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Thursday 29 January 2015

ख्वाहिशें इन्सान के लिये खाद पानी होती हैं।

सुमी,

ख्वाहिशें इन्सान के लिये खाद पानी होती हैं। इन्सान के अंदर ख्वाहिश न हो कुछ पाने की कुछ जानने की कुछ करने की तो समझ लो वह इन्सान इन्सान नही जड है पत्थर है, एक बेजान मूरत है। यही ख्वाहिशे ही तो हैं जो इन्सान को आगे आगे और आगे बढाती है। यही ख्वाहिशे तो है जो इन्सान को तरक्की के रास्ते पे ले जाती हैं। ख्वाहिशे न होती तो इन्सान इन्सान नही जानवर होता। 

एक बात जान लो ख्वाहिशों मे और अमरबेल मे कोई फर्क नही है। अमर बेल की सिफ़त होती है कि उसकी कोई जड नही होती वह किसी न किसी पेड का सहारा ले के बढती है, और वह जिस पेड का सहारा और खाद पानी लेकर बढती है उसी को सुखा देती है। बस उसी तरह इन ख्वाहिशों का समझो। ये ख्वाहिशें वो अमर बेल हैं जो हर इंसान के अंदर जन्म लेती हैं और फिर इन्सान इस बेल को पुष्पित और पल्लवित करने मे लगा रहता है, और नतीजा यह होता है कि उसकी ख्वाहिशों की अमर बेल तो फलती फूलती रहती है दिन दूनी बढती रहती है पर वह इन्सान दिन प्रतिदिन सूखता जाता है, सूखता जाता है, और एक दिन सूख कर खुद को ही खत्म कर लेता है।
और जिसने इस ख्वाहिशों रुपी जहरीली अमरबेल को शुरुआत मे ही बढने से रोक देता है वही अपने वजूद को बचा पता है। या फिर इन्हे उतना ही फैलने देता है जितनी उस इन्सान की शक्ति और सामर्थ्य है। वर्ना उस इन्सान का वजूद खत्म ही समझो।
सुमी, ऐसा नही कि मेरे अंदर कोई ख्वाहिश नही। मेरे मन मे भी कई ख्वहिशें रही कई सपने रहे जिन्हे मै बडी शिददत से पालता रहा देखता रहा। पर मैने कभी इन ख्वाहिशों को इतना पर नही फैलाने दिया कि वो मेरे ही वजूद पे हावी हो जायें। हालाकि, इस बात से कई बार मेरी चाहते फलने फूलने और पूरी होेने के पहले ही मर खप गयीं और मै काफी देर तक तरसता रहा तडपता रहा, पर यह भी है कि, बाद मे मेरा यही निर्णय सही भी साबित हुआ। आज मै बहुत खुश नही हूं तो दुखी भी नही हूं।
लिहाजा मेरी जानू मेरी सुमी, मै तुमसे भी यही कहूंगा कि सपने देखो पर सपनो में डूबो नही। ख्वाहिशें रक्खों पर ख्वाहिशों के लिये पागल मत बनो।
और जो ऐसा कर लेता है वही बुद्ध है वही ज्ञानी है वही महात्मा है वही सुखी है।

बस आज इतना ही कहूंगा। बाकी सब कुछ यथावत जानो।

तुम्हारा दोस्त



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