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Thursday 9 May 2013

वक़्त के साचे मे कभी ढलना नही आया



वक़्त  के साचे मे कभी ढलना नही आया
पत्थर पे बेवज़ह सिर तोड़ना नहीं आया

चाहूं तो हवा का रुख मोड़ सकता हूँ ,पर
बिन बात मौसम से भी लड़ना नहीं आया

इक बार जो कारवां ले के निकल पड़ता हूँ
फिर बिना मंजिल पाए रुकना नहीं आया

जब तलक कोई दिल के करीब नहीं आता
रिश्तों में ज़ल्दी घुलना मिलना नहीं आया

गुल औ कलियाँ शाख पे ही अच्छी लगती हैं,
उन्हें अपनी खुशी के लिए मसलना नहीं आया

हो कोई भी हाकिम हुक्मरां, आलिम -फ़ाज़िल
मुकेश को हर किसी के आगे झुकना नहीं आया

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

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