं में मिस्री सी क्यूँ घुली है ?


फिजाओं में
मिस्री सी क्यूँ घुली है ?
सुना है --------
उन्होंने
अपनी बिखरी जुल्फों को
झटक के फिर समेटा है

मुकेश इलाहाबादी -----------

Monday 4 June 2012

वो -- मुस्कुराना ख्वाब में


बैठे ठाले की तरंग ---------------

वो --
मुस्कुराना ख्वाब में
औ  ----
कुनमुनाना नींद में
अच्छा लगा ---- देखना
तुमको - तुम्हारी नींद में
वो --
ढलका हुआ आँचल
औ --
करवट बदलना - नींद में
अच्छा लगा --- देखना
तुमको - तुम्हारी नींद में
सोचता हूँ ---
एक बोसा दे दूं
तुमको - तुम्हारी नींद में
फिर ---
बाहों में मुस्कुराता देखूं
तुमको तुम्हारी -- नींद में

मुकेश इलाहाबादी ------------

ख्वाब में ही सही

बैठे ठाले की तरंग -------------

ख्वाब में ही सही
तेरी सूरत तो नज़र आती है

गो की मेरा घर
तेरे घर से दूर बहोत है
पै, तेरे रूह की सेंक
इधर तक आती तो है

गर निगोड़ी हवा
राह में यूँ न भटकती
तेरे आँचल की खुशबू
मेरे तक आती तो है

ये शहर की चुप्पियाँ
कानो में फुफुफुसाती हैं
ज़माने में कंही न कंही
अपनी रुसवाई तो है

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Friday 1 June 2012

वह ज़मी की तह तक गया है


बैठे ठाले की तरंग -----------

वह ज़मी की तह तक गया है
तभी बुलंदियों को छू गया है
देखना समंदर के पार जाएगा
तूफां और सफीनो से न डरा है
आफताब सा उगेगा एक दिन
खुद को इतना जला लिया है
बीज बन के माटी में मिला था
वही आज फूल बन के खिला है
पत्थर बना डाला है खुद को
अब वो सदियों तक का सिला है

मुकेश इलाहाबादी ----------------