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Monday 24 February 2020

इबारत.

जिंदगी
स्याह पन्ने पे
काली स्याही से लिखती रही,,, अपनी इबारत.
लिहाजा
जब कभी माज़ी के पन्नों को
पलट के पढ़ना चाहा,,
स्याह पन्नों पे स्याह हर्फ़
मुँह चिढ़ाते मिले,
लिहाजा कुछ पढ़ सका,
कुछ अंदाजा लगाया,,
जिन्हें आधी हकीकत आधा फ़साना ही जानो ...
जैसे,,, तुम मेरी चाहत हो,, ये हकीकत
तुमने भी मुझे चाहा,,, ये फ़साना
तुम मुझे भूल गई,, ये हकीकत
मैंने तुम्हें भूलना चाहा,, ये फ़साना
तुम अभी भी खुश और हसीँ हक़ीक़त
मै खुश ,,, ये फ़साना
मुकेश इलाहाबादी,,,,

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