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Monday 31 August 2020

जिस्म से रूह तक महकती है

 जिस्म से रूह तक महकती है

इत्र की नदी फूलों की कश्ती है

हैं सोने के बाल चाँदी का बदन

परी है रात खाबों में उतरती है

अदा की चूनर हया का दुशाला

मोम से भी मुलायम लगती है

फ़रिश्ते भी देखने उतर आते हैं

बेनकाब घर से जब निकलती है

कुछ भी पूछो खामोश रहती है

कभी मुस्काती है कभी हंसती है

मुकेश इलाहाबादी ------------

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