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Monday 24 February 2020

तुम्हारी खामोशी ने कहा

एक
,,,,,
तुम्हारी
खामोशी ने कहा
मेरी बेचैनी ने सुना
एक नज्म,
एक रुबाई जो
न कागज़ पे उतरी,
न कभी
किसी होठों ने गाई
पर अनहत नाद सी
गूंजती रहती है
तुम्हारे नाम की,,, नज्म
मेरे अंतर्तम मे
अहर्निश, और मैं तुम्हें
महसूस करता रहता हूं
शिवोहम की तरह
सुन रही हो न सुमी?
तुम कुछ
बोलती क्यूँ नहीं?
तुमने
न बोलने की कसम खा रखी है क्या ?
दो
,,,,,,,,,,
तुम्हारी
खामोशी को
अक्सर,
क़तरा - क़तरा बन के
आँखों की कोरों पे
जमे हुए देखा है
जो न गालों पे लुढकते हैं
न सूखते हैं
हाँ! न जाने किस ग़म की
तपिश से वाष्पित हो
बादल बन उमड़ते घुमडते हैं, और अक्सर उनकी
अदृश्य बूंदों से
मैं भीगने लगता हूँ
रात की तन्हाइयों मे
बहुत बहुत देर तक के लिए
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

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