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Monday, 12 August 2019

किसी दिन

हो
सकता है
किसी दिन
तुम्हे तुम्हारे पुराने दिन
याद आएं 
और
तुम लौट के आओ
पार्क के उसी कोने में
उन्ही खूबूसूरत लम्हों को
फिर से जीने के लिए
वहां तुम्हे मिले
एक वीरान कोना
कुछ सूखी झाड़ियाँ
एक
ज़र्ज़र कुर्शी
जिसपे बैठ हमने बिताए थे
कई अनमोल लम्हे,
जिसके हत्ते पे
तुमने खरोच - खरोच के
लिख दिया था अपना नाम
मेरा नाम
और एक गुलमोहर का तन्हा पेड़
जो तुम्हारे जाने के बाद ऊगा था
और जो अनवरत गिराता है
हर रोज़ कुछ फूल और
कुछ पत्तियां
उस ज़र्ज़र कुर्शी के हत्ते पे
ठीक उसी जगह
जहाँ तुमने कुरेद कुरेद के
लिक्खा था किसी दिन
अपना नाम मेरा नाम
(क्युं सुन रही हो न सुमी?)
मुकेश इलाहाबादी ------

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